सातवाँ अध्याय
पार्वती द्वारा गणेश जी की उत्पति होना
सूत जी कहते हैं- तारकासुर के शत्रु स्कन्द का यह चरित्र सुनकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा कि प्रजानाथ! स्वामि कार्तिकेय का यह अमृतमय चरित्र तो मैंने सुना। अब कृपा करके सब मंगलों के भी मंगल गणेश जी का दिव्य चरित्र मुझे सुनाइये। नारद जी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी प्रसन्न होकर शिवजी का स्मरण करते हुए बोले- हे नारद जी! कल्प भेद से गणेश जी के कई प्रकार के चरित्र हैं। उनमें से एक बार शनि की दृष्टि से उनका शिर छेदन हुआ और हाथी का सिर जुड़ा। श्वेत कल्प में होने वाले गणेश जी की उत्पत्ति कहता हूँ,
जिसमें कृपालु शंकर ने भी उनका शिरोच्छेदन किया था। सृष्टि कर्ता शंकर के विषय में यह सब कुछ भी सन्देह करना योग्य नहीं है, क्योंकि सबके प्रति शंकर सगुण भी है और निर्गुण भी। वह लीला से ही सग जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं।
हे मुने! अब आदर सहित उनके चरित्र को सुनो। जब विवाह कर शिवजी कैलाश पर चले गये, तब कुछ समय व्यतीत होने पर गणपति का जन्म हुआ। एक समय की बात है, जया विजया नामक पार्वती की दो सखियों ने परस्पर विचार कर पार्वती से जाकर कहा कि शंकर जी के द्वार पर जो हमारे असंख्य गण एवं द्वारपाल विराजमान रहते हैं, उन पर हमारा अधिकार होते हुए भी कुछ भी अधिकार नहीं है, क्योंकि हमारा मन उनसे नहीं मिलता। अतः हे भगवती । हे पुण्यशीले ! एक हमारा भी कोई गण होना चाहिये, आप उसकी रचना करिये। पार्वती जी को सखियों की यह बात प्रिय लगी और उन्होंने उसकी रचना की इच्छा की। जब एक समय पार्वती जी स्नान कर रही थीं और नन्दी द्वार पर बैठा हुआ था, तब उसके मना करने पर भी शंकर जी हठात् मन्दिर में प्रवेश कर गये, जिससे लज्जित हो जगदम्बिका तुरन्त उठ बैठी। तब उन्हें अपनी सखी का वचन याद आया और परमेश्वरी ने अपने एक अत्यन्त श्रेष्ठ सेवक की आवश्यकता प्रतीत की। उन्होंने सोचा मेरा कोई एक ऐसा सेवक हो जो मेरी आज्ञा से कदापि विचलित न होवे। ऐसा विचार कर पार्वती ने अपने शरीर के मल से सर्वलक्षण सम्पन्न एक पुरुष का निर्माण किया। वह शरीर के सब अवयवों से निर्दोष तो था ही किन्तु सुन्दर विशाल और सर्व शोभा सम्पन्न तथा महाबली एवं पराक्रमी था। पार्वती ने उसे अनेक प्रकार के वस्त्रों से सजा तथा अनेक प्रकार के अलंकारों से युक्त करके आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम्हीं एक मात्र मेरे पुत्र हो, दूसरा कोई नहीं हैं। तब उस पुत्र ने पार्वती से कहा-हे माता! मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैं आपकी सब आज्ञाओं को पूर्ण करूँगा। पार्वती ने कहा कि तुम मेरे द्वार के रक्षक हो।
मेरी आज्ञा के बिना कोई भी क्यों न हो? मेरे घर के भीतर न आने पावे। कितना भी कोई हठ क्यों न करें। तुम उसे आने न देना। ऐसा कहकर पार्वती जी ने गणेश जी के हाथों में एक लकड़ी दे दी और प्रेम से मुख चूमकर द्वार पर बैठा दिया। वह लकड़ी ले माता के हितार्थ द्वार पर जा बैठे। तब पार्वती जी फिर जाकर स्नान करने लगी। इस समय शिवजी फिर द्वार पर आ गये और अन्दर जाने लगे। तब शिवजी को न जानकर गणेश जी ने कहा कि मेरी माता की आज्ञा के बिना आप नहीं जा सकते। माता इस समय स्नान कर रही हैं। तुम कहाँ जाते हो? यहाँ से चले जाओ। यह कह गणेश जी ने लकड़ी