बारहवाँ अध्याय
रुद्रदेव द्वारा यज्ञदेव का मस्तक काटना तथा विजयी होकर कैलाश पर लौटना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब विष्णुजी अन्तर्ध्यान हो गए तो यज्ञ देव बड़े दुखी होकर वहाँ मृग का रूप धारण करके दौड़े लेकिन महापराक्रमी वीरभद्र ने उन को पकड़ लिया और उनका सिर काटकर कुण्ड में डाल दिया। यज्ञ देव का मस्तक काटने के पश्चात उन्होंने प्रजापति, धर्म, कश्यप, अरिष्टानेमि आदि ऋषियों को पकड़ कर उनको लातों से खूब मारा। शिवगणों में से किसी ने मण्डप को तोड़ा, किसी ने कुण्ड की अग्नि को बुझा दिया। किसी ने हाथ तोड़ डाला, किसी ने पैर तोड़ डाला, यहाँ के समस्त पात्रों को तोड़ कर नदी में बहा दिया। वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को पकड़ लिया, नन्दी ने सूर्य को बाँध लिया, मुनिमान भृगु को पकड़ा, चण्डी ने पूशा को बाँध लिया, इसी तरह शिवगणों ने वहाँ जितने देवता थे, सभी को बांध लिया। यद्यपि देवता छिप गये थे लेकिन शिवगणों ने सभी को ढूँढ लिया। वहाँ पर कोई देवता ऋषि या मुनि ऐसा न था जो कि घायल न हुआ हो। मुनि ने महर्षि भृगु की आँखे भी निकाल लीं क्योंकि वह दक्ष के मन्त्री थे।
चण्डी ने पूषा दांत तोड़ डाले क्योंकि उसने ने श्री सदाशिवजी की हँसी उड़ाई थी फिर क्रोध में भरे हुए श्री सदाशिव के गणों ने दक्ष की यज्ञशाला में मल-मूत्र की वर्षा करके उसे भ्रष्ट कर दिया और जो दक्ष वेदी में छिपा हुआ था, उसको वीरभद्र ने वहाँ से निकाल कर पृथ्वी पर पटक दिया। लेकिन जब पर्याप्त चेष्टा व प्रहार करने पर भी वह उसके मस्तक को काट न सका, तब उसने श्री सदाशिवजी महाराज का ध्यान किया और उसके मस्तक को तोड़ मरोड़कर टुकड़े-टुकड़े करके हवन कुण्ड में डाल दिया। बहुत से ऋषि तो मारे भय के ही समाप्त हो गये। कश्यप की पत्नी की नाक काट डाली, इस प्रकार उन लोगों को अपनी करनी का फल मिल गया जो कि सदाशिवजी महाराज के भाग को मिटाकर यज्ञ में भाग लेना चाहते थे। इसके पश्चात अपना कार्य समाप्त करके वीरभद्र श्रीसदाशिवजी महाराज के पास कैलाश पर पहुँचा और उन्होंने उसको अपने गणों का नायक बना दिया।
तेरहवाँ अध्याय
ब्रह्मा जी द्वारा महर्षि दधीचि व राजा ध्रुव का वर्णन
इतनी कथा सुनकर देवर्षि नारद ने ब्रह्मा जी से पूछा-"प्रभु! भगवान श्री सदाशिव के बिना आप तथा श्री विष्णु दक्ष के यज्ञ में क्यों गये थे। यदि गये भी थे तो शिवगणों के साथ युद्ध क्यों किया? और श्री विष्णु दक्ष के यज्ञ की रक्षा क्यों न कर सके?" श्री ब्रह्माजी ने उत्तर दिया-प्राचीन काल में मेरा एक पुत्र था, उसका नाम क्षुव था, क्षुव राजा था और उसकी दधिचि के साथ घनिष्ट मित्रता थी। क्षुव बड़ाई पाकर अपने आपको बहुत बड़ा समझने लग गया था और उसको अहंकार हो गया था। एक बार उसका महर्षि दधीचि के साथ विवाद छिड़ गया। महर्षि दधीचि ने कहा-'तीन वर्णों में ब्राह्मण बड़े होते हैं। जबकि क्षुव कहता था कि सब से बड़ा राजा होता है।
