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श्री शिवमहापुराण उमासंहिता (आठवाँ खण्ड) Part - 3

 



      ग्यारहवाँ अध्याय

     शंकर जी का दण्डी ब्राह्मण के रूप में पार्वती के सम्मुख जाना


श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! अब आगे की कथा सुनो-सप्त ऋषियों के जाने के पश्चात् भगवान श्रीशंकर जी दण्डी ब्राह्मण का रूप धारण करके मस्तक पर त्रिपुण्ड लगा और हाथ में रुद्राक्ष की माला लेकर गौरी शिखर के उस भाग में पहुँचे जहाँ पर कि गिरिजा जी तपस्या कर रही थीं। वह सात्विक मूर्ति गिरिजा जी को ब्रह्मचारिणी के रूप में देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वह भी अपने सामने एक दण्डी ब्राह्मण को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और फल फूलों आदि से उनका यथायोग्य सत्कार किया और उनसे पूछा- हे प्रियवर! आप कौन और कहाँ से आये हैं। यह बताने की कृपा करें। उस समय भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने दीर्घ श्वाँस खींचकर गिरिजा से कहा- हम ब्रह्मचारी की रीति के अनुसार संसार के कल्याणार्थ जहाँ वहाँ घूमते रहते हैं। हे देवी! तुम तो हमें बड़ी ही धर्मवान प्रतीत होती हो। तो युवती हो फिर तुम बिना पति के इस प्रकार वन तुम में निवास करके उग्र तपस्या क्यों कर रही हो?


भगवान श्री सदाशिव जी की बात सुनकर गिरिजा जी बोली- हे ब्राह्मण देवता! मैं महाराज हिमाचल की पुत्री हूँ। अपने पूर्व जन्म में मैं ही दक्ष पुत्री सती थी, अपने पिता द्वारा किया हुआ पति का अपमान सहन न कर सकने के कारण मैंने अपने आपको भस्म कर डाला था। अब इस जन्म में मैं पार्वती हुई हूँ। इस जन्म में भी कामदेव को भस्म करके भगवान श्री सदाशिवजी महाराज मुझको त्यागकर कहीं चले गये हैं। उनके विरह ताप को सहन करती हुई मैं वर्षों से यहाँ तप कर रही हूँ। लेकिन अपने प्राणनाथ को नहीं पा सकी। अब मैं तो अपना प्रयत्न असफल देखकर अग्नि में जलकर मरने जा रही थी कि आपको आया देखकर रुक गई लेकिन अब मैं शायद न रुक सकूँ। पति बनाने का निश्चय कर चुकी हूँ। मैं जानती हूँ कि यह कार्य पर्याप्त कठिन है, तो भी उत्साह भंग नहीं हुआ है और मैं तप करने की चाहना कर रही हूँ।


इतना सुनकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज कहने लगे- हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। उससे हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। किन्तु तुमने इस समय जो मेरा आदर किया है, उसको देखते हुए मैं कहता हूँ कि तुम हिमाचल की पुत्री होकर ऐसी गलती क्यों कर रही हो? तुम उग्र तपस्या करके व्यर्थ के लिये अपना शरीर, स्वास्थ्य तथा सौन्दर्य नष्ट कर रही हो। एक राजपुत्री होकर तुम एक अवधूत की सेविका बनना चहाती हो। जो कि सब कुछ त्यागे हुए है और कुल जातिहीन है। तुम्हारे लिये शिव जैसा अशुभ पति बिल्कुल योग्य नहीं है। विष्णु कुलीन गुणवान सुन्दर और पूजनीय है और उसके मुकाबले में शिव भस्म के धारण करने वाले, विष के पीने वाले, डमरू, सारंगी आदि बजाकर भूत प्रेतों के साथ रहने वाले हैं। उन्होंने उस कामदेव को भस्म कर दिया है। जो स्त्रियों के प्रिय हैं। नारद में तो बहुत से अवगुण भरे हुए हैं। सारी सृष्टि में उत्पात करते रहना उनका काम है। दक्ष के दस हजार पुत्रों को उसने बहका दिया। हिरण्यकश्यप, चन्द्रकेतु इत्यादि बहुतों को नारद ने धोखा दिया है। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, तुम रत्न को त्याग कर काँच को मत अपनाओ। हाथी को छोड़कर बैल की सवारी करना ठीक नहीं है। गंगा जल को त्यागकर कएद्ध की इच्छा क्यों करती हो? घर को छोड़कर वन में क्यों रहना चाहती हो?