ले उन्हें रोक दिया। शिवजी ने कहा-अरे मूर्ख! तू किसको रोकता है? क्या मुझे नहीं जानता कि मैं शिव हूँ। यह सुनते ही गणेश ने शिवजी पर लकड़ी से प्रहार कर दिया। महेश्वर ने क्रुध होकर कहा-रे बालक! तू मूर्ख है। क्या तू नहीं जानता कि मैं गिरिजापति शंकर हूँ। रे बालक! मैं अपने ही घर में जाता हूँ। तू मुझे क्यों रोकता है? ऐसा कह जब गणेश जी की परवाह न कर शिवजी फिर भीतर जाने लगे तो गणेश जी ने फिर उन पर लकड़ी का प्रहार कर दिया। इस पर शिवजी ने क्रुध हो अपने गणों को आज्ञा दी कि इसको रोको। ऐसा कहकर शिवजी बाहर ही रहे। अद्भुत लीलाधारी संसार को अपनी लीला दिखाने लगे।
आठवाँ अध्याय
शिवगणों द्वारा गणेश जी को द्वार से हटने के लिए कहना
ब्रह्माजी कहते हैं कि अब वे सब गण शिवजी की आज्ञा से वहाँ जाकर उस द्वारपाल से परिचय पूछने और यह कहने लगे कि यदि तू जीना चाहता है तो यहाँ 'तू' से दूर हो जा। इस पर गणेश जी क्रुध हो हाथ में दण्ड लिये उन गणों से निर्भय होकर बोले कि तुम सब यहाँ से चले जाओ। मेरा विरोध करना अच्छा नहीं है। गणेश जी के यह वचन सुनकर शिवजी के गण हँसने लगे और पुनः क्रुध होकर बोले-हम सब श्रेष्ठ गण हैं। तुमको यहाँ से हटाने के लिये आये हैं। अब तक तुमको भी एक गण मानकर छोड़ दिया है, नहीं तो मार दिये होते। अब क्यों मरना चाहते हो? भाग जाओ। यह सुनकर निर्भीक पार्वती पुत्र ने उन्हें घुड़क दिया और द्वार से न हटे। इस पर शिवजी के गण लौट गये और जाकर सब बातें कह सुनाई। उसे सुनकर शिवजी अपने गणों को नपुंषक कहकर डाँटने लगे और कहा कि मैं कुछ नहीं जानता? जैसे भी हो, जाकर उस गण को हटाओ। वे गण फिर वही लौटकर द्वारपाल से पूछने लगे कि तुम कौन हो और यहाँ पर क्यों स्थित हो तथा तुम्हें किसने स्थापित किया है? क्यों मरना चाहते हो? भाग जाओ? नहीं तो अभी तेरे प्राण ले लूँगा। यह सुन गणेश जी कुपित होकर अपने हाथों से लाठी पकड़कर उन कहने वाले गणों को डाँटने मारने लगे। और यह.. कहने लगे कि जाओ भाग जाओ, नहीं तो मैं अभी तुम्हें अपना उग्र पराक्रम दिखाता हूँ। यह जानकर शिवगणों को बड़ी चिन्ता हो गई कि क्या करें और कहाँ जायें? मर्यादा का अतिक्रमण हो रहा है। ऐसा विचारकर वे गण शिवजी के पास फिर गये और एक कोस की दूरी से ही चिल्लाकर उक्त बातें कहने लगे। इस पर हाथ में त्रिशूल लिये हुए उग्र बुद्धि वाले शिवजी ने अपने गणों से कहा- हे गणों तुम सब नपुंसक हो, जाओ और मारो।
कोई भी हो, अधिक कहने से क्या है, उसको वहाँ से हटाओ। अब उन गणों फिर पार्वती मन्दिर पर उस द्वारपाल के पास आकर हटने को कहा, गणेश जी ने कहा-मैं पार्वती का पुत्र हूँ, कदापि नहीं हट सकता। इतने में द्वारपाल से हो हल्ला सुनकर पार्वती ने अपनी एक सखी को भेजा कि देख वहाँ क्या हो रहा है? सखी ने देखकर सब वृतान्त पार्वती जी से कहा। साथ ही यह भी कहा कि अच्छा हुआ जो नहीं आने दिया, अन्यथा शिवजी तो सर्वदा बिना कहे सुने अन्दर घुस आया करते हैं। हे देवि! तुमको अपना मान नहीं छोड़ना चाहिये।