उसका सब लोग सम्मान व पूजन करते हैं। इसलिए तुमको भी मेरा सम्मान और पूजन करना चाहिए। यह सुनकर महर्षि दधीचि ने बाँये हाथ से एक जोरदार थप्पड़ क्षुव के मुँह पर मारा और ध्रुव ने क्रोध में भरकर वज्र के प्रहार से महर्षि दधीचि को मार डाला लेकिन मरते-मरते महर्षि ने अपने गुरु शुक्राचार्य का स्मरण किया, शुक्राचार्य तुरन्त पहुँच गए और साथ ही महर्षि दधीचि के शरीर के टुकड़ों को एक जगह करके पुनः जीवित कर दिया। जीवित होने के पश्चात महर्षि दधीचि ने श्री शुक्राचार्य जी से पूछा- प्रभु! मुझको कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे कि मैं अमर पद को प्राप्त कर सकूँ?,
श्री शुक्राचार्य महर्षि दधीचि का मर्म समझ गये कि यह राजा क्षुव से अपना बदला चुकाने के लिये ही अमरत्व को प्राप्त करना चाहता है। उन्होंने कहा- देखो महामृत्युञ्जय मन्त्र द्वारा ही तुम अमरपद को प्राप्त कर सकते हो, इससे तुम सभी कार्य सिद्ध कर सकते हो। वह कौन सा काम है कि शिवजी की कृपा से नहीं हो सकता। अमरपद श्री सदाशिव ही प्रसन्न होने पर प्रदान कर सकते हैं। वह सारे संसार के स्वामी हैं यह संजीवनी विद्या भी उन्हीं की दी हुई है। उन्हीं की कृपा से रावण आदि अभय व अमर हुए हैं। उनकी कृपा से ही महर्षि दुर्वासा शक्तिशाली तथा सबके पूज्य प्रसिद्ध हैं। उन्हीं की कृपा से महर्षि विश्वामित्र ब्रह्मा ऋषि बने हैं।
ब्रह्माजी भी उन्हीं की कृपा से सृष्टि की रचना करते हैं। महर्षि मार्कण्डेय उन्हीं की कृपा से दीर्घ आयु पा चुके हैं। सदाशिवजी की कृपा से ही इन्द्र शत्रु रहित और अभय हैं। भगवती शक्ति में भी शक्ति उन्हीं की कृपा से है। श्रीरामचन्द्रजी महाराज, श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज और श्री परशुराम जी ने भी उन्हीं की कृपा से शक्ति प्राप्त की है। महर्षि दधीचि श्री शक्राचार्य के ऐसे वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे दीक्षा ग्रहण करके उन्होंने वन में जाकर तप आरम्भ कर दिया। उन्होंने महामृत्युञ्जय का विधिपूर्वक भगवान शंकर जी के लिये बड़ा तप किया, उनके तप से प्रसन्न होकर सदाशिवजी बड़े प्रसन्न हुए और उनको साक्षात् दर्शन देकर, उनसे वर मांगने के लिये कहा। श्री शंकरजी के दर्शन करके महर्षि अत्यन्त प्रसन्न हुए और उनकी स्तुति करके बोले-प्रभु! आप मुझे तीन वर दीजिये-एक तो यह है कि मेरे शरीर की अस्थियाँ वज्र के समान हो जावें। दूसरा यह कि मैं सबसे अबध्य होऊँ। तीसरा यह कि मैं सर्वथा दीन होऊँ।