हे गिरिजे! एक बार फिर सुन लो। शिव तो बैल पर सवार होने वाले वृषध्वज हैं, भस्म जटाधारी हैं भूत पिशाचों के मध्य में रहने वाले हैं, इस प्रकार के भोलेनाथ को न जाने तुम क्यों अपना पति बनाना चाहती हो? कुछ सोचो, विचारो भी। तुम्हारी बुद्धि न जाने कहाँ चली गई है। इससे पहले दक्ष कन्या सती ने भी तो शिव को अपना पति बनाया था और उक्त कारणों से दक्ष उससे चिढ़ गये थे। इसलिये ही तो उन्होंने उसको और सती को अपने यज्ञ में नहीं बुलाया था। इससे सती जी क्रोधाग्नि में जलने लगी। उधर उसको पति ने भी त्याग दिया था, अतः वह योगाग्नि द्वारा जलकर मर गई। अब तुम ही बताओ कि शिव से विवाह करके उसको कौन से सुख की प्राप्ति हुई। तुम यह भी तो भूल रही हो कि तुम अत्यन्त सुन्दर हो । इसलिये तुमको चाहिये कि तुम इन्द्र, विष्णु आदि में से किसी रूपवान तथा गुणवान को चुन लो । उनको त्यागकर शिव को पति बनाना मेरे अनुसार तो अनुचित है। सोना, चाँदी और रत्न भला उसके पास कहाँ। वस्त्र उसके पास नहीं। सवारी के लिये उसके पास केवल एक बूढ़ा सा बैल है। वर के योग्य उसमें एक भी तो गुण नहीं, अतः तुम शिव से विवाह करने का विचार त्याग दो।



  बारहवाँ अध्याय

  शंकर जी का दण्डी ब्राह्मण के रूप में जाकर अपनी ही निन्दा करना


हे नारद! ऐसा कहकर ब्राह्मण वेषधारी भगवान श्री सदाशिव जी महाराज तनिक परे होकर बैठ गये। अब गिरिजा जी सोचने लगीं कि इस ब्राह्मण ने सदाशिव जी महाराज की निन्दा की है। अगर इसको उत्तर नहीं देती हूँ तो मुझे शिव निन्दा सुनने का आपलगेगा। अतएव यह सोचकर गिरिजा जी ने कहा- हे ब्राह्मण ! तूने भगवान श्री सदाशिव जी की निन्दा की है, यह किसी प्रकार भी उचित नहीं है। यदि तू ब्राह्मण न होता तो मैं तुझे अवश्य दण्ड देती। तुम्हारे आने से पहले सप्त ऋषि भी यहाँ आए थे। और भगवान श्री सदाशिवजी महाराज के दोष कहकर थक हारकर चले गये हैं। मैं तुझे वेद पुराण और स्मृति के अनुसार यह बाते बताती हूँ कि तू भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की माया को नहीं जानता है तभी तो उनको अशुभ स्वरूप बता रहा है। श्रीसदाशिवजी महाराज माया से परे हैं, उनका वेश परिवार आदि कुछ भी नहीं है। वह भक्ति के अधीन होकर सबको धारण करते हैं। उनका मध्य, अन्य तेज तथा प्रताप को कोई नहीं जान सकता है और न भविष्य में जानेगा ही। वह परब्रह्म तथा अमिट हैं। उनके द्वारा ही प्रकृति उत्तम शरीर को प्राप्त किया है, क्या वह पुरुष से प्रेम करेगी?


