पाँचवाँ अध्याय
शिवजी की बारात का आगमन
बारात के आगे शिव गण चले। शंखकर्ण करोड़ों गण साथ लेकर चला। कंक ने अपने साथ दस करोड़ गण लिये। विष्टंभ ने दस करोड़ गणों को साथ लिया, विकृत के साथ आठ करोड़ गण थे। विशाख ने चार करोड़ गणों को साथ लिया। पराजित के साथ नौ करोड़ गण थे। सर्वतिक ने साठ करोड़ गण साथ लिये विकृतानन के साथ साठ करोड़ गण साथ थे, दुन्दुभि ने आठ करोड़ गण साथ लिये। कपालक्ष्य के साथ पांच करोड़ गण थे। सन्दराक के साथ एक करोड़ गण थे। कुण्डल ने एक करोड़ गण के साथ लिये और इस प्रकार पिप्पल, महाकेश, चन्द्रतायन, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, काल, कालक, अग्निमुख, आदित्यामूर्धा, घनावट, कुमुद, अमोघ, कोकिल, काक, यादोदर, सन्नातक, महाबल, मधूपिंगल, नीलपूर्णा, भद्र, चतुर्दक, करण, अहिराँमक, यञ्चाक्ष, शतमन्यु, काष्ठागुष्ठा इत्यादि ने अपने-अपने गण साथ लिये।
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार भगवान श्री सदाशिव जी महाराज सर्पों के आभूषणों से भूषित हो, बैल पर सवार होकर, दुल्हा बनकर महाराजा हिमाचल की नगरी को ओर रवाना हुए। चण्डी भगवान सदाशिव की बहिन बनकर सर पर सोने का कलश रखकर सबसे आगे-आगे चल रही थी। अनेकों प्रकार के बाजे बज रहे थे। बारात के मध्य में भगवान श्री विष्णु जी चल रहे थे और उनके साथ-साथ में वेद, पुराणों, सिद्धों तथा प्रजापतियों के साथ चल रहा था।
श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! जब बारात महाराज हिमाचल की राजधानी के समीप पहुँची तो भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने हिमाचल को बारात के आगमन की सूचना देने के लिये तुम्हें उसके पास भेजा जब तुम महाराज हिमाचल के पास पहुँचे तो उसने कहा- देवऋषि ! मेरी ओर से मेनका आदि मेरे पुत्रों को साथ लेकर आप जाइये और बारात को आदरपूर्वक यहाँ से ले आइये। फिर तुमने देवताओं के पास जाकर कहा- हे देवताओं! महाराज हिमाचल ने एक ऐसा विवाह मण्डप बनवाया है कि मैं तो उसको देखकर अपनी सुध-बुध भुला बैठा। उस मण्डप में आप सब देवताओं की जीती जागती मूर्तियों बनी हुई हैं। वह मूर्तियां ऐसी सुन्दर हैं कि कनखल पर असल का धोखा होता है। भगवान सदाशिव बोले- हे देवताओं! क्या बात है? तुम साफ-साफ कह दो कि क्या बात है? क्या महाराज हिमाचल ने मेरे साथ अपनी पुत्री का विवाह करने से इनकार कर दिया है? भगवान श्री सदाशिव जी की बात सुनकर तुमने ( श्री नारद जी ने) उत्तर दिया-प्रभु! विवाह तो आपका पक्का हो चुका है।
महाराज हिमाचल ने मेरे साथ अपने पुत्रों को भेजा है, ताकि वह बारात को आदरपूर्वक अपने साथ ले जायें। इसके पश्चात भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की आज्ञा से बारात ने हिमाचलपुर की ओर प्रस्थान किया। डमरू, शंख, सींग, नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। वेद मन्त्रों की ध्वनि से आकाश गूंज उठा।
छठवाँ अध्याय
हिमाचल के पुत्रों द्वारा बारात का स्वागत करना
