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श्री शिवमहापुराण उमासंहिता (आठवाँ खण्ड Part - 4

 


   चौदहवाँ अध्याय


    शिवजी का ब्राह्मणवेश में हिमाचल के पास जाना 


श्री ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! राजा हिमाचल के गुरु के पास कथनानुसार सब देवता एकत्र होकर मेरे (ब्रह्मा जी के) पास आये और अपना मनोरथ मुझे कह सुनाया। मैंने कहा- 'हे देवताओं! तुम्हारी यह आदत ठीक नहीं है। जो तुम मुझे सदाशिव की निन्दा सिखाते हो। मैं कभी भूलकर भी भगवान श्री सदाशिव जी की निन्दा नहीं करूंगा। क्योंकि उनकी निंदा सुख शांति का नाश करके संकटों में डाल दिया करती हैं। अगर तुमको यह काम अवश्य ही करवाना है तो तुम सब लोग कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान सदाशिव जी को प्रसन्न करो ताकि वह आप ही हिमाचल के पास जाकर अपनी निन्दा करें। क्योंकि भगवान सदाशिवजी की निन्दा संसार में आज तक न किसी ने की है और न ही कोई भविष्य में करेगा। मेरी बात सुनकर सबके सब देवता कैलाश पर्वत पर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास पहुँचे और स्तुति करके बोले- प्रभु! हम सब आपकी शरण में आये हैं। 


हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिये। यह कहकर उन्होंने अपना मनोरथ कह सुनाया। देवताओं की बात सुनकर भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और देवता फिर निश्चिन्त होकर अपने-अपने लोकों को चले गये और उनके जाने के पश्चात् भगवान श्री सदाशिव जी अत्यन्त सुन्दर रूप धारण कर हाथ में श्वेत रत्नों की माला लेकर, मस्तक पर तिलक लगाकर, गले में शालिगराम की मूर्ति बांध कर, बहुमूल्य वस्त्रों तथा आभूषणों को धारण करके महाराज हिमाचल के पास गये। उन्हें देखकर महाराजा हिमाचल अपने परिवार सहित उनके स्वागत के लिये उठ खड़े हुए और बड़ी श्रद्धा के साथ भगवान को बार-बार प्रणाम करने लगे। पार्वतीजी ने उन ब्राह्मण वेषधारी भगवान सदाशिव जी महाराज को देखने के साथ ही पहचान लिया और भक्ति के साथ प्रणाम किया। महाराजा हिमाचल ने उनको आसन पर बिठाया और उन्होंने सबकी कुशलता पूछी। फिर राजा ने भगवान श्री सदाशिव महाराज से पूछा- 'महाराज ! आप कौन हैं। कहाँ से आए हैं और यहाँ किसलिये पधारे हैं?


भगवान श्री सदाशिव जी बोले- राजेश्वर! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूँ। परोपकार करना मेरा धर्म है। भिक्षा माँगकर अपना पेट पालता हूँ। मैं जहाँ-तहाँ भ्रमण करता रहता हूँ। अपने गुरु की कृपा से मैं तीनों काल का हाल जानता हूँ। तीनों लोकों में जो कोई भी काम करता है, या इच्छा करता है, उसे मैं अपने मन में जान लेता हूँ। मुझे ज्ञात हुआ है कि तुम अपनी कमलों के सामन नेत्रों वाली कन्या को शिवजी जैसे निर्गुल और माता-पिता से हीन मनुष्य को देना चाहते हो, राजन! तुम्हारी यह कामना श्रेष्ठ नहीं है। सम्पूर्ण सृष्टि के देवता, ऋषि महर्षि आदि जिन भगवान विष्णु की सेवा करते हैं, तुम उनके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दो। तुम एक लाख पर्वतों के राजा हो और श्री विष्णु जी महाराज भी एक बहुत बड़े राजा हैं। 


इसलिये वह हर प्रकार से सम्बन्ध करने के योग्य हैं। पार्वती का विवाह भगवान विष्णु के साथ करने के सम्बन्ध में आप अपने सम्बन्धियों से भी परामर्श ले सकते हैं। यदि तुम कहो कि पार्वती सिवाय भगवान सदाशिव के और किसी के साथ विवाह करना नहीं चाहती तो उसके बारे में निवेदन है। कि रोगी सदा अपने लिये ऐसी चीजें चाहता है जो कि उसको हानि पहुँचाती हैं। मगर वैद्य उसको सदा लाभ पहुँचाने वाली चीजें ही दिया करता है। 'हे नारद! इस प्रकार कहकर भगवान सदाशिव जी महाराज वहाँ से चले गये।'



