सातवाँ अध्याय
हिमाचल द्वारा देवताओं तथा समस्त बारातियों की विदाई करना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस तरह तीन दिन तक राजा हिमाचल ने बारात को न जाने दिया। चौथे दिन मैंने पार्वती जी और भगवान सदाशिव जी महाराज को बिठाकर हवन कराया और विवाह की रीतियाँ शेष रह गई थीं, वह सभी पूर्ण करवाई। उनके पश्चात तिलक किया गया। फिर सबने आशीर्वाद दिए और इसके पश्चात बारात ने भोजन किया। इस तरह रात बीत गई। प्रातःकाल जब हमने महाराज हिमाचल से
फिर विदा मांगी तो महाराज हिमाचल ने प्रार्थना करके हम लोगों को फिर रोक लिया। इस प्रकार उसने कई दिन तक हमको ठहराये रक्खा। तब एक दिन देवताओं ने हिमाचल की बहुत प्रंशसा की और उनसे कहा कि अब हमको विदा कर दो। देवताओं की बात सुनकर महाराज हिमाचल ने अपने भाई बन्धुओं को जमा करके बताया कि अब भगवान शिव यहाँ से रवाना होना चाहते हैं। महाराज हिमाचल की बात सुनकर उन सबको अति दुख हुआ। तब हिमाचल ने गुरु की आज्ञा से समस्त सामग्री जुटाकर बारात को अपने महल में बुलाया। तब मैं ( श्री ब्रह्माजी) ने भगवान श्रीसदाशिवजी तथा पार्वतीजी को बीच में बिठाकर गौरी पूजन करवाया और समस्त विधियाँ पूर्ण करवाई। हिमाचल ने जो दहेज दिया उसके सम्बन्ध में वर्णन नहीं किया जा सकता।
इसके पश्चात महाराज हिमाचल और मेना ने खड़े होकर हाथ जोड़कर सब लोगों से कहा- यह हमारा सौभाग्य था जो पार्वती जैसी पुत्री ने हमारे यहाँ जन्म लिया। जिसके कारण आप सबने हमारे यहाँ पधारकर हम लोगों को अपने दर्शन दिये है। देवताओं तथा अन्य बन्धुओं! आप हमारी गलतियों के लिए हमें क्षमा कर दें। हे नारद! यह सुनकर समस्त देवताओं ने महाराज हिमाचल की बहुत प्रशंसा की उस समय सब लोग भगवान सदाशिव जी महाराज के गुण गा रहे थे।
आठवाँ अध्याय
हिमाचल द्वारा शिवजी तथा पार्वती सहित विदाई देना
श्री ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! तब महाराज हिमाचल ने मेनका और घर के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज की स्तुति की। इसके पश्चात बारात जनवासे को वापिस लौट आई। फिर सब लोग दोबारा विदाई लेने के लिये हिमाचल के द्वार पर गये। भगवान श्री सदाशिवजी महल के भीतर चले गये। वहाँ स्त्रियों ने भगवान श्री सदाशिवजी को विदा किया। भगवान ने उस समय उन स्त्रियों से कहा कि सब बारात विदा हो चुकी है, अब आप मुझे भी विदा कीजिये, यह सुनकर मेनका ने प्रसन्नतापूर्वक पार्वतीजी को भगवान को सौंपा। वह पार्वती का हाथ भगवान सदाशिव जी के हाथ में देते हुए आर्द्र कण्ठ से कहने लगीं प्रभु! मेरी पुत्री गिरजा आपकी जन्म-जमान्तरों से दासी है। यह आपकी जी जान से सेवा करेगी। इसका पालन करते रहियेगा। यह मेरी लाड़ली बेटी है और आपकी पूर्ण भक्त है। यह आपकी प्रशंसा से खिल जाती है। इसको अभी संसार का कुछ ज्ञान नहीं है, इतना कहकर भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज के चरणों में लेट गई।