श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! जब बारात हिमाचलपुर की सीमा के पास पहुँची तो महाराज हिमाचल पर्वतों को साथ लेकर बारात की आगवानी करने के लिये आयें वह भगवान • श्री सदाशिव जी की बारात देखकर चकित रह गये। उन्होंने तथा उनके बन्धु बाँधवों ने सब देवताओं को नत मस्तक होकर प्रणाम किया। चारों तरफ बड़ा आनन्द छाया हुआ था। महाराज हिमाचल ने समस्त देवताओं के ठहरने के लिये प्रबन्ध किया और अपने घर को वापिस लौट आये। घर आकर उन्होंने वेदी के निकट बैठकर स्नान किया और ब्राह्मणें को दान पुण्य करने के पश्चात अपने पुत्रों को बुलाकर कहा। भगवान शंकर के पास जाकर कहो कि हमारे पिता जी राजा हिमाचल अपने बन्धु-बाँधवों के साथ मिलनी करने के वास्ते आप लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अतः आप बारात लेकर मेरे घर पधारिये। महाराज हिमाचल के पुत्रों ने अपने पिता के कहे अनुसार जाकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की सेवा में निवेदन कर दिया। तब भगवान सदाशिव जी महाराज ने कहा कि अपने पिता से कह दो कि हम शीघ्र ही आ रहे हैं। हे नारद! उस समय मेनका ने तुम्हें बुलाया और कहा- हे नारद जी जिन शिव को तुम पूर्ण ब्रह्म कहते थे और सबसे श्रेष्ठ कहते थे, उन जामाता को देखने के बाद ही मैं सब कार्यवाही करूंगी। इस प्रकार मेनका ने राजमद में मस्त होकर अपने मन में घमण्ड को स्थान दिया। भगवान श्री सदाशिवजी महाराज की परीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की।
भगवान सदाशिव जी महाराज ने जब इस चरित्र को जाना तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुए और विचार करने लगे कि कम बुद्धि वाली स्त्री मेनका ने मेरी पहले भी कई परीक्षा ली हैं, अतएव इसको अभी तक समझ नहीं आई। इसलिये अब की बार मैं कुछ और ही चरित्र करूँ। यह विचार कर भगवान सदाशिवजी ने भगवान विष्णु को अपने पास बुलाकर कहा- हे विष्णु जी ! तुम और ब्रह्मा हमारे परम हितैषी हो और तुमसे एवं ब्रह्मा जी से बढ़कर हमें और कोई प्यारा नहीं है। अब तुम दोनों को हमारी आज्ञा है कि सब देवता अपनी सेना लेकर महाराजा हिमाचल के दरवाजे पर पहुँचो। मैं सबसे पीछे आऊँगा। हे नारद! भगवान श्रीविष्णु ने यह बात हम सबको कह सुनाई। तब हम लोग श्री सदाशिव जी महाराज की इच्छानुसार अलग-अलग होकर चले और महाराजा हिमाचल के महल में प्रविष्ट होने लगे। उस समय बारात की धूम-धाम देखकर मेनका अपने मन में अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं।
उस समय उसकी यह दशा हो रही थी कि जिस देवता को देखती उसको ही पार्वती का पति समझने लगती थी। 'हे नारद! जब मेनका ने गन्धर्वो के राजा बसु को देखा तो उसने तुम से पूछा ।' नारद जी! क्या यही शिव हैं? इस पर तुमने कहा- 'नहीं यह तो उनके गण हैं। इसके पश्चात जब मणिग्रीव नग्नि, यम, निऋतु, वरुण, वायु, कुबेर ईशान, इन्द्र आदि आये तो भी मेनका ने उन्हें देखकर वही प्रश्न किया और तुम हर बार नहीं कहकर उत्तर देते चले गये। तब मेनका ने विचार किया कि जिस शिव के गण इतने सुन्दर है, वह स्वयं कितने सुन्दर होंगे?