  पन्द्रहवाँ अध्याय 

  शंकर द्वारा स्वयं की निन्दा करने पर मेनका का घबरा जाना


श्री ब्रह्मा जी बोले- 'हे नारद! सदाशिव जी की बात सुनकर मेनका अत्यधिक घबरा गई, उस समय दुःख व चिन्ता के कारण राजा हिमाचल के नेत्रों से भी अश्रुधारा बहने लगी। मेनका ने कहा- 'आप शिव भक्तों से मिलकर सारी बात सोच समझ लें। यदि इस ब्राह्मण की बात सच्ची है तो मैं पार्वती का हाथ शिव के हाथ में देने के बजाय खुद तो विष खा लूँगी और पार्वती को भी समुद्र में धकेल दूँगी।


महाराज हिमाचल सोच रहे थे कि यह सब क्या हो रहा है? हमारी नैय्या भगवान ही किनारे पर लगायेंगे। उधर भगवान श्री सदाशिव जी जब महाराज हिमाचल से विदा होकर कैलाश पर पहुँचे तो उन्होंने सप्त ऋषियों को अपने पास बुलाकर कहा- 'हे ऋषियों! तारक देवताओं को महान कष्ट पहुँचा रहा है। ब्रह्मा जी ने उसे वर प्रदान किया था। उधर गिरिजा जी ने मुझे प्राप्त करने के लिए उग्र तपस्या की है, अतएव उसको मैं इच्छानुसार वर दूँगा। मैं अब गिरिजा के साथ विवाह करना चाहता हूँ, इससे पहले मैं एक भिखारी के रूप में महाराजा हिमाचल के पास गया था और वह मुझे अपनी कन्या का हाथ देने के लिए तैयार हो गया था। 



इसके पश्चात् मैं देवताओं के कहने के अनुसार दोबारा वहाँ गया और अपनी निन्दा स्वयं करके लौट आया, जिससे कि वह सब लोग मुझसे घृणा करने लगे हैं और अब गिरिजा का विवाह मुझसे नहीं करना चाहते। इस कारण अब तुम सब लोग जल्दी से महाराजा हिमाचल के पास जाओ और उनको तथा उनकी पत्नी मेनका को समझाओ, जिससे कि वह गिरिजा का विवाह मेरे साथ कर देवें। इससे जो वर मैंने गिरिजा को दिया, वह असत्य नहीं होने पायेगा।


भगवान की बात सुनकर सप्त ऋषि नतमस्तक होकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज को प्रणाम करके अतीव प्रसन्न होकर हिमाचल की राजधानी को चल दिये। श्री ब्रह्मा जी बोले- 'हे नारद! सप्त ऋषि महाराज हिमाचल के पास पहुँचे और कहने लगे। 'राजेश्वर! भगवान श्री सदाशिव जी ने पार्वती के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की है उस काम को लेकर हम तुम्हारे पास आये हैं। अतएव तुम अपनी पुत्री का विवाह भगवान श्री सदाशिव जी के साथ करके संसार में यश के भागी बनो।' सप्त ऋषियों की बात सुनकर महाराजा हिमाचल ने कहा- हे ऋषिगणों! आप जो कुछ कह रहे हैं, वह सब ठीक है और सत्य है और मैं आपकी बात मानने को तैयार हूँ 



परन्तु अभी थोड़ी देर पहले यहाँ एक ब्राह्मण ने आकर मुझे भगवान श्री सदाशिवजी महाराज के दोष बताकर उनके साथ गिरिजा का विवाह करने के लिये मना कर दिया है। जिससे दुखी होकर गिरिजा की माता कोप भवन में चली गई और उसने मुझसे कहा है कि मैं पार्वती को समुद्र में धकेल दूंगी, मगर उसका विवाह शंकर जी के साथ बिल्कुल नहीं करूँगी।


