दोस्तों अगर आप देवो के देव महादेव के सुविचार पढ़ना चाहते है तो आप सही वेबसाइट पर आये है यहाँ पर आपको 25 से जायदा स्टेटस देखने को मिलेंगे। आप यहाँ से स्टेटस को फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सप्प, पर भी शेयर कर सकते है
में अवसिया प्रसन होता हूँ
2. मेरी द्रष्टि में कोई बड़ा या कोई छोटा नहीं होता। सब की योग्यता एक समान है। और छोटा या बड़ा कहलाने से क्या प्राप्त होता है। सब से महत्वपूर्ण होता है कर्म। इसलिए आप सबको अपने अपने कर्म पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए....
3. जब तक पत्थर के अंदर छुपी हुई अग्नि तभी प्रकट होती है। जब कोई उस पत्थर में घर्षण उत्पन करता है। वैसा ही व्यक्ति में घर्षण उत्पन करने वाला गुरु होता है। जो अज्ञानता दूर कर मनुष्य को स्वंय से मिलाने का प्रयास करता है. गुरु शिष्य को जन्म नहीं देता। अपितु आकर देता है। ..
4. शत्रु असुर नहीं अपितु मन में उतपन होने वाला लोभ , अहंकार और महत्वकांशा है। जो भी इन तीन भावो के अधीन हुआ है। वो असुर है। जब तक ये तीनो अवगुण इस संसार में रहेंगे। संसार पे कोई न कोई संकट मंडराता रहेगा।
5. दुसरो की उपलब्धि से जिस दिन तुम्हारा मन उसी की भांति प्रसन नहीं हुआ। तो ये समझ लो कि सतवृतियों का मार्ग छूट रहा है। यदि दूसरों की उनती देखकर ,तुम्हारा मन स्वयं प्रफुल्लित होना ही बंद हो जाए। यह समझ लो कि तुम्हरे मन में पैशाचिक प्रवृतियों का निवास आरम्भ हो चूका है। जब तुम दुसरो के आनंद को शोक में परिवर्तन करने का प्रत्यन करने लगते हो। तो ये समझ लो कि तुम परिवर्तित हो चुके हो।
6. परिश्रम से हमें भोजन प्राप्त होता है। और उससे हमरी सुधा मिटती है, किन्तु हमरे जीवन का उदेश्य केवल अपने पेट की सुधा को मिटाना नहीं होता। हमारे जीवन का उद्देश्य है इस जन्म ईश्वर के और समीप आना और ये केवल आत्मा के विकास से ही संभव है और आत्मा का विकास केवल चिंतन , मनन संगीत और सत्संग से ही संभव होता है।
7. जो पवित्र मन से निश्चल भाव से मेरी भक्ति करते है ,उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं किन्तु जिनकी भक्ति मेरे प्रति समर्पित नहीं , बल्कि अपने अहंकार को पोषित करने हेतु है , उनके अहंकार का टूटना निश्चित है।
8. अपने भीतर की निर्मलता को बाहरी दिखावे की प्रभुता से कुचल दिया जाए। यह मार्ग पतन का ही है। जो व्यक्ति अपनी भूल न स्वीकार कर उसका प्रायश्चित ना करे ,उस पर अटल रहे , उसका विनाश सुनिश्चित है।
9. यदि तुम ये सोचते हो कि यह समस्त संसार केवल मुझसे है तो तुम्हे इस संसार के प्रत्येक सवरूप से प्रेम होना चाहिए था। तुम्हे इसके कण कण में मेरी अनुभूति होनी चाहिए थी ,तब भी किसी प्रकार का भेदभाव तुम्हारे मन में उतप्न्न नहीं होता ,.
10. प्रेम का अर्थ अवश्य है ,,,,मेरे भक्त , मेरे गण , इनसे मेरा संबंध प्रेम का ही तो है। भले ही वो प्रेत हो, पिशाच हो, पशु हो, या फिर मनुष्य ,,,,, और जिस प्रेम कि ओर आप संकेत कर रहे है। वो तो स्वार्थ और अहम से परिपूर्ण होता है। और मेरी साधना का धैर्य , उसी स्वार्थ और उसी अहम का त्याग है।
11. जीव हूँ, में हि ब्रम्ह हूँ , सम्पूर्ण जगत हूँ , व्यंजन हूँ , विकराल कल हूँ, में ही एक लघु पल हूँ, में ही अमर हूँ, और प्रत्येक मृत्यु में मैं ही मरता भी हूँ।
12. जो व्यक्ति सत्य को जानते हुए भी लोभ का परित्याग नहीं करते। वो सदैव इन्हें खोने के भय में जीते है। जो व्यक्ति सत्य को जानते ही नहीं वो अंहकार में जीते है। और जहां अंहकर और भय उपस्थित हो। वहाँ सुख कैसे रह सकता है.
13. एक संबंध की सफलता वो है जब शब्दों की आवश्कता ही समाप्त हो जाए। केवल आभास रहे, विश्वास रहे, जागरूकता रहे, संतोष रहे, बिना कहे ही एक दूसरे की बात समझ ले.
14. जब ज्ञान के लिए शब्द पर्याप्त न हो, उदाहरण प्रस्तुत्त करना अनिवार्य हो जाता है। केवल आप के लिए ही नहीं, अपितु आपके माध्यम से समस्त संसार को, शिव और शक्ति की संयुक्ता से पुन: अवगत कराना इस प्रसंग का उद्देश्य था। जो पूरा हुआ।
15. मैं वो हूँ जो नहीं है ,जो नहीं है वो में हूँ , चिरकाल तक सभी को यह स्मरण रहे जब आप में श्वास है तो में आप में हूँ और जिस क्षण आप मैं श्वांस नहीं ,,, तब आप मुझमें है
16. अग्नि जलती है, जल बुझाता है, दोनों के कार्यक्षेत्र पूर्व परिभाषित है। और भिन्न है, . दोनों एक दूसरे को प्रस्थापित नहीं कर सकते। इसी प्रकार इस समस्त संसार मैं सभी की भूमिका पूर्व परिभाषित है संसार की यही विविधता इसकी विशेषता भी है.