'हे प्रियवर! भगवान श्री सदाशिव जी महाराज आजाद हैं। उनका मार्ग तीनों गुणों से पृथक है। उनकी सेवा करके मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है। जो लोग भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की निन्दा करते हैं, उन्हें सुख की स्वप्न में भी आशा न करनी चाहिये। मुझे तुम्हारे स्वागत से तनिक भी सुख नहीं मिला। तुमने भगवान सदाशिवजी महाराज की निन्दा करके अपने लिये नरक का दरवाजा खोल लिया है। तुमको भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की निन्दा न करनी चाहिये थी। क्योंकि मैं इस समय तुम्हारा पूजन कर चुकी हूँ अतएव तुम्हारे इस अपराध को क्षमा कर देती हूँ। परन्तु इससे आगे तुम भूलकर भी उनकी निन्दा न करना। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं उनको अवश्य ही प्राप्त कर लूँगी और वह मेरे मनोरथ को सिद्ध करेंगे।


जब भगवान सदाशिव जी महाराज ने दोबारा कुछ कहना चाहा तो उस समय गिरिजा ने अपनी सखी से कहा- यह नीच ब्राह्मण बार-बार भगवान श्री सदाशिव जी की निन्दा करके मुझे कष्ट पहुँचा है, अतः इस स्थान से हट करके कहीं पर चले जाना चाहिए, क्योंकि भगवान श्री सदाशिव जी की निन्दा सुनने और शिव निन्दक को देखने से घोर पाप लगता है। इस ब्राह्मण को देखने से हम अपवित्र हो जायेंगी और हमारे सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे। शास्त्रों में लिखा है कि शिव की निन्दा करने वाले की जिह्वा काट लेनी चाहिए, वरना अपने कान बन्द करके वहाँ से चले जाना चाहिये इसलिये शीघ्रतापूर्वक यहाँ से उठो, क्योंकि इस ब्राह्मण के पास बैठने से हमें एकपल एक वर्ष के सामन गुजरता है। यदि हमारा निश्चय विश्वास तथा निर्णय सत्य है तो शंकर जी हमारे मनोरथ को अवश्य पूर्ण करेंगे। हमें यदि कोई धोखा देगा तो इससे भला क्या होगा? तपस्या करने में इस प्रकार सैकड़ों विघ्न आया करते हैं 


किन्तु जो इससे घबरा जाते हैं वह सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। भगवान सदाशिव जी महाराज अपने भक्तों का पालन करने वाले तथा सुख देने वाले हैं, वह पहले तो अपने भक्तों की परीक्षा लेते हैं, बाद में प्रसन्न होकर उनका मनोरथ पूर्ण करते हैं। हे नारद! यह कहकर श्री पार्वती वहाँ से हटकर थोड़ी दूर चली गई। पार्वती और उनकी सखियों के उस स्थान पर से हट जाने के पश्चात् श्री सदाशिवजी महाराज ने अपना शरीर पूर्ववत बना लिया। मस्तक पर जटा एवं गंगा की धारा, भाल पर चन्द्रमा और त्रिपुण्ड तथा कानों में • कुण्डल दमकने लगे। तीनों नेत्रों में सूर्य चन्द्रमा वअग्निदेव की ज्योति तथा कण्ठ में विष की श्यामलता सुशोभित थी। इस प्रकार उनका एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर था। भगवान श्रीसदाशिव के जिस रूप का ध्यान गिरिजाजी कर रही थीं, वह स्वरूप धारण करके भगवान ने उनके पास जाकर उनको दर्शन दिये।