पार्वती जी ने कहा- ठीक है, परन्तु यह तो देखो कि क्षण भर के लिये मेरा पुत्र द्वार पर स्थित न हुआ था कि उनके गण आकर बलात्कार करने लगे। फिर मैं विनय और नम्रता को क्यों अपनाऊँ। यह विचारकर पार्वती जी ने एक सखी को दरवाजे पर भेजा उसने आकर गणेश जी से कहा- कि हे भद्र! तुमने ठीक किया जो उन्हें बल से घुसने नहीं दिया। तुमको ये सब गण जीत नहीं सकते। इसमें शत्रुता की भी कोई बात नहीं है। तब सखी द्वारा माता का सन्देश पाकर गणेश जी बड़े प्रसन्न हुए और वह अपने कच्छ पगड़ी और जाँघिया को कसकर बाँध निर्भय हो उन गणों से बोले मैं तो पार्वती का पुत्र हूँ और तुम सब शिव के गण हो। समता प्राप्त दोनों अपना कर्तव्य पालन करें। क्या एक तुम्हीं द्वारपाल हो, मैं नही। यदि तुम सब यहाँ स्थित हो तो मैं भी यहाँ ही स्थित रहूँगा।
इस समय मैं पार्वती जी की आज्ञा से स्थित हो, उनकी आज्ञा का पालन करूँगा। तुम भी शिव की आज्ञा का पालन करो। यह सुन शिवजी के गण हठपूर्वक फिर मन्दिर में नहीं गये। शिवजी के पास लौटकर सब वृतान्त निवेदन किया। यह सुन शिवजी लौकिक गति का आश्रय ले अपने गणों से बोले-अच्छा तो अब युद्ध न करो। क्योंकि तुम सब हमारे गण हो और वह पार्वती का गण है, परन्तु विनय करने से भी लोक में हमारी अप्रतिष्ठा होगी और सब यही कहेंगे कि शिवजी स्त्री के वश में हैं। इस कारण अब नीति युक्त कार्य करो। वह अकेला गण तुम सबके आगे क्या पराक्रम दिखलायेगा? पति के आगे स्त्री क्या हठ करती है? यदि पार्वती हठ करेंगी तो अवश्य ही हठ का फल पावेगी। निदान मेरी आज्ञा से तुम लोग युद्ध ही करो। ऐसा कहकर लौकिक लीला करने वाले शिवजी चुप हो गये।
नौवाँ अध्याय
गणेश जी का युद्ध में सभी शिवगणों व देवताओं को परास्त करना
ब्रह्माजी बोले- अब शुंभ की आज्ञा पाकर वह सब गण निर्भय हो सजकर शिवजी के मन्दिर पर आये। इधर गणेश जी भी सजे हुए तैयार थे। शिवगणों को देखकर गणेश जी ने उनसे कहा कि मैं अकेला माताजी की आज्ञा का पालन करूँगा। आज तुम सब मुझ अकेले का बल देखो। शिवजी के गणों का भी बल आज देखा जायेगा। मैंने तो पहले कभी युद्ध भी नहीं किया है, परन्तु तुम तो युद्ध मर्द हो। अब तो हमारी और तुम्हारी लज्जा की शिव-पार्वती ही रक्षा करेंगे। ऐसा विचार अपने स्वामी की आज्ञा पालन के लिये मुझ अकेले से ही तुम सब युद्ध करो। मैं भी अपनी माता के लिये अकेले ही तुम सबसे युद्ध करूँगा। अब यह युद्ध कैसा होगा? यह कोई नहीं जानता और त्रिलोकी में ऐसा कोई नहीं है, जो इस युद्ध को रोक सके। जब इस प्रकार गणेश जी ने उन गणों को फटकारा, तो वे अनेक प्रकार के आयुध ले उन पर टूट पड़े। अकेले गणेश जी असंख्य गणों से युद्ध करने लगे, परन्तु शिवजी का कोई भी गण उन्हें युद्ध में परास्त न कर सका और उन सबको मारकर भगा दिया। सैकड़ों की संख्या में वे गण पलायन करने लगे। गणेशजी लौटकर फिर द्वार पर आ खड़े हुए। नारदजी की प्ररेणा से विष्णु आदि सभी देवता शिवजी के पास गये। स्तुति कर युद्ध का वृतान्त पूछा। शिवजी ने कहा- मेरे मन्दिर के द्वार पर एक बड़ा बलवान बालक हाथ में लकड़ी लिए उपस्थित है, जो घर में जाता है, वह उसे जाने नहीं देता है, यदि ब्रह्मा चाहे तो वहाँ जाकर इस क्लेश को दूर करें। यह सुनकर शिवजी की माया से मोहिम मैं (ब्रह्मा) कुछ ऋषियों को साथ ले उस बालक के पास आया। मुझे आते देख बालक गणेश क्रोधवश दौड़कर मेरी दाड़ी मूँछ नोचने लगे।