हे शंकर जी! इन तीनों वरों के साथ-साथ मुझे आप सदा सदैव के लिये अपने चरणों की भक्ति प्रदान कीजिये। । भगवान सदाशिव ने कहा-'तथास्तु' और फिर इसके पश्चात वह अन्तर्ध्यान हो गये। ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब महर्षि दधीचि वहाँ से राजा ध्रुव को मारने गये और उसके सिर पर लात मारकर बोले-यह कौन पड़ा है? इससे क्षुव ने क्रोध में भरकर महर्षि दधीचि की छाती में वज्र मार दिया। मगर भगवान सदाशिवजी के वरदान के कारण महर्षि दधीचि को रत्ती भर भी चोट न लगी। यह देख कर मेरा पुत्र (ब्रह्मा का पुत्र) राजा क्षुव आश्चर्य में पड गया और सोचा कि यह सब श्री शंकरजी की कृपा है, अतएव वह वन में जाकर विष्णु जी की तपस्या करने लगा। उसके उग्र तप से विष्णुजी ने उस पर प्रसन्न होकर साक्षात दर्शन दिये और कहा-'वर माँगो।'
राजा क्षुव ने कहा- महर्षि दधीचि जो पहले मेरा, मित्र था, शत्रु बन गया है। सदाशिवजी की कृपा से उसका शरीर वज्र के समान हो गया है। वह मृत्यु से अभय हो गया है। भगवान! उसने मेरा अपमान और अनादर किया है और कहा है कि मैं तीनों लोकों में सबसे अधिक बलवान हूँ। प्रभु! उस पर विजय पाने की शक्ति प्रदान कीजिये। उसकी बात सुनकर विष्णु जी बहुत दुखी हो गये। वह सोचने लगे कि यदि मैं अपने भक्त को वरदान नहीं देता तो मेरी मर्यादा नष्ट हो जाती है, यदि वरदान देता हूँ तो वह झूठा होता है क्योंकि एक तो ब्राह्माणों को यों ही नहीं जीता जा सकता, दूसरे महर्षि दधीचि पर सदाशिवजी की कृपा है, अतः अब मुझे दोनों पक्षों की रक्षा करनी चाहिए। यह सोचकर श्री विष्णु जी ने राजा से कहा- राजेन्द्र! शिव भक्त महर्षि दधीचि अभय है। अतः उसे कोई भी कष्ट नहीं दे सकता। फिर भी मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए उसे शाप दिलवाऊँगा जिससे कि वह अपनी जिद छोड़ देगा।
चौदहवाँ अध्याय
विष्णु का ब्राह्मण बनकर दधीचि के पास जाना तथा उनकी वन्दना कर मनचाहा वर मांगना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इसके पश्चात फिर एक दिन भगवान विष्णु ब्राह्मण का रूप धारण करके महर्षि दधीचि के पास गये और उनकी वन्दना कर कहने लगे-प्रभु! मैं आपसे एक वर मांगने के लिए आया हूँ। आप मुझे मेरा मनचाहा वर दीजिए। महर्षि दधीचि ने भगवान श्रीसदाशिव का ध्यान किया और सब कुछ जान गए, उन्होंने कहा मैं सब कुछ जान गया हूँ आप भगवान श्रीविष्णु हैं। आप मेरे पास ब्राह्मण का वेष धारण करके आए हैं। मैं सदाशिव की कृपा से तीनों काल का हाल जान सकता हूँ। क्षुव ने आप का पूजन करके मुझे जीत लेने का वर माँगा है। अतएव आपको चाहिये कि अपने प्रत्यक्ष रूप को प्रकट करके मुझे दर्शन दें। हालांकि भगवान शंकर जी की कृपा से मैं अभय हूँ, मुझे किसी का भय नहीं है। फिर भी मैं आपका आदर करता हूँ।
महर्षि दधीचि की बात सुनकर श्रीविष्णुजी अपने यथार्थ रूप में प्रकट होकर मुस्कराए और कहा- हे ब्राह्मण! यद्यपि आप भगवान शंकर जी की कृपा से अभय हैं, तो भी मैं आपको दण्डवत प्रणाम करता हूँ कि आप क्षुव की इच्छा पूरी करके मेरी मर्यादा की रक्षा कीजिये और राजा क्षुव से इतना कह दीजिये, मैं तुम से डरता हूँ। भगवान श्री विष्णु की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने कहा-प्रभु! छल से काम नहीं चल सकता। जो काम अनुचित हो कभी नहीं हो सकता। आप जाइये! इस पर भगवान श्रीविष्णु को क्रोध आ गया। मूर्ख तूने अहंकार के वश में होकर मेरी बात नहीं मानी। क्या तू नहीं जानता कि रावणादि महाशक्तिशाली शिव भक्त भी मेरी आज्ञा न मानने पर नाश को प्राप्त हो गए। मैं अपने चक्र से तेरी गर्दन काट तेरे गर्व को सर्वदा के लिए मिटा दूँगा।