श्री शंकर जी बोले- हे पार्वती! तुम्हारे रूप, गुण, कर्म और प्रभाव अपार है। भगवान श्री विष्णु की पत्नी लक्ष्मी, ब्रह्मा की पत्नी ब्राह्माणी इत्यादि तुम्हारे ही अंश से उत्पन्न हुई हैं। तुमने हमें सगुण रूप धारण करते हुए जानकर महाराज हिमाचल के यहाँ पार्वती रूप से अवतार लिया है। हम तुम कभी अलग नहीं हो सकते, संसार को सुख देने के लिए हम तुम अनेक प्रकार के चरित्रों को किया करते हैं। जिस प्रकार शब्द तथा अर्थ में कोई भेद नहीं होता, उसी प्रकार हम तुम दो शरीर धारण किये हुये भी वास्तव में एक ही हैं। यह जानकर तुम अपने क्रोध को शान्त करो। हमारे चरित्रों को वेद भी नहीं जानते। सत्य तो यह है कि हम स्वयं भी तुम्हारे सेवक हैं। इस समय हम तुम से अत्यधिक प्रसन्न हैं। जो तुम्हारी इच्छा हो सो वर माँग लो। श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! इस प्रकार कह कर भगवान सदाशिव जी चुप हो गये।


 तेरहवाँ अध्याय

 शंकर जी का अपने वास्तविक रूप में आना 


भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के वचन सुन कर गिरिजा जी अति प्रसन्न हुई। उन्होंने भगवान के सुन्दर रूप को देखते हुए कहा- हे प्रभु! मैं सारे संसार के बन्धन को त्याग कर आपकी शरण में आई हूँ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप मुझे यह वरदान दीजिए कि आप मेरे पति बनें। हे प्राणनाथ! आप मेरे अपराधों को क्षमा कीजिए और संसार की प्रथा के अनुसार मेरे पिता के पास जाकर आप आनन्ददायक चरित्र दिखाइये। यह सुनकर भगवान श्री सदाशिवजी बोले-हे देवी! जैसा तुम उचित समझो मैं वैसा ही मंगलमय कार्य करने को तैयार हूँ। गिरिजा जी बोली- आप मेरे पिता के पास जाकर कहें कि मुझे अपनी कन्या का सौभाग्य दो और कन्यादान करके पुण्य के भागी बनो तथा अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ कर दीजिए।


श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! पार्वती जी भगवान श्री सदाशिव जी महाराज से इस प्रकार प्रार्थना करके चुप हो गई। इस पर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज 'तथास्तु' कहकर वहाँ से चले गये। हम सब देवताओं ने उस समय भगवान श्री सदाशिवजी महाराज और पार्वती पर पुष्प वर्षा की। मैं भगवान सदाशिव जी महाराज बोले- देवी! तू क्या कह रही है। अग्नि तुझको जलाने की शक्ति नहीं रखती। तुम मुझसे अपना मनोरथ कहो कि तुम चाहती क्या हो? गिरिजा ने कहा- हे प्रियवर! मैं कर्म और वाणी द्वारा भगवान सदाशिव जी महाराज को अपना भगवान श्री विष्णु तथा अन्य सब देवता जाकर पार्वती जी के चरणों में गिर पड़े और नतमस्तक हो श्रद्धा तथा प्रेम सहित उनकी स्तुति की तब भवानी ने प्रसन्न होकर सब देवताओं से कहा- भगवान श्री सदाशिवजी महाराज मुझे मनवाँछित वरदान प्रदान कर चुके हैं। इसलिए अब तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करो और आनन्दपूर्वक अपने लोकों में रहो। हे नारद! इसके पश्चात् हम पार्वती को प्रणाम करके अपने धाम को लौट आये।