सातवाँ अध्याय
मेनका का शिवजी की माया में फँसकर शिवजी के प्रति क्रोधित होना
ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! उस समय मेनका ने भगवान श्री सदाशिव जी एवं पार्वती की प्रशंसा करते हुए तुमसे पूछा-नारद जी! अब शिवजी कब आयेंगे? ठीक उसी समय भगवान श्री सदाशिवजी भी आन पहुँचे। तब तुमने मेनका से कहा- 'लो वह देख लो, वह भगवान सदाशिवजी महाराज हैं। अब मेनका शिव माया से मोहित हो गई और उसकी दृष्टि को धोखा हो गया और भगवान की माया मैं फँस गई। बस मेनका तो भगवान श्री सदाशिव जी को देखने के साथ ही सिहर उठी। उसने देखा कि भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के साथ बहुत से प्रेत हैं और उनके बीच में पाँच मुख वाले, त्रिनेत्रधारी दस भुजा वाले, अंगों में भस्म रमाये, मुण्ड माला पहिने बाघम्बर ओड़े, पिनक्ष धनुष उठाये, त्रिशूल कन्धे पर रख बड़े कुरूप एवं बूढ़े बैल पर चढ़े हुए भगवान श्रीसदाशिव जी महाराज उसे दिखाई दिये। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज का यह स्वरूप देखकर मेनका अत्यन्त भयभीत हो गई। उस समय तुमने कहा- मेनका! भगवान श्री सदाशिव का स्वरूप क्यों नहीं देखती। तुम्हारी बात सुनकर और भगवान श्री सदाशिव का भयंकर रूप देखकर मेनका कटी हुई लता के समान ध ड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी और मूर्छित हो गई।
यह देखकर राजमहल में कोलाहल मच गया। दासियाँ दौड़ी हुई आईं और मेनका को औषधि इत्यादि सुंघाई और उसकी मूर्छा को दूर किया। मूर्छा से जागकर मेनका रोने लगी। उस समय मेनका ने तुमको धिक्कारते हुए कहा- नारद तुम बड़े झूठे, मूर्ख, नास्तिक, बुद्धिहीन और पापों की खान हो। लोग तुम्हें यूं ही भगवान श्री विष्णु का भक्त कहते हैं। तुम मेरी आँखों के सामने से हट जाओ मैं तुम्हें देखना नहीं चाहती। तुमने यह बहुत बुरा किया जो मेरी कन्या को बहका दिया है। तुम्हारे ही कारण से आज शिव भूत प्रेतों की बारात मेरे दरवाजे पर लाया है मेरे और महाराज हिमाचल के जीवन को तो इस शिव ने ही बर्बाद किया है।
भला वह सप्तऋषि और अरुन्धती इस समय कहाँ हैं जिन्होंने कि मेरे पास आकर तरह-तरह की धोखे की बातें की थीं? अब क्या होगा? हे विधाता मैं क्या करूँ ? कौन मुझे इस अपार दुख से छुड़ायेगा ? मेरे जीवन तथा कुल दोनों का नाश हो गया है। अब मैं तो किसी को मुँह दिखाने के योग्य भी नहीं रही। लोग मुझको क्या कहेंगे. कि किसको कन्या दे डाली ? हे विधाता यह क्या हुआ? इसके बाद मेनका ने पार्वती जी को अपने पास बुलाकर कहा- हे पुत्री ! तूने वन में जाकर यह क्या किया जो हंस को त्यागकर कौवे से प्रेम किया? चन्दन को छोड़कर काठ को अपने शरीर से लगाया ? जुगनू के लिये तुमने सूर्य को भुला दिया? गंगाजल को त्यागकर कुएं का जल पिया? तुमने यज्ञ की भस्म को त्यागकर चिता की भस्म को अपना लिया। तूने बड़ी मूर्खता की, जोकि सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, इन्द्रादि सुन्दर देवताओं को छोड़कर नारद की बातों में आकर महाकुरूप शिव के पीछे कठोर तप करके तू मरती रही।