महाराज हिमाचल की इतनी बात सुनकर सप्त ऋषियों ने कुम्भज मुनि की पत्नी तथा अरुन्धती को मेनका के पास भेजा। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि वह मैले वस्त्र धारण किये फर्श पर अचेत पड़ी है। यह देखकर अरुन्धती ने मेनका को समझाते हुए कहा हे मेनका! उठो, इस प्रकार पड़े रहने से कोई लाभ न होगा। अरुन्धती की बात सुनकर मेनका तुरन्त उठकर बैठ गई और हाथ जोड़कर कहने लगी कि हे अरुन्धती! आप ही बताइये कि हम क्या करें।


आपने यहाँ पधार कर मुझ पर अति कृपा की है अब आप मुझे जैसी आज्ञा दें, मैं वैसा ही करने के लिये तैयार हूँ। तब तो अरुन्धती ने मेनका को समझाते हुए कहा- क्या तुम भगवान श्री सदाशिव जी की महिमा को नहीं जानती हो, जो अकारण इस प्रकार दुखी हो रही है। हिमाचल पार्वती का विवाह भगवान श्री सदाशिव जी के साथ करने को तैयार हैं। इस प्रकार उसको समझा बुझाकर अरुन्धती सप्त ऋषियों के पास आई जहाँ पर कि वह राजा हिमाचल को समझा रहे थे। सप्त ऋषियों ने कहा- राजेश्वर! भगवान सदाशिव की महिमा को न जानने के कारण तुम भ्रम में पड़ गये हो । एक ब्राह्मण के बहकावे में आकर तुम अपने निश्चय से क्यों हट रहे हो। 



राजन! तुम पार्वती का हाथ भगवान श्री सदाशिव जी के हाथ में देकर उनके श्वसुर होने का सौभाग्य प्राप्त करो। भगवान सदाशिव परम योगी हैं, उनको तो विवाह की इच्छा भी नहीं है। परन्तु उनका विवाह तारकासुर के मारने के लिए श्री पार्वती से होना परम आवश्यक है। इसी कारण पार्वती ने घोर तप द्वारा भगवान सदाशिव जी से यह वर माँगा है कि मेरा विवाह आपके साथ हो ।


महाराज हिमाचल ने कहा- हे ऋषियों! मेरी पुत्री तो राज कन्या है और मैं स्वयं एक लाख पर्वतों का राजा हूँ। लेकिन शिवजी के पास स्वर्ण, धन, वैभव आदि कुछ भी नहीं है, वह मेरे सम्बन्ध के योग्य कैसे हो सकते हैं। वह सब कुछ त्याग किये हुये हैं। वह अवधूत और अशुभ रूप हैं। विवाह, मित्रता तथा शत्रुता बराबर वालों से करनी चाहिए। यदि कन्या के लिये तथा योग्य वर न मिले तो उसके पिता को घोर नरक भोगना पड़ता है और शिवजी के यहाँ तो मुझे भोजन पदार्थ भी दिखाई नहीं देते, अतएव वहाँ जाकर मेरी कन्या क्या सुख भोगेंगी? इसलिए मैं उसका विवाह शिव के साथ नहीं करना चाहता हूँ। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इस प्रकार सुनकर अरुन्धती राजा हिमाचल से बोली- हे शैलराज! पार्वती अनादि काल से भगवान श्री सदाशिव जी की आदिशक्ति है। इसलिये तुमको चाहिये कि तुम उनका विवाह भगवान श्री सदाशिवजी महाराज से कर दो। 



ऐसा करने से तुम्हारा कुल पवित्र हो जायेगा और तुम यश के भागी बनोगे। यदि तुम ऐसा न भी करना चाहोगे तो भी पार्वती भगवान श्रीसदाशिव जी महाराज को प्राप्त करेंगी। तुम तो व्यर्थ की बुराई अपने सिर पर ले रहे हो। भगवान श्री सदाशिव जी महारजा ने जो वरदान पार्वती को दिया है, वह कभी झूठा नहीं हो सकता। भगवान श्री सदाशिव जी की इच्छानुसार इन्द्र ने समस्त पर्वतों के पंख काट डाले हैं। इसलिये तुम्हारे लिये उचित है कि तुम भवागन श्री सदाशिव जी के साथ जिद्द न करो, वरना समस्त देवता तुम्हारे शत्रु हो जायेंगे। जिस प्रकार राजा अनरण्य ने अपनी कन्या ब्राह्मण को देकर अपने कुल का नाश होने बचा लिया था। उसी प्रकार तुम भी पार्वती का विवाह भगवान श्री सदाशिव के साथ करके कुल की रक्षा करो।
















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