भगवान श्रीविष्णु की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने निडर होकर कहा-रहने दीजिए महाराज। अहंकार न कीजिये। यदि आपने आज तक कोई शिवभक्त मारा है तो केवल भगवान शंकरजी की कृपा और इच्छा ही से मारा है। रावण को मारने में भी आप तभी सफल हुये थे, जब आपने भगवान शिवजी से बाण प्राप्त कर लिया था। तारक कण्ठ पर चक्र नहीं चल सकता। यदि आपको मेरी बात का विश्वास न हो तो आप परीक्षा करके देख सकते हैं। महर्षि दधीचि के अहंकारपूर्ण वाक्य सुनकर भगवान श्रीविष्णु अपने क्रोध को न रोक सके और सुदर्शन चक्र को उन पर चला दिया। लेकिन चक्र चला ही नहीं। इस पर महर्षि दधीचि ने मुस्कराते हुए कहा-यदि आप पर कुछ है तो क्रमशः से ब्रह्मास्त्र आदि अस्त्रों तथा बाण आदि का प्रयोग कीजिये।
महर्षि दधीचि की बात सुनकर भगवान विष्णु ने भीषण गर्जना की। जिसको सुनकर उनकी सारी सेना वहाँ आ गई। उनको साथ लेकर उन्होंने महर्षि दधीचि पर आक्रमण कर दिया। परन्तु यह आक्रमण धर्म के विरुद्ध था क्योंकि दधीचि अकेले थे। फिर भी वह निश्चिन्त होकर बैठे रहे। विष्णु जी तथा उनकी सेना ने उन पर अपने सभी अस्त्र चलाये। लेकिन उनसे कुछ भी न हो सका, अब महर्षि दधीचि ने मुट्ठी भर कुश उनकी और फेंक दिया, वह कुश असंख्य त्रिशूलों में परिवर्तित होकर देव सेना को प्रलयाग्नि के समान अग्नि ज्वालाओं से आयुधधारी देवताओं को संहार करने लगे और देवता भाग-भागकर अपने प्राण बचाने लगे।
देवताओं को भागते देखकर भगवान श्री विष्णु ने अपनी माया से अपने बहुत से रूप प्रकट किए। मगर महर्षि दधीचि ने भगवान श्रीसदाशिव को स्मरण करके उन सबको भस्म कर दिया। तब श्रीविष्णु ने अपना विराट रूप दिखाया लेकिन परम शैव दधीचि पर इसका भी कोई प्रभाव न पड़ा, वह मुस्काराते हुये बोले- आप माया से क्यों काम लेते हैं, यह तो केवल मन की गति है, अतः तनिक मेरी और देखिये।
इतना कह कर महर्षि दधीचि ने भगवान शंकरजी का ध्यान करके अपने शरीर से असंख्य जीव उत्पन्न किये। देवता तो भाग ही रहे लेकिन भगवान श्रीविष्णु फिर भी युद्ध से परामुख न हुये और युद्ध करते रहे। अब मैं (ब्रह्माजी) राजा क्षुव को साथ लेकर दधीचि शिव -युद्ध देखने के लिए गया। मैंने निश्चेष्ट भगवान विष्णु तथा देवताओं को युद्ध करने से रोका और समझाया- आप वेद के विरुद्ध कार्य क्यों कर रहे हैं? आप सदाशिवजी महाराज की अपेक्षा कर रहे हैं। यदि वेद और शास्त्र एकदम झूठे हो जायें, तभी आप जीत सकते हैं, वरना नहीं।