उधर भगवान श्री सदाशिव जी भी कैलाश पर्वत पर पहुँचे और वहाँ जाकर अपने मुख्य-मुख्य गणों नन्दी आदि को यह पूर्ण वृतान्त सुनाया, जिसे सुनकर वह सब अति प्रसन्न हुए। पार्वती जी भी अपने माता-पिता के घर लौट आई, उनके साथ उनकी सभी सखियाँ थीं। पार्वती जी के शुभ आगमन के सम्बन्ध में सुनकर महाराज हिमाचल अपने पुरोहित, सम्बंधियों, मित्रों आदि को साथ लेकर नगर के बाहर पार्वती के दर्शन के लिये आये। उसके साथ ही साथ सब नगरवासी भी वहाँ आ गये। सभी जय-जयकार कर रहे थे। राजमार्ग पर स्त्रियाँ मंगल कलश उठाये हुए नृत्य कर रहीं थीं और सौभाग्यवती नारियाँ थालों में घृत के दीपक जलाये हुए मंगलगीत गा रही थीं। ब्राह्मण उच्च स्वर से वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे। शंख आदि अनेकों बाजे बज रहे थे। माता-पिता ने पार्वती को कण्ठ से लगाकर आशीर्वाद दिया। फिर वह अपने माता-पिता के साथ अपने घर आई और महाराज हिमाचल गंगा स्नान के लिए चले गये।


हे नारद अब आगे कथा सुनो-'जब भगवान सदाशिव जी महाराज गिरिजा जी को वरदान देकर कैलाश पर गये सो उन्होंने एक संगीताचार्य का वेष धारण कर लिया। उन्होंने अपनी बाईं ओर सारंगी और दाईं ओर डमरू लटका लिया, सारे शरीर पर भस्म रमा ली और लाल रंग के वस्त्र पहिन लिये। उस समय वह एक बूढ़े का वेष धारण किये हुए थे, अत: थर-थर काँप रहे थे। इस प्रकार का विचित्र वेष बनाकर वह हिमाचल प्रदेश की राजधानी में पहुँचे। वहाँ वह एक नट की भांति नाच-नाच कर सारंगी बजाकर जनता को मोहित करने लगे। भगवान सदाशिव जी महाराज के उत्तम स्वर ताल के साथ डमरू बजाने तथा सारंगी बजाने के ढंग को देखकर लोग अतीव प्रसन्न हुए। मेनका तो मारे प्रसन्नता के बेहोश हो गई और गिरिजा जी भी उनके त्रिशूल आदि चिन्ह देखकर मोहित हो गई। उस समय भगवान श्री सदाशिव जी महाराज चुपचाप पृथ्वी पर बैठ गये, तब मेनका होश में आकर स्वर्ण थाल में मोती आदि भरकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज को देने लगीं। 


यह देखकर भगवान ने मेनका से गिरिजा को माँगा और फिर नाचने के लिये खड़े हो गए। भगवान सदाशिव जी महाराज की बात सुनकर मेनका को बड़ा क्रोध आया। यह मूर्ख योगी हमारी कन्या को माँग रहा है। अतएव इसे बाहर निकाल दिया जावे। यह बातें हो रही थीं कि महाराज हिमाचल भी गंगा स्नान करके वापिस आ गए। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की यह बात सुनकर उनको क्रोध आया और उन्होंने अपने सेवकों को आज्ञा दी की इस नट को पकड़ कर बाहर निकाल दो।


महाराज हिमाचल की आज्ञा से उनके दो सेवक श्री सदाशिव जी महाराज को पकड़ने के लिये आगे बढ़े लेकिन श्री सदाशिव जी महाराज के तेज के कारण वह उन तक न पहुँच सके। सेवकों की यह दशा देखकर महाराज हिमाचल अपने मन में विचार करने लगे और जब उन्होंने आँख उठाकर योगी की तरफ देखा तो उनको श्री सदाशिव जी महाराज विष्णु रूप मालूम हुए, वह चतुर्भुज रूप धारण किए शीश पर मुकुट, कानों में कुण्डल और पीत वस्त्र धारण किए हुये अतीव सुन्दर प्रतीत हो रहे थे। क्षण भर के पश्चात् ही हिमाचल को भगवान श्री सदाशिव जी का वह स्वरूप दो भुजाओं वाला दिखाई देने लगा। उस समय वह अपने हाथों में मुरली धारण किए हुए थे। उनका स्वरूप बिलकुल ग्वालों जैसा लग रह था। वह चन्द्रमा के समान सुन्दर युवक प्रतीत हो रहे थे। जिन को देखकर मन में बड़ी प्रसन्नता होती थी। 