तब मैंने कहा- हे देव! क्षमा करो, क्षमा करो। मैं "युद्ध के लिये नहीं आया हूँ। मैं ब्रह्मा हूँ। मेरे ऊपर कृपा करो, मैं शांति स्थापित करने आया हूँ, मैं ऐसा कह ही रहा था कि बालक गणेश ने परिध उठा लिया। मैं वहाँ से भाग चला। उसने मेरे सब साथियों को परिघ से ताड़ित किया, फिर तो मैंने शिवजी के पास आकर अब समाचार कह सुनाया। उसे सुन लीला विशारद शंकर को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने इन्द्रादिक देवताओं और अपने भूत बैतालादि गणों को गणेशजी से युद्ध करने की आज्ञा दे दी। त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। उस समय में ही ब्रह्माण्ड के क्षय होने का समय आ गया। लोग चिन्ता करने लगे। परन्तु कार्तिकेय आदि वीरों सहित शिवजी के सब गणों का प्रयास व्यर्थ हो गया। अकेले बालक गणेश ने मार-मार कर सबके छक्के छुड़ा दिये। एक ही बालक ने शिवजी की समस्त सेना को विचलित कर दिया। एक ने ही सब इन्द्रादिक देवताओं को युद्ध से विरत कर दिया। परन्तु महाबली कार्तिकेय अब तक भी उस स्थान पर स्थित ही रहे। शेष सभी शिवजी के पास भाग गये। तब शिवजी से सारा वृतान्त सुनाया। परम कुपित रुद्र स्वयं ही वहाँ गये और चक्रधारी विष्णु की सारी सेना भी उनके पीछे चली। मार्ग में नारदजी ने मिलकर शिवजी से कह दिया कि जैसे भी हो शिव गणों की मर्यादा रखिये।
दसवाँ अध्याय
गणेश जी और शिवजी का युद्ध
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तुम्हारे वचनों का ध्यान कर शिवजी उस बालक से युद्ध करने आये। सभी देवता और विष्णुजी तक उससे युद्ध करने लगे। सबके भयानक अस्त्र चलने लगे। शिवजी भी चिरकाल तक उस बालक से युद्ध करते रहे। बालक ने विकराल रूप कर लिया। शिवजी आश्चर्य करने लगे, विष्णुजी ने कहा-मैं इसे मोहित कर परास्त करूँगा, क्योंकि यह तमोगुण वाला बालक बड़ा ही दुर्गम है। शिवजी की माया से विष्णुजी मोहित हो गये। गणेशजी ने उन पर परिघ का प्रहार किया। यह देखकर शिवजी को और भी क्रोध आया, वह हाथ में त्रिशूल उठा उस बालक को मारने चले। तब शिवजी को इस रूप में अपनी ओर आते देख गणेशजी ने मन ही मन अपनी माता का ध्यान किया और अपनी शक्ति उठा शंकर जी के हाथों पर प्रहार कर दिया। उस समय गणेशजी की शक्ति महादेवजी से भी बढ़ी हुई थी। उस शक्ति के लगने से परमात्मा शिव के हाथों से उनका त्रिशूल गिर पड़ा, तब त्रिशूल के गिरते ही शंकर जी ने पिनाक उठा लिया, परन्तु गणेशजी ने एक परिघ मारकर उनका पिनाक भी पृथ्वी पर गिरा दिया। फिर हाथ में त्रिशूल उठा गणेश ने शंकर जी के पाँचों हाथों में मारकर उन्हें व्यर्थ कर दिया।
शिवजी ने कहा- वाह! जब मेरी ही यह दशा है, तो मेरे गणों की तो क्या दशा होगी? फिर तो इसी समय शक्ति के दिये बल से युक्त वीर गणेशजी ने परिघ उठा शिवजी के सर्व गणों और सब देवताओं को भी ताड़ित कर दिया। परिघ से व्याकुल हुए वे देवता और गण दूर भाग गये। विष्णु जी उस महाबली गण को देखकर कहने लगे कि इसको धन्य है। हमने बहुत से देव और दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस देखे हैं, पर इस गणेश्वर की समता को कोई नहीं पा सकता। विष्णुजी ऐसा कह ही रहे थे कि पार्वती पुत्र गणेशजी ने उन पर भी अपने परिघ का प्रहार कर दिया। तब विष्णुजी ने शिवजी के चरण कमलों का ध्यान कर चक्र उठा उस परिघ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। गणेशजी उसी खंडित परिघ से विष्णुजी को फिर मारने लगे।