मेरी बात सुनकर भगवान विष्णु शान्त हो गये और दधीचि मुनि के पास जाकर उनकी स्तुति करने लगे। राजा क्षुव ने भी महर्षि दधीचि के पास जाकर बड़ी दीनता से उन्हें प्रणाम किया और बड़ी प्रार्थना की। विष्णु ने महर्षि दधीचि से कहा-ऋषिराज! यह क्षुव आपका मित्र आपकी शरण में आया है, आप इसके अपराधों को माफ कर दीजिये, यह अज्ञानी है, आप अनन्य शिवभक्त हैं। भगवान विष्णु की बात सुनकर महर्षि प्रसन्न तो हो गये और उन पर कृपा भी कर दी परन्तु विष्णु आदि पर उनका कोप कम न हुआ, उन्होंने विष्णु आदि देवताओं से कहा तुम लोगों पर भगवान सदाशिवजी महाराज का कोप होगा और तुम्हारे कर्मों का उचित दण्ड तुम्हें मिलेगा। इसके पश्चात उन्होंने राजा क्षुव से कहा-'क्यों राजन! अब तो तुम्हें मालूम हो गया है ना कि संसार में ब्राह्मण सबसे ऊंचे हैं। जो राजाओं औ देवताओं के पूज्यनीय हैं।"
महर्षि दधीचि को प्रणाम करके राजा क्षुव अपनी राजधानी को चला गया। विष्णु आदि देवता भी अपने लोक को चले गये। तब उस स्थान का नाम थानेश्वर पड़ा, जहाँ पर कि सदाशिवजी महाराज के दर्शन करने से सहज ही मुक्ति प्राप्त होती है।
पन्द्रहवाँ अध्याय
यज्ञ में घायल देवताओं द्वारा स्तुति करने पर विष्णु का देवताओं सहित शिवजी के पास जाना
महर्षि सूत जी बोले- 'हे ऋषिगणों! ब्रह्मा जी से कथा सुनकर नारद जी ने कहा-हे पितामह! अब तक की कथा तो आपसे हमने सुन ली अब इसके पश्चात जो कुछ हुआ हमें बतलाइये। यानी जब वीरभद्र दक्ष प्रजापति का यज्ञ विध्वंस करके कैलाश पर्वत पर गया तो फिर क्या हुआ? ब्रह्मा जी बोले-'हे नारद! जब शिवगण दक्ष प्रजापति के यज्ञ को विध्वंस करके कैलाश को चले गये, तब घायल देवता व ऋषि मण्डल मेरे पास आया और रोते हुये मुझसे प्रार्थना करने लगे, इस पर मैं उन सबको साथ लेकर भगवान श्री विष्णु की शरण में गया, देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले- 'हे देवगणों! सदाशिवजी महाराज अन्तर्यामी तथा सबके स्वामी हैं। उनकी उपेक्षा करने का भला साहस किस में है? जैसा तुम लोगों ने किया वैसा फल पाया। अब रक्षा का केवल यही उपाय है कि सब लोग सदा शिवजी महाराज की शरण में जायें। दुर्भाग्य से हम भी उसी मण्डली में सम्मिलित थे। जिसमें कि सदाशिव जी महाराज का अपमान किया गया था। अब इसके अतिरक्ति और कोई विधि नहीं है। कि हम लोग सदा शिवजी महाराज की शरण में जाकर उनकी स्तुति करें, वह सबका कल्याण करने वाले और दयालु हैं, अवश्य ही प्रसन्न होकर हम सबकी रक्षा करेंगे। यदि दक्ष के वध में वह इस प्रकार क्रोध करके सबको दण्ड न देते तो अवश्य ही वेद मार्ग नष्ट हो जाता और संसार नास्तिक हो जाता। इस प्रकार महर्षि दधीचि का वचन सत्य हुआ।
हे नारद! इस प्रकार समझाकर देव मण्डल तथा मुझको साथ लेकर श्रीविष्णु महाराज कैलाश पर्वत की और चले। वहाँ की शोभा का क्या कहना। चहुँ ओर पुष्प वाटिकायें लगी हुई थी। जहाँ पर विविध पक्षी भाँति-भाँति की बोलियाँ बोल रहे थे। कुछ आगे बढ़ने पर हमें कुबेर की अल्कापुरी मिली। वट वृक्ष के नीचे श्री सदाशिवजी महाराज विराजमान थे। उनके पास दिव्य योगी बैठे थे। उनका वेश बड़ा पवित्र और मनोहर था। मस्तक पर चन्द्र और त्रिपुण्ड और जटा में गंगा ध कारण किये हुये थे। समस्त शरीर पर साँपों के आभूषण थे। भगवान श्री शिवजी के ऐसे दिव्य शरीर को देखकर समस्त देवताओं ने उनकी अनेक विभूतियों और नामों से स्तुति की।