एक ही क्षण के पश्चात् उन लोगों ने उनको मेरे (श्री ब्रह्माजी ) रूप में वेद पाठ करते हुए देखा। उनके पश्चात् सूर्य, चन्द्र, गणेश तथा प्रसन्न मुख वाली भगवती दुर्गा के रूप में देखा। जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, वाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खंग, डाल, शंख, घन्टा, मधुपात्र, शूल, पास और चक्र धारण किये हुये थी। सबसे आखिर में भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने हिमाचल को अपना यथार्थ स्वरूप दिखाया। उस समय उनके मस्तक पर जटायें सुशोभित थी। गंगा की धारा बह रही थी। वह चन्द्रमा के समान सुन्दर मूरत और शुक की भांति नाक, सुन्दर होंठ, कण्ठ में श्यामलता लिए हुए विष की तीन रेखायें, लालिमा लिये हुये नेत्र, उत्तम कटि, सुन्दर पेट, कमल के समान नितम्ब, अनुपम नाखून और अंग-अंग से करोड़ों कामदेव की शोभा टपक रही थी। उस अद्भुत तथा विचित्र स्वरूप को देखकर महाराज हिमाचल समझ गये कि यह योगी भगवान श्री सदाशिवजी ही हैं।


श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! जिस समय भगवान श्री सदाशिव जी को पता चला कि हिमाचल ने हमें पहिचान लिया है। उसी समय हिमाचल ने शिव को प्रणाम करके उनकी इच्छा स्वीकार कर ली और उसी समय भगवान श्री सदाशिव जी अन्तर्ध्यान हो गये। इसके पश्चात् सब देवताओं ने अपने मन में विचार किया कि भगवान श्री सदाशिवजी को महाराज हिमाचल अपनी कन्यादान करके दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त कर लेगा और पृथ्वी को भी त्याग देगा और उसके पृथ्वी को त्याग देने से पृथ्वी निश्चय ही रत्नों से खाली हो जायेगी। महाराज हिमाचल तो दिव्य रूप होकर शिवलोक में पहुँच जायेगा, यह बात अच्छी नहीं।


इस तरह से विचार करके सभी देवता, गुरु वृहस्पति जी के पास गये और उन्हें महाराजा हिमाचल के पास जाकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की निन्दा के लिये उकसाने लगे। देवताओं ने अपने गुरु श्री बृहस्पति जी महाराज से कहा- हे गुरुदेव! इस समय मेनका और हिमाचल ने भगवान सदाशिव को सबसे बड़ा समझ लिया है। इसलिये आप जाकर कोई ऐसा उपाय करो कि जिससे गिरिजा और भगवान श्री सदाशिव जी महाराज का विवाह न होने पावे।


'हे नारद! देवताओं की बात सुनकर गुरु ने क्रोध में भरकर कहा- 'हे देवताओं! तुम बड़े स्वार्थी हो, तुमको इसका परिणाम ज्ञात नहीं है। तुम हमसे ऐसा काम क्यों करवा रहे हो? जिससे कि हमें नरक की प्राप्ति हो। जो मनुष्य विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गुरु, पतिव्रता स्त्री, सेवक, पति, गऊ, तुलसी, पुराण, गंगा, गायत्री, वेद, देवता और दान की निन्दा करता है, वह बहुत कल्पों तक नरक भोगता है। इसलिये मैं हिमाचल के पास जाकर गिरिजा के विवाह को मना नहीं कर सकता हूँ। तुम ब्रह्मा के पास जाकर उनसे सहायता माँगो। वह सप्त ऋषि हिमाचल को समझा देंगे। भगवान सदाशिव जी महाराज के अतिरिक्त पार्वती को और कोई प्राप्त नहीं कर सकता।














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