परन्तु गरुड़जी उनके सभी प्रहारों को व्यर्थ कर देते थे। इस प्रकार विष्णु और गणेश जी को युद्ध करते बहुत समय बीत गया। इस बीच गणेश जी ने विष्णु को मार-मार कर मूर्छित भी बना दिया। फिर भी विष्णु जी उठ-उठ कर पार्वती पुत्र के साथ युद्ध करते रहे, यह देख शिवजी को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने त्रिशूल उठा शीघ्र ही उस बालक का सिर काट दिया। देवताओं और गणों की सेना निश्चिंत हो गई। हे नारद! उसी समय तुमने जाकर वह सब बातें उमा देवी से कह दी और यह भी कह दिया कि तुम अपना मान किसी प्रकार भी न त्यागना। हे कलह प्रिय नारद! ऐसा कहकर तुम तुरन्त ही अन्तर्ध्यान हो गये और यह सुनकर महादेवी पार्वती जी शिवजी के पास गई।
ग्यारहवाँ अध्याय
शिवजी द्वारा गणेश जी को पुनः जीवित करना
नारदजी बोले- हे ब्रह्मन्! तब इस वृतान्त को सुनकर महादेवी ने क्या किया? कृपा कर मुझसे कह समस्त कथा सुनाइये। ब्रह्माजी बोले- हे मुनिवर! गणेशजी के शिरोच्छेदन से शिवजी के गण तालियां बजाकर महोत्सव करने लगे। इधर पार्वतीजी को बड़ा क्रोध आया। वह बोली हाय! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? हाँ मुझे बड़ा दुख प्राप्त हुआ। सब देवताओं और गणों ने मेरे पुत्र का संहार कर दिया। अब मैं भी सबका नाश या प्रलय करूँगी। इस प्रकार दुखी होकर पार्वती ने सौ हजार शक्तियों की रचना कर डाली। तब वे निर्मित शक्तियाँ जगदम्बा को प्रणाम कर कहने लगी कि हे माता! क्या आज्ञा है? देवी ने कहा- तुम लोग मेरी आज्ञा से देव सेना में जाकर उसका नाश कर डालो। देवता, राक्षस, ऋषि और अपने पराये जो मिलें उन्हें हठ से भक्षण कर जाओ। पार्वती की आज्ञा से वह सब शक्तियाँ क्रोध में तत्पर हो सब देवताओं का भक्षण करने लगी। जहाँ देखो वहाँ शक्तियाँ ही शक्तियाँ दिखलाई देती थी तथा देवताओं को अपने हाथ से पकड़-पकडकर मुख में डाल लेती थीं। उनके इस कर्म को देख ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्रादिक सभी देवताओं को अपने जीवन की कोई आशा न रही, तब वे कहने लगे क्या देवी अकाल ही प्रलय कर डालेगी? तब इस दुरूह वर्तमान उत्पन्न हुई परिस्थिति में क्या उपाय किया जाये? ऐसा देवता तथा विष्णु, ब्रह्मा सहित विचार करने लगे, तब सब एक मत होकर उच्च स्वर से विचार कर कहने लगे कि अगर जगद्जननी गिरजाजी को प्रसन्न कर लिया जावे तब तो हम सबका जीवन सुरक्षित हो कार्य सिद्धि को प्राप्त होगा।
लौकिकी दुःख प्रकट करते हुए शंकर भगवान भी दुखित हो उदास की मुद्रा धारण कर सबको अपनी माया से भ्रमित करने लगे। परन्तु इस समय सभी देवता शक्तियों के आतंक से निष्प्राण से हो रहे थे। क्रोधमयी शिवा के मन्दिर में जाने का देवताओं को साहस नहीं होता था। हिमालय पुत्री पार्वती के महा प्रकाशित तेज सभी को संतप्त कर रहा था। सारे देवगण भयभीत हो दूर ही दूर खड़े थे। उसी समय वहाँ पर परम दिव्य श्री नारद जी आये। वहाँ आकर उत्पन्न हुई इस विषम परिस्थिति को देखकर उन्होंने पहले ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जी को प्रणाम कर विचार करने लगे। सब देवताओं ने मिलकर कहा कि हे नारदजी! तुम अग्रणी बनकर शिवा के पास चलने को तैयार हो जाओ। तब नारद जी ने देवताओं के इस प्रस्ताव को लोकहित के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। तब सब देवता नारदजी सहित शिवा के मन्दिर पर जा पहुँचे और वहाँ पर अनेक स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। उसे सुन पार्वती ने कुछ भी न कहा और क्रोध दृष्टि से उनकी ओर देखती रहीं। तब ऋषियों ने कहा-हे देवि! जगजननी! हमारे अपराध को क्षमा करो। इस समय संहार होना चाहता है। हे अम्बिके! तुम्हारे स्वामी