सोलहवाँ अध्याय
समस्त देवताओं द्वारा भगवान शंकर की स्तुति करना तथा दक्ष के यज्ञ में हुई गलती की क्षमा मांगना
श्री ब्रह्माजी बोले-हे नारद! समस्त देवताओं ने भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज को बार-बार नमस्कार करते हुये कहा-हे दीनबन्धु! हे महेश्वर! हे परमेश्वर आपकी महिमा अपरम्पार है। आप शरणागत की रक्षा करने वाले, दीन दयाल, परब्रह्म, निर्गुन और अलख निरंजन हैं। आपकी लीला कौन जान सकता है? आपकी इच्छानुसार ही सब कुछ होता है। दक्ष तथा उसके साथियों की बातों में आकर हम लोगों ने बहुत बुरा किया है। आपके भक्तों ने दक्ष को समझाने की पर्याप्त चेष्टा की, लेकिन उसने किसी की एक न सुनी। उसने भगवती का भी अपमान किया। जिसका फल दक्ष के साथ हम सबको भी भोगना पड़ा। परन्तु इसमें हम लोगों का भी दोष है। अतएव अब कृपा करके हम सबका अपराध क्षमा करें। आपने जो कुछ किया है, सब ठीक किया है। अगर आप ऐसा न करते तो धर्म का नाश हो जाता है। ऐसा करने से दक्ष का अहंकार नष्ट हो गया है।
प्रभु आप जैसा शक्तिशाली दूसरा भला और कौन है? ब्रह्मा और विष्णु के रूप में आपकी ही शक्ति काम करती है। हे महेश्वर! आपकी कृपा के बिना हम सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं। अतएव आप हम सबकी रक्षा कीजिए। हमें अनेक विपत्तियों से बचाइये। हे दयासागर! अब आप प्रसन्न होकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें। सब देवताओं के नेत्र पूर्ववत हो जायें यजमान जीवित हो। महर्षि भृगु की दाढ़ी पहले के समान हो जावे। आपकी कृपा से यज्ञ भूमि में घायल सभी देवताओं को पुनः आरोग्यता प्राप्त होवे। हम लोग इस अवशिष्ट यज्ञ कर्म में आपका भाग देंगे। इसलिये हमें यज्ञ को फिर से करना है लेकिन यह सब काम तभी हो सकता है जबकि आप यज्ञभूमि में आकर पधारें। देवताओं की स्तुति सुनकर शंकर जी देवताओं को धैर्य बंधाते हुए बोले- देवों! हम किसी पर कोप नहीं करते। हम सब जीवों के कल्याण रूप हैं। किन्तु माया के वश होकर जीव स्वयं ही दुख भोगते हैं। अतः जिसने जैसा किया वैसा ही फल पाया। हमारे आशीर्वाद से दक्ष जीवित हो चुका है।
किन्तु इसका मस्तक भस्म हो गया है। सो उसको बकरे का मस्तक लगाकर जीवित किया जावेगा। सब देवताओं के नेत्र भी यज्ञ को देखेंगे। पूषा के दाँत साबित हो जायेंगे और यजमान के दिये हुए यज्ञ भाग का उपयोग कर सकें। भृगु बकरे की दाढ़ी पायेंगे और मेरे गणों द्वारा घायल किये गये देवगण सबके सब स्वस्थ हो जायेंगे। इतना कहकर सदाशिव जी महाराज मौन हो गये। उनकी यह बात सुनकर सभी देवता सदाशिव जी महाराज की जय-जयकार करने लगे। इसके पश्चात समस्त देवताओं ने भगवान श्री सदाशिवजी महारजा को उस यज्ञ में आने के लिए आमन्त्रित किया। श्री सदाशिव जी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और नन्दी पर सवार होकर कैलाश पर्वत की ओर रवाना हो गये।