भला मुझे दुख रूपी समुद्र से पार करने वाला कौन है? न जाने यह किस कर्म का फल हमें मिला है कि हमने बड़े प्रेम से पुत्री के लिये तपस्या की। सो उनके बदले में हमें ऐसा दूल्हा प्राप्त हुआ है। हे नारद ! यह कहकर मेनका मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसके पश्चात् चैतन्य होने पर नाना प्रकार से विलाप करती हुई पार्वती जी से कहने लगीं- चाहे मेरे कुल में भले ही दाग लग जाये लेकिन मैं अपने जीते जी तुझे शिव को कभी न दूँगी। हे पार्वती ! मैं तुझे लेकर कुएं में कूद पडूंगी, लेकिन किसी भी अवस्था में तेरा विवाह शिव के साथ न होने दूंगी। महाराज हिमाचल ने बड़ी मूर्खता की जो उन्होंने नारद का विश्वास कर लिया।
यह कहकर रोती हुई मेनका फिर पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देखकर सब लोग अत्यन्त दुखी हुए। मेनका की यह दशा देखकर सारे नगर में उदासी की लहर दौड़ गयी। उस समय बहुत से देवता मेनका के पास पहुँच कर उसे इस तरह समझाने लगे कि तुम यह क्या कर रही हो जो तुम समाज को अशुभ बनाना चाहती है? हे नारद! देवताओं की बात सुनकर मेनका ने उनको जली कटी सुनाकर लौटा दिया। उस समय तुम (देवर्षि नारद जी) ने मेनका से कहा- मेनका! तुम्हारी बुद्धि क्यों नष्ट हो गई है? यह शिवजी परब्रह्म है । अवधूत शरीर को देखकर किसी प्रकार का संशय न । तुम इनके करो और विवाह को प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए
तैयार हो जाओ। तुम्हारी बात सुनकर मेनका ने तुम्हें भी अपने से अलग कर दिया। उस समय अरुन्धती के साथ सप्तऋषियों ने भी आकर मेनका को बहुत समझाया, परन्तु क्रोध में भरी हुई मेनका ने उन सबको बाहर निकाल दिया। इसके पश्चात् मैं स्वयं ( श्री ब्रह्मा जी ) मेनका के पास गया और उसको समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन उसने मुझे भी वहाँ से हटा दिया। इसके बाद महाराज हिमाचल ने मेनका के पास जाकर उसे इस प्रकार से समझाया। मेनका! तीनों लोकों के स्वामी भगवान सदाशिव जी महाराज मेरे दरवाजे पर आये हुए हैं। वेद कहते हैं कि भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के समान दूसरा और कोई नहीं है। एक बार पहिले भी भगवान श्री सदाशिव जी महाराज नट का रूप धारण कर हिमाचलपुर में आये थे। उस समय उन्होंने अपने नृत्य व गान से सब लोगों को मोहित कर लिया था। उस समय मैंने तुमने पार्वती को उनको देना स्वीकार कर लिया था। यह विचार कर, तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करो और संशय व वहम को छोड़कर विधि वत् विवाह संस्कार को पूर्ण करो।
हे नारद! इस प्रकार महाराजा हिमाचल ने मेनका बहुत समझाया, लेकिन मेनका तो उस समय मारे को क्रोध के भड़क रही थी। उसने कहा- चाहे तुम पार्वती को पर्वत से नीचे फेंक दो या समुद्र में फेंक दो, मैं इसका विवाह शिव से कदापि नहीं करूंगी। यह सुनकर पार्वती जी अपने आप ही बोल उठी- हे माता! मैं भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के अतिरिक्त और किसी के साथ विवाह नहीं करुँगी, मुझे उनके अलावा और किसी को पति बनाना स्वीकार नहीं।
पार्वती जी की यह बात सुनकर मेनका की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी और उसने पार्वती जी को पकड़ कर थप्पड़ों से खूब मारा। हे नारद! उस समय तुमने पार्वती जी को मेनका से छुड़ाकर भगा दिया। उस समय भी मेनका का क्रोध ठण्डा नहीं हुआ। तब भगवान श्री विष्णु स्वयं मेनका को समझाने के लिये महाराज हिमाचल के पास पहुँचे।
आठवाँ अध्याय
मेनका को देवताओं द्वारा समझाने पर शिवजी की माया का नष्ट होना
श्री विष्णु जी बोले- हे मेनका! तुम भगवान श्री सदाशिव जी महाराज को पहचानती नहीं हो। वह सबसे बड़े स्वामी हैं, अनादि हैं। पुरुष सनकादिक और मैं (भगवान विष्णु) आदि सब उनके द्वारा उत्पन्न हुए हैं। हमारी प्रार्थना पर वह सगुण रूप धारण करते हैं। इस सृष्टि को भगवान श्री सदाशिव जी का स्वरूप समझो। जिस तरह एक शरीर अनेक प्रकार के वस्त्रों