भी यहाँ उपस्थित है, उनकी ओर तो देखो। साथ ही हम ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता तथा आपकी समस्त प्रजा आपके सामने क्षमा की इच्छा के लिए हाथ जोड़कर बड़े हैं। हे भगवती! अब इन सबका अपराध क्षमा करो। हम सब व्याकुल हैं। हमें शान्ति प्रदान कीजिए। जब इस प्रकार कहते हुए सब देवता बड़ी दीनता और व्याकुलता से हाथ जोड़े हुए उन चंडिका के समक्ष खड़े हो गये तब वह भगवती करुणा करके उन देवताओं से इस प्रकार बोली- यदि मेरा पुत्र जी जाये और तुम सबके बीच में पूजनीय हो जाये, तो यह संहार नहीं होगा, अन्यथा शान्ति नहीं होगी।
भगवती के ऐसा कहने पर सब देवताओं ने शिवजी से इसके लिये प्रार्थना की शिवजी ने कहा ठीक है हम लोगों को वही करना चाहिए जिसमें सब लोगों का मंगल होवे। अच्छा तो अब तुम लोग यहाँ से उत्तर दिशा में चले जाओ और जो पहले मिले उसका सिर काटकर गणेशजी के धड़ में जोड़ दो तो यह जीवित हो जावेंगे। यह सुन सब देवता गणेशजी को लेकर उत्तर दिशा की ओर गये, तो प्रथम उनको एक दांत वाला हाथी मिला। उन्होंने उसका सिर काटकर गणेशजी के शरीर से जोड़ दिया। फिर उन्हें अच्छी तरह धोकर उनकी पूजा की तथा विष्णु से कहा कि अब जैसा उचित हो, वह सब कृत्य आप कीजिए। विष्णुजी ने वेद मन्त्रों के योग से अभिमंत्रित कर शिवजी का ध्यान कर गणेशजी पर जल छिड़का। जल के छिड़कते ही वह बालक शिवजी की इच्छा से जाग उठा। उस गजमुख, रक्तवर्ण, सुन्दर, कान्तिमान • बालक का प्रसन्न वदन एवं सुन्दर आकृति की शोभा बड़ी ही दैदीप्यमान थी। शिवा पुत्र को जीवित हुआ देख, सबका दुःख दूर हो गया सबने प्रसन्न होकर उन्हें देवी को दिखाया। पार्वती अपने पुत्र को जीवित हुआ देख प्रसन्न हो गई।
बारहवाँ अध्याय
गणेश जी को सभी देवताओं द्वारा पूज्य मानना व उनकी पूजा करना
नारदजी बोले-हे प्रजेश्वर! गिरजा पुत्र के जीवित होने के बाद क्या हुआ? कृपा कर वह कथा सुनाइये। ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर! जब देवी ने देखा कि मेरा पुत्र जीवित हो गया, तो वह बहुत प्रसन्न हुई और दोनों भुजाओं से पकड़कर उनका आलिंगन करने लगी। अनेक प्रकार के आभूषण और वस्त्र पहिनाये। सबने उनकी पूजा की और देवी ने अपने बालक का मुख चूम कर बहुत से वर दिये तथा यह कहा कि हे पुत्र! तुम्हारे मस्तक पर जो वह सिंदूरी रंग सी आभा है, इस कारण मनुष्य पुष्प चन्दनादि सहित तुम्हारी सिन्दूर से पूजा करेंगे। तुमको सब सिद्धियाँ प्राप्त हो और तुम्हारी पूजा करेंगे। भक्तिपूर्वक पार्वती जी के समीप गये और महेश्वरी के उस पुत्र को तीनों लोक के सुखार्थ शिवजी की गोद में बैठाया। शिवजी ने अपने कर कमलों को उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा-यह मेरा दूसरा पुत्र है। गणेश जी ने उठकर शिवजी को प्रणाम किया तथा सब देवताओं को प्रणाम करते हुए उनसे अपने अपराध की क्षमा माँगी। त्रिदेवों ने वर दिया सबका पूज्य और गणनाथ कहा। तब से गणेशजी विघ्नहर्ता और सर्वकाम फलदायक हुए। साथ ही त्रिदेवों ने यह भी कहा, कि पहले मनुष्य इनकी पूजा करेंगे, फिर हमारी। तदनन्तर पहले शिवजी ने सभी मांगलिक वस्तु मँगाकर गणेशजी की पूजा की, फिर विष्णुजी ने, फिर मुझ ब्रह्मा ने, फिर पार्वती ने तथा इसके पीछे अन्य सभी देवताओं ने बड़े आदर से इनकी पूजा की। फिर सब देवताओं ने एक स्वर से गणेश जी को सर्वाध्यक्ष कहकर अनेकों वर दिये। हे मुनीश्वर! उस समय पार्वती को जो प्रसन्नता हुई, वह मेरे चारों मुखों से भी नहीं कही जाती है। देवताओं की दुन्दुभी बजने लगीं, अप्सरायें नृत्य करने लगी तथा आकाश से फूलों की वर्षा हुई।