ब्रह्माजी ने कहा- 'हे नारद! हम सब भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के साथ कनखल की यज्ञशाला में आये। दक्ष का परिवार सदाशिवजी महाराज तथा हम सबको आया देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। यज्ञशाला में पहुँचकर भगवान श्री सदाशिवजी महारजा ने भंग यज्ञ का निरीक्षण किया और देखा कि स्वाहा, स्वधा, पूषा, पितर, अग्नि में से कईयों के अंग प्रत्यंग टूटे फूटे हैं और कई मरे पड़े हैं। यज्ञ की यह दशा देखकर भगवान श्री सदाशिव जी महारजा ने वीरभद्र को बुलाकर कहा-वीरभद्र! तुमने यह क्या कर डाला? ऋषियों को इतना कठिन दण्ड क्यों दे डाला? अच्छा अब तुम शीघ्र दक्ष का मृतक शरीर मेरे पास लाओ। वीरभद्र ने दक्ष का मृतक शरीर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज के सामने लाकर रख दिया। उसका सिर रहित शरीर देखकर सदाशिवजी महाराज बोले-'इसका सिर कहाँ है? वीरभद्र ने कहा-उसे तो मैंने अग्नि में हवन कर दिया था।'
इस पर भगवान श्री सदाशिव जी देवताओं से बोले-देखो जो कुछ मैंने कहा था, वही हुआ। फिर उन्होंने दक्ष के शरीर पर बकरे का सिर जोड़ दिया। और वह 'शिव' कहकर पुनः जीवित हो उठा। दक्ष भगवान शिव की स्तुति करने लगा- 'प्रभु! आप आदि अन्त से रहित हैं। आपने मुझे दण्ड देकर जो ब्रह्मदान दिया है, यह आपकी बड़ी कृपा है। हे प्रभु! अज्ञानता तथा मूर्खता के वश होकर आपको पहचान नहीं सका और आपकी निन्दा की, आप मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये, और मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये। भगवान विष्णु भी मुझे अपनी भक्ति देने की कृपा करें। इसके पश्चात दक्ष ने भगवान श्री विष्णु की इस प्रकार स्तुति की- 'प्रभु! आपका यश तो अनुपम है। हमारा मन चंचल है आप कृपा करके हमारे अपराधों को क्षमा करें। भगवान! समस्त सृष्टि मुझे बुरा कहती है। परन्तु मैं अपने आपको बड़ा भाग्यवान समझता हूँ क्योंकि आपके पूजन ध्यान से मेरे समस्त पाप नष्ट हो गये हैं। भगवान! मैंने आपको नहीं पहिचाना इसलिए मुझे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा। आप बड़े कृपालु हैं।
मैं आपको प्रणाम करता हूँ।' फिर मैं (ब्रह्मा जी ) ने भी इन्द्रादि देवताओं सहित भगवान शिव की स्तुति की। देवताओं की बात सुनकर सदाशिव ने कहा- 'जो दक्ष के समान हमारी स्तुति करेगा वह सभी ऋद्धियों को प्राप्त करेगा।' मैं, ब्रह्मा और विष्णु संसार को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। मेरा ही नाम जगदीश्वर है। मैं अपनी इच्छा से ही सृष्टि की रचना करता हूँ और नष्ट भी मैं ही करता हूँ। ब्रह्मा और विष्णु मेरे ही स्वरूप हैं। हम तीनों में भेद जानने वाला नरक भोगता है। बिना ब्रह्मा और विष्णु के मेरा पूजन भी व्यर्थ है।