भगवान श्री सदाशिवजी ने महाराज तथा मेनका से कहा-आप और महाराज हिमाचल दोनों ही धन्य हैं। आप अपने समस्त परिवार के सहित मुक्ति को प्राप्त होंगे। यह कहकर भगवान सदाशिवजी महाराज मेनका से विदा होकर महाराज हिमाचल के पास गये और हाथ जोड़कर विदा मांगने लगे। उस समय महाराज हिमाचल ने हर्ष के अश्रुपात करते हुए भगवान से कहा-प्रभु! मुझसे अनजान में बहुत गल्तियां हो गई है, आप उनको क्षमा कर दें और मुझ पर सदा-सदैव अपनी कृपा बनाये रखे। यह कहकर महाराजा हिमाचल ने भगवान श्री सदाशिव को विदाई दी। उस समय बाजे बजने लगे और बड़ी धूमधाम से बारात वापिस चलने की तैयारी होने लगी।
नौवाँ अध्याय
ब्राह्मणों की पत्नियों द्वारा पार्वती को उपदेश देना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार विदा होकर भगवान श्री सदाशिवजी नगर के बाहर आ गये उस समय सप्त ऋषियों ने महाराज हिमाचल के पास जाकर कहा कि अब पार्वती जी को विदा कर दीजिये। जब मेनका ने सुना तो वह प्रेम के समुंद्र में डूब गई । तब मेनका ने नगर भर की स्त्रियों को बुलाकर पार्वती को स्नान कराया और उनका सुन्दर सिंगार किया गया। सब स्त्रियाँ पार्वती जी के भाग्य की प्रशंसा करने लगी। तब • ब्राह्मणों की पत्नियों ने पार्वती को आशीर्वाद देते हुए उपदेश दिया कि-हे पार्वती जी! तुम दिन रात अपने पति की सेवा में मग्न रहना। स्त्री के लिये अपने पति के समान कोई नहीं है। हालांकि माता-पिता अपने सन्तान के बड़े शुभचिन्तक होते हैं, किन्तु वह अपनी सन्तान को मुक्ति नहीं दे सकते।
इस संसार में चार वस्तु सुख प्रदान करने वाली हैं- पहला पति, दूसरा धर्म, तीसरी स्त्री और चौथा सन्तोष। इन चारों की परीक्षा आपत्तिकाल में होती है। वेद कहते हैं कि अपना पति चाहे मूर्ख, निर्धन, लंगड़ा, काना, व्यभिचारी, छलिया, कठोर, धूर्त, पाखंडी क्यों न हो, तो भी स्त्री के लिये उचित है। कि वह उसे भगवान श्री सदाशिवजी और भगवान श्री विष्णु के समान प्रसन्न रक्खे। पति की सेवा से ही स्त्रियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो स्त्रियाँ अपने पति की सेवा नहीं करती, वह निःसन्देह नरक भोगती हैं। अतएव स्त्रियों का सब काम छोड़कर पति की सेवा के लिये सदा तैयार रहना चाहिये। मन, कर्म और वचन इन तीनों से पति की सेवा करना ही स्त्री का सबसे बड़ा धर्म है और मोक्ष का मार्ग है।
वेदों में लिखा है स्त्रियां चार प्रकार की होती हैं। १. उत्तम। २. मयम। ३. निष्कृट। ४. अधम ।
उत्तम वह है जो सपने में भी पराये पुरुष का ध्यान नहीं करती। मध्यम वह है जो पराये पुरुष को भाई तथा पिता के समान समझती है। निष्कृट वह है जो पराये पुरुष की ओर खिंची रहती है, मगर धर्म और समाज के विचार से उसकी संगत नहीं करती। अधम वह है जो अपने पति और कुल का भय खाकर पराये पुरुषों की संगत से बचती है, मगर उसका ध्यान नहीं छोड़ती। पतिव्रता स्त्रियों की बड़ी महिमा है। जो स्त्रियाँ अपने पति को भुलाकर पराए पुरुष के साथ व्यभिचार करती हैं। वह घोर नरक की भागी होती हैं और अनेक दुख भोगती हैं, ऐसी स्त्रियां केवल एक क्षण आनन्द के लिये युगों तक नरक में पड़कर दुख भोगती रहती हैं। करोड़ों पाप करने वाली स्त्री भी पतिव्रता धर्म के पुण्य परम पद को प्राप्त करती हैं। जो स्त्रियाँ पति के विरुद्ध चलती हैं, वह अवश्य नरक भोगती हैं और अनेकों जन्म में युवावस्था को प्राप्त होने के साथ ही विधवा हो जाती हैं।