गणेश जी के प्रतिष्ठित होते ही जगत में स्वस्थता प्राप्त हो गई। और बड़ा महोत्सव हुआ। सबका दुःख दूर हो गया, विशेषकर शिवा-शिव को बड़ी प्रसन्ता हुई। सब देवता शिवजी पार्वती और गणेश की बारम्बार प्रशंसा करते हुए अपने स्थान को गये। पार्वती जी क्रोधहीन हो गई और भगवान शिव जी पूर्ववत उनके समीप जा बैठे। मैं और विष्णुजी शंकर जी से आज्ञा ले, शिवा-शिव की भक्ति सेवन करते हुये अपने लोक को गये। तुम भी अपने लोक को गये। जो इस मंगलदायक आख्यान को भक्ति पूर्वक सुनेगे, वे सब मंगलों से पूर्ण होंगे।
तेरहवाँ अध्याय
गणेशजी तथा कार्तिकेय द्वारा माता-पिता की आज्ञा से पृथ्वी परिक्रमा करना
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! यह हमने परम दिव्य गणेशजी का पूजन और चरित्र सुनाया जो बड़ा ही श्रेष्ठ और परम पराक्रम युक्त है। हे पितामह ! इसके पश्चात् फिर क्या हुआ? शिवा-शिव की वह सब कथा सुनाइये जो परमानन्द दायक है। ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ! यह तुमने अच्छा प्रश्न किया है। अब ध्यान देकर सुनो। मैं कहता हूँ- अब गणेशजी माता-पिता के लालन-पालन करने से दिनोंदिन बढ़ने लगे और बड़ी प्रीति से सर्वदा खेल-कूद करने लगे। कार्तिकेय भी साथ थे। दोनों पुत्र भक्तिपूर्वक माता-पिता की सेवा करते थे। माता-पिता एकान्त में बैठे हुए आपस में विचार कर रहे थे कि अब दोनों पुत्रों का शुभ-विवाह कर दिया जाये। तब माता-पिता की इस इच्छा को जानकर दोनों पुत्रों ने एक साथ ही विवाह की इच्छा प्रकट करते हुये यह कहा कि पहले मैं विवाह करूँगा, पहले मै। विवाह करूँगा, ऐसा कह कर दोनों आपस में विवाद करने लगे। जगत्बध शंकर पार्वती लोकाचार की दृष्टि से परम श्चर्यित हुए उन्होंने सोचा किस प्रकार दोनों का विवाह किया जावे। यह विचार कर दोनों ने एक अद्भुत युक्ति निकाली।
एक समय शिवा-शिव ने उन्हें बुलाकर कहा कि देखो! हमने तुम दोनों के सुख के लिये एक नियम किया है। तुम दोनों पुत्र हमारे लिये एक ही समान प्रिय हो । नह कोई कम न कोई अधिक इस कारण तुम्हारे लिये हमने प्रतिज्ञा की है कि जो पहले समस्त पृथ्वी की परिक्रमा करके हमारे पास पहुँच जावेगा, उसका ही विवाह पहले किया जावेगा। तब माता-पिता के यह वचन सुनकर महाबली कार्तिकेय जी तत्काल ही पृथ्वी की प्रदक्षिणा के लिये चल पड़े और बुद्धिमान गणेशजी अब तक वहीं स्थित रहे और बार-बार बुद्धि से विचार करने लगे कि क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मुझसे तो एक कोस भी नहीं चला जा सकता। फिर पृथ्वी की प्रदक्षिणा करना तो बहुत ही कठिन है। यह विचार कर गणेश जी अपने घर में जा स्नान ध्यान कर माता-पिता से बोले कि आप दोनों सिंहासन पर बैठिये, मैं पूजा करूँगा। शिव-पार्वती जी गणेश जी की पूजा ग्रहण करने बैठे। गणेश जी ने उन दोनों की पूजा कर परिक्रमा की। फिर हाथ जोड़ प्रेमपूर्वक माता-पिता की स्तुति कर बोले- आप मेरा सुन्दर विवाह कर दें। शिव-पार्वती ने कहा-क्या तुम पृथ्वी की परिक्रमा कर आये? कार्तिकेय गये हैं। जाओ तुम भी शीघ्र ही परिक्रमा कर आओ। गणेश जी माता-पिता के यह वचन सुनकर किंचित् क्रोध से बोले-हे माता जी!