'हे दक्ष! यद्यपि मैं स्वतन्त्र ईश्वर हूँ और मैं भक्तों के वश में हूँ। चारों भक्तों में ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है और उससे बढ़कर प्यारा मुझे दूसरा और कोई नहीं हैं। वह कर्म परायण मनुष्य मूर्ख हैं जो वेद, यज्ञ, दान और तप आदि से मुझे जानना चाहता है। इस प्रकार तू भी केवल कर्म के द्वारा संसार से तरना चाहता था। तेरा यह कर्म मुझे भला प्रतीत न हुआ और मैंने तेरे यज्ञ को विध्वंस कर दिया। अब तू मुझे परमेश्वर मानकर बुद्धिपूर्वक ज्ञान परायण हो, सावधानी से कर्म कर। तू यह भली प्रकार समझ ले कि मैं शिव ही इस जगत का दृष्टा हूँ। मैं ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करता हूँ और क्रिया के अनुसार विभिन्न नामों को धारण करता हूँ। विष्णु-भक्त का अर्थ यह नहीं है कि वह मेरी निन्दा करे, मेरा भी भक्त विष्णु की निन्दा नहीं कर सकता। यदि ऐसा करेगा तो हम दोनों के शाप से उसको तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।'
हे नारद! भगवान सदाशिव ने दक्ष से इस प्रकार कहकर उन्होंने महर्षि भृगु से कहा-तुम क्या चाहते हो? वह माँगो? परन्तु स्मरण रहें कि हम तीनों में से किसी एक की भी निन्दा करने वाला तीनों का निन्दक होता है। एक की निन्दा करने से दूसरे को प्रसन्न नहीं कर सकता। भगवान श्री सदाशिव के वचन सुनकर समस्त देव मण्डल प्रसन्न हो गया और उनके गुणगान करने लगा।
अब तक भगवान श्री सदाशिव की कृपा से समस्त देव मण्डल और ऋषिगण पूर्ण रूपेण स्वस्थ हो चुके थे। दक्ष प्रजापति बड़े प्रेम और श्रद्धा सहित भगवान श्री सदाशिव की भक्ति करने लगा। समस्त देवता भगवान श्रीसदाशिव को परमेश्वर मानने लगे। जिसने जैसी स्तुति की थी, उनको भगवान ने वैसा ही वर दिया। इसके पश्चात भगवान ने दक्ष को यज्ञ करने की दी। एक नई सभा निर्माण की गई। यज्ञ आरम्भ हुआ। स्त्रियाँ मंगल गान करने लगी। दक्ष ने सभी देवताओं को उचित भाग दिया और शेष भाग भगवान सदाशिव को अर्पण किया गया। ब्राह्मणों को भी उचित दान दिया गया। यज्ञ सम्पूर्ण होने पर दक्ष ने स्त्रियों सहित स्नान किया। सब देवता और ऋषि आदि भगवान शंकर का यश गाते हुए अपने धाग को गये। मैं और विष्णु भी भगवान शिव के पावन नामक का उच्चारण करते हुए अपने लोकों को चले गए। परन्तु दक्ष ने कुछ दिनों के लिये भगवान श्री सदाशिव जी महराज को यह कहकर रोक लिया कि मेरा परिवार अभी कुछ दिन और आपकी कृपा यहाँ रहकर चाहते हैं। शिवजी महाराज ने दक्ष को अपना परम भक्त बनाकर भगवान श्री सदाशिव अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर चले गये।
श्री शिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता (सातवाँ खण्ड) प्रथम अध्याय
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