पतिव्रत स्त्री को पति सबसे श्रेष्ठ समझना चाहिये। स्त्री को चाहिये कि पहले अपने पति को भोजन करा कर बाद में आप भोजन करे। पति को सुलाने के बाद आप सोवे। पति के बैठने के बाद आप बैठे, किसी अवस्था में भी पति पर क्रोध न करे। अपने मुख से कभी भी पति का नाम न ले। पति के बुलाने पर फौरन ही उसके पास जाकर उसकी आज्ञा का पालन करे। पति के आदेशानुसार अपने घर का प्रबन्ध करे। बिना पति की आज्ञा के किसी को कोई चीज न दे और पति का झूठा भोजन खावे। नाच गाने की सभा में न जावे और रजस्वली होने पर तीन दिन तक पति को अपना मुख न दिखावे। जब तक ऋतु स्नान न कर ले तब तक पति से कोई बात न करे।
प्रतिदिन स्नान के पश्चात पति का दर्शन करे और पति की आज्ञा के बिना किसी जगह न जावे। सदा वह काम करे जिससे कि पति को प्रसन्नता हो। सुख और दुख में पति से एक जैसा प्रेम रक्खे। घर में किसी वस्तु की कमी होने पर पति से स्पष्ट रूप से न कहे बल्कि कोई ऐसी विधि अपनाए जिससे वह आप जान जाए। यदि तीर्थ यात्रा करने का चाव हो तो पति के चरणों को धोकर उस चरणामृत को पी जावे। क्योंकि पति का चरणामृत भगवान सदाशिव जी और भगवान श्रीविष्णु के चरणामृत से भी उत्तम बताया है। जो स्त्रियाँ अपने पति की आज्ञा के विरुद्ध व्रत आदि का पालन करती है, वह अपने पति की आयु को कम करती हैं। स्त्री को उचित है कि ऊँचे स्थान पर न बैठे। जो स्त्रियाँ अपने पति पर क्रोध कर उल्टा उत्तर देती हैं, वह दूसरे जन्म में गीदड़ी होती हैं।
जिस औरत के क्रोध करने से पति की मृत्यु हो जाती है। वह अगले जन्म में शेरनी होती है। जो स्त्री अपने पति से छिपाकर मिठाई आदि खाती है, वह दूसरे जन्म में मेंढक की योनि में प्राप्त होती हैं। जो स्त्री अपने पति को त्यागकर अन्य पुरुष को कामदृष्टि से देखती है, वह अगले जन्म में कानी तथा कुरूप होती है। स्त्री को चाहिये कि सास, ससुर जेठ, जेठानी आदि बड़ों के सामने कभी ऊँचा न बोले। बाहर से आये हुये अपने पति के आदरपूर्वक चरण धोये। हे पार्वती ! इस प्रकार पतिव्रता नारियाँ लोकों को पवित्र कर देती हैं।
तीनों देवों की प्रार्थना से महर्षि अत्रि की पत्नी अनुसूइया ने शाप द्वारा बारह में से मरे हुये एक ब्राह्मण को जीवित कर दिया था। ब्राह्मण पत्नी ने कहा- हे पार्वती! आप सर्वश्रेष्ठ हैं तथा सबका कल्याण करने वाली हैं। आपके सामने तो इतना केवल लोक प्रचार के लिये कहना पड़ा है।
दसवाँ अध्याय
शिवजी द्वारा विदा होकर कैलाश के लिए रवाना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार की बहुत सी बातें समझा कर मेना ने पार्वती जी के विदा करने का प्रबन्ध आरम्भ कर दिया। वह पार्वती जी को बार-बार हृदय से लगाती थीं और बार-बार भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की सेवा के लिये उपदेश करती थीं, तब पार्वती जी की सखियों ने मेनका को उनसे अलग लिया। फिर पार्वती जी बारी-बारी से हरेक • से मिलती हुई आप रोती हुई और दूसरों को रुलाती हुई चल दी। उस समय मानो, महाराज हिमाचल के परिवार पर वियोग शरीर धारण करके छा गया था। सब पार्वती के रुदन को देखकर व्याकुल हो रहे थे।