पिताजी! आप दोनों कर्मरूप स्वयं ही बड़े बुद्धिमान हैं। अतः मेरी यह बात सुनिये कि जब मैंने आपकी सात बार परिक्रमा कर ली तब फिर आप यह कैसे कहते हैं कि पृथ्वी की परिक्रमा कर आओ? शिवा-शिव ने कहा- हे पुत्र! तुमने इस महान पृथ्वी की कब प्रदक्षिणा की है? गणेश जी ने कहा-जब मैंने आप दोनों की पूजा और परिक्रमा कर ली तो समस्त पृथ्वी की परिक्रमा हो गयी। यदि यह वेद शास्त्र सही हो तो आप मानिये अन्यथा नहीं। मेरे विचार से जो अपने माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी प्रदक्षिणा का फल निश्चय ही प्राप्त हो जाता है। वेद शास्त्र जो कहते हैं वही आपको भी करना चाहिए अन्यथा शास्त्र असत्य हो जाएगा। अतएव अब आपको शीघ्र ही विवाह कर देना चाहिये। या तो यह कीजिये या आप वेद शास्त्र की मर्यादा को ही असत्य कर दीजिये। ऐसा कहकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महाज्ञानी पार्वती पुत्र गणेश जी चुप हो गये। तब विश्व के माता-पिता शिव-पार्वती, गणेश जी के ये वचन सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुये और पुत्र की विलक्षण बुद्धि की प्रशंसा कर बोले कि हे पुत्र! अवश्य ही तुम्हारा कहना यथार्थ है। तुमने जो कुछ किया है, उसको कोई भी नहीं कर सकता। तुम्हारी बात हम दोनों ने मान ली। इस तरह बुद्धिमान गणेश को आश्वासन देकर शिव-पार्वती ने उनके विवाह की इच्छा की।
चौदहवाँ अध्याय
गणेश जी का विवाह सिद्धि और बुद्धि के साथ होना
ब्रह्मा जी बोले- इसी समय विश्व रूप प्रजापति ने शिवा-शिव के पास आकर अपनी सिद्धि और बुद्धि नाम की दोनों कन्याओं के विवाह के लिये बातचीत प्रारंभ की। शिवा-शिव ने उनका प्रस्ताव स्वीकार किया और उनके साथ गणेश का विवाह निश्चित कर लिया। पार्वती और शंकर जी के विवाह की तरह सब देवता इस विवाह में आये। विश्वकर्मा ने गणेश जी का ब्याह कराया। सब देवता और ऋषियों ने बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की। गणेश जी भी बहुत प्रसन्न हुए। कितने ही समय पश्चात गणेश जी की दोनों पलियों से दो पुत्र उत्पन्न हुए। सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार गणेशजी ने जब तक अचिन्त्य सुख भोग किया, तब तक पृथ्वी प्रदक्षिणा कर कार्तिकेयजी भी आ गये। परंतु जब वह घर पहुंचने ही वाले थे कि उससे पहले ही उनकी नारदजी से भेंट हो गयी। उन्होंने उनसे यह कह दिया कि अब घर क्या करने जाते हो? तुम्हारे माता-पिता ने जैसा किया है वैसा कोई भी इस लोक में नहीं कर सकता, तुमको तो पृथ्वी प्रदक्षिणा के लिए भेज दिया और इधर गणेश जी का परम शोभायमान विवाह कर दिया। प्रजापति विश्वरूप की दो कन्यायें उनकी दो पत्नी हैं। उनके पुत्र भी हो चुके हैं।
इस प्रकार उन्होंने तुमको छला है। मेरी समझ से तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे साथ यह अच्छा नहीं किया। सत्य ही है माता-पिता विष है या वेच दे अथवा यदि राजा सर्वस्व हरण कर ले तो फिर किससे कहा जा सकता है? बुद्धिमान को उचित है कि ऐसों का मुंह न देखे । हे नारद! तुमसे ऐसी बातें सुनते ही कुमार के क्रोध की सीमा न रही। किसी प्रकार घर तक तो पहुँचे। किन्तु माता-पिता को प्रणाम कर तत्क्षण ही उनके मना करने पर भी क्रोंच पर्वत पर तप करने चले गये। जब शिव-पार्वती ने पूछा तो कह दिया कि आप दोनों ने मेरे साथ कपट किया है। कुमार के विरह में पार्वती जी को बहुत दुःख हुआ। वे दीनतापूर्वक शंकर जी से कह सुनकर उन्हें साथ लें क्रोंच पर्वत पर गयी। तब शिव-पार्वती को वहाँ आते देख कुमार विरक्त हो, वहाँ से अन्यत्र चले गये। शिव-पार्वती ने वहाँ जाकर कुमार से भेंट की। तबसे उस पर्वत पर कार्तिकेय सहित शंकर पार्वती का बड़ा महात्य अब तक माननीय है, जो इस कथा को पढ़ता-पढ़ाता और सुनता सुनाता है उसकी सब कामनायें पूर्ण होती हैं और मोक्ष प्राप्त करता है।
॥ शिव पुराण समाप्त ॥
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