को पहनता है, उसी प्रकार भगवान सदाशिव जी महाराज को भी समझना चाहिये। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की भक्ति आनन्द को देने वाली है। उन्होंने ही हमारे ऊपर कृपा करके वेद दिये हैं और उन्हीं की कृपा से मुझे यह चक्र मिला है। उनकी ही कृपा की प्राप्ति के लिये ऋषि मुनि उनका ध्यान करते हैं। हे मेनका! तुम्हारे बड़े भाग्य हैं जो भगवान सदाशिव जी महाराज सब लोगों को साथ लेकर तुम्हारे द्वार पर आये हैं। शिवजी की भक्ति के बिना इस संसार को बेकार समझना चाहिये। यज्ञ, तप, योग, दान, वेद-पाठ, मौन धारण इत्यादि सब क्रियायें भक्ति के बिना बेकार ही हैं। तुमने पहले भगवान सदाशिव जी महाराज के अनेकों स्वरूप देख लिये हैं। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज तुम्हारा कल्याण करेंगे। यह सोचकर तुम उठ बैठो और अपने मन से शोक निकाल दो। भगवान सदाशिव तथा पार्वती जी का विवाह बड़ा आनंददायक होगा और तुम्हें तीनों लोकों में यश की प्राप्ति होगी।
यह सुनकर मेनका बोली- हे विष्णु! आपके द्वारा समझाये जाने पर मुझे कुछ शान्ति अवश्य मिली, किन्तु मेरा मन पार्वती का विवाह शिव के साथ करने को नहीं चाहता। इस पर भगवान श्री विष्णु ने कहा- हे ने नारद! तुम भगवान सदाशिव जी महाराज से कहो कि अपनी माया को मेनका पर से हटा लें जिससे कि सब लोगों को आनन्द प्राप्ति हो और सब मंगलकामना करें। भगवान श्रीविष्णु की आज्ञा पाकर तुम भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास पहुँचे। उस समय भगवान श्री विष्णु जी की इच्छा समझकर भगवान श्री सदाशिव जी ने बड़ा सुन्दर रूप धारण कर लिया। यह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवान, अंग-उपांगों से सुन्दर भड़कीले वस्त्र तथा रत्न जड़ित आभूषण धारण किये हुए, सुन्दर कमल से मन्द मुस्कान करते हुए श्वेत वर्ण के शरीर वाले और प्रसन्न चित्त बन हे नारद! सम्पूर्ण विश्व का सौन्दर्य उस समय भगवान सदाशिव जी महाराज के शरीर में इकट्ठा हो गया था।
भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के उस सुन्दर स्वरूप को देखकर तुम अति प्रसन्न हुए और उनकी स्तुति करने लगे। इसके पश्चात भगवान श्री सदाशिव जी चहुँ ओर आनन्द की वर्षा करते हुए देवताओं, सिद्धों, ऋषियों, महर्षियों से घिरे हुए महाराज हिमाचल के मुख्य द्वार पर आ पहुँचे। उधर मेनका भी जिस पर से अब शिव माया दूर हो चुकी थी, आरती सजाकर बहुत सी स्त्रियों के साथ महल से बाहर निकली और भगवान श्री सदाशिव जी महाराज की करोड़ों कामदेव के समान शोभा देखकर उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा, मेनका ने बड़े प्रेम से भगवान की आरती उतारी। मेनका अपने के मुख्य द्वार पर खड़ी होकर भगवान की आरती उतार रही थी
और हिमाचलपुर की स्त्रियाँ जो कि अपने घरों की छत पर बैठी हुई थीं और वह लड़कियाँ जो कि आरती के समय महल के मुख्य द्वार के आस-पास जमा थी, भगवान श्री शंकर जी महाराज की शोभा देख बोली तपस्या के कारण ही पार्वती जी को ऐसे सुन्दर वर की प्राप्ति हुई है। जबकि मेनका ने भगवान की आरती उतारी तो सब स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगीं। पार्वती जी ने अपनी माता से छिपकर भगवान श्री शंकर के सुन्दर स्वरूप को देखा। कुछ देर पश