17. किन्तु जब कोई व्यक्ति इछाओ को आवश्यकता समझने लगे। तो धन कितना ही क्यों न हो पर्याप्त नहीं होता। क्योंकि इच्छाये अंतहीन है। इसलिए मनुष्य कभी न समाप्त होने वाली इच्छाओं की पूर्ति हेतु , धन संचय को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझ लेता है।
18. किन्तु बिना परिश्रम ,बिना तपस्या के जो भी ज्ञान प्राप्त होता है। वो सम्पूर्ण नहीं होता। तुम्हें सभी सुखों की प्राप्ति होगी। किंतु तपस्या के बिना समस्त संसार भी मिल जाए। वोह व्यर्थ है।
19. किसी को ये दुःख है की उसके पास कुछ भी नहीं, और जिसके पास सब कुछ है उसे ये दुःख है की पाने की कुछ शेष नहीं। सुख को हम स्वयं अपने दृष्टिकोण से परिभाषित कर देते है। जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है। इस लिए आवश्यकता है अनासक्त रहने की।
20. की क्या उचित है ,और क्या अनुचित , ये तो प्रकृति मैं आदिकाल से ही निहित है। यह नियम तो केवल श्रष्टि के नियम है। और प्रत्येक व्यक्ति के कर्म उसका परणाम निर्धारित करते है। व्यक्ति के अपने कर्म ,उसके उत्थान या उसके पतन के निर्णायक होते है।
21. जो व्यक्ति ,जो समाज, योग से और साधना से जितना विमुख होगा। वो समाज आत्मरक्षा के लिए कवच दुर्ग.. और अस्त्र और शास्त्रों निर्माण हेतु सदैव विवश होगा। व्यक्ति के अंतः मन से सुभता जितनी ही क्षीण होती जाएगी। योग की अग्नि जितनी काम होती जाएगी ,उसके जीवन मेँ अंधकार की अग्नि उतनी ही प्रचंड होती जाएगी
22. व्यक्ति यदि अपने कर्मो के लिए उत्तरदाई समझे , तो वो स्वतंत्रता है , जब तक व्यक्ति और को उत्तरदाई समझेगा , तब तक वो निर्भर रहेगा। व्यक्ति यदि ये सोचे कि उसके दुःख का कारण कोई और नहीं, तो वो सुखी कैसे रह पाएगा , ये असंभव है, क्योकि दूसरों को परिवर्तित करना उसके वश में नहीं ,वो तो केवल अपने आप को परिवर्तित कर सकता है. यही एक सवतंत्रता है उसके पास। जो पीड़ा है जो कष्ट है। वो व्यक्ति के अपने फल है, अपने निर्णय के फल, और जिस दिन वो अपने निर्णय परिवर्तित कर ले. उसी दिन उसके जीवन में परिवर्तन भी आ जायगा।
23. भक्त यदि सच्चा हो, तो उसके पास अपने आराध्य को पाने के अतिरिक्त ,ये सोचने का समय ही कहा होता है कि उसके आराध्य से महत्वपूर्ण भी कोई है या नहीं , वो तो प्रतिपल अपना ध्यान केवल अपने आराध्य पर ही स्थिर रखता है। और जब ऐसा होता है तो न तुलना होती है ना प्रतिस्पर्धा होती है और ना ही किसी प्रकार की कोई ईर्ष्या होती है। वहां तो केवल आनंद की अनुभूति ही विद्यमान होती है.
24. क्या आपको मुझ पर विश्वास है , क्या आप मानते है कि मुझसे ही सब की उत्पति हुई है। मुझ में ही निवास है और सब मुझ में ही विलई होते है, जो कुछ भी है वह मुझ में ही है और जब कुछ नहीं भी रहेगा ,, तो भी में रहूँगा ,,,,,
25. चंद्रमा उसी जल में प्रतिबिंबत होता है जो जल शांत है ,,, स्थिर हो ,,यही तो समस्या होती है मन की ,, मन कभी भी शांत नहीं हो पता है ,,,, स्थिर नहीं रह पाता ,, जहां शांति नहीं वहां कुछ भी नहीं रुकता ,,,,|
26. युद्ध किसी व्यक्ति से नहीं मानसिकता से होता है ,,युद्ध में संघर्ष अच्छाई या बुराई का नहीं होता ,,सभी में अच्छाई है और बुराई भी है ,,युद्ध तो विचार धाराओं का होता है ,,,व्यक्ति अपने पराक्रम पर ,, अपने क्षमता पर विश्वाश कर युद्ध करता है और जब उस विश्वास पर क्षति पहुंचती है तो सब कुछ निर्रथक प्रतिक होने लगता है।
27. शक्तिशाली बनना अत्यंत कठिन है ,,किन्तु उससे भी कठिन होता है ,,,शक्तिशाली बने रहना ,,और इसके लिए आवश्यक है ,,कि हम शक्तियों से प्राप्त हुए उत्तरदायित्व का सम्मान करें ,,,अनयथा हम स्वयं पर निरंतर को देते है,,और यह हमारे पतन का कारण बनता है।
दोस्तों अगर आप महाशिवपुराण की सम्पूर्ण कथा को पढ़ना चाहते है तो आप हमारी वेबसइट से पढ़ सकते है।
0 Comments