हे नारद! उस समय तत्व ज्ञानी पुरोहित ने महाराज हिमाचल से कहा कि शुभ लग्न बीता जा रहा है इसलिये पार्वती जी को शीघ्र विदा करो। तब महाराज हिमाचल ने पार्वती जी को पालकी में बिठाया, उस समय सब स्त्री और मेनका पार्वती को आशीर्वाद देने लगीं। जिन सखियों से पार्वती को अधिक प्रेम था, उनको महाराज हिमाचल ने पार्वती के साथ कर दिया और तोता, मैंना, कोकिला इत्यादि पार्वती के प्यारे पक्षियों को भी महाराज हिमाचल ने पार्वती के साथ कर दिया। उस समय अनेक प्रकार के शुभ शकुन होने लगे और आनन्ददायक बाजे बजने लगे। विदा के समय बहुत सा धन लुटाया गया और महाराज हिमाचल और भगवान सदाशिवजी ने काम करने वालों को धन, दौलत रत्न और हाथी, घोड़े पुरस्कार के रूप में प्रदान किये। हे नारद! जिस समय बारात चलने लगी उस समय महाराज हिमाचल ने अपने पुत्रों के सहित भगवान श्री सदाशिव जी के पास जाकर उनसे प्रार्थना की- प्रभु! आपकी कृपा से मुझे तीनों लोकों में कीर्ति प्राप्त हुई,
आप मेरे समस्त दोष क्षमा कर दें। तब भगवान श्री सदाशिव ने हिमाचल को अपने मीठे वचनों से प्रसन्न करके विदा किया। उस समय विन्ध्याचल ने महाराजा हिमाचल से कहा- भगवान श्री सदाशिवजी से सम्बन्ध करके हम सब श्रेष्ठ हो गये हैं। इसके पश्चात भगवान श्रीसदाशिवजी पार्वती तथा बारीतियों सहित कैलाश के लिये रवाना हो गये।
ग्यारहवाँ अध्याय
शिवजी का अपने महल में आना
श्री ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! भगवान श्री सदाशिव के अपने महल में प्रवेश करने के पश्चात स्त्रियों ने जमा होकर भगवान श्री सदाशिव जी की आरती उतारी। उस समय देवतागण नृत्य व गान करने लगे आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। सब देवताओं को ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ जैसा कि अन्धे को आंखे मिल जाने पर होता है। हम सबने भगवान श्री सदाशिव जी की स्तुति की। लोक रीति के अनुसार भगवान श्री सदाशिवजी ने विष्णु आदि सभी बारातियों को अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन करवाया। हम सब लोग कई दिन तक कैलाश पर रहे। इनके पश्चात भगवान श्री सदाशिवजी से विदा माँगी। भगवान श्री शंकर जी ने मुझसे और विष्णु जी से कहा-हे बह्मा और विष्णु! तुमसे अधिक प्रिय हमें दूसरा कोई नहीं है। तुम्हारे कहने से ही हमने पार्वती से विवाह किया है।
अब तुम लोग अपने लोक को लौट जाओ। तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर श्री सदाशिव जी चुप हो गये। तब मैं और भगवान श्री विष्णु भगवान श्रीसदाशिवजी की जय-जयकार करते हुये अपने-अपने लोक को लौंट आये। हे नारद! यह भगवान श्रीसदाशिवजी के विवाह की कथा को जो कोई पढ़ता या सुनता है, वह सब पापों से छूट जाता है और मोक्ष पद को प्राप्त करता है। यह कथा सब मनोकामनाओं को पूर्ण फल देने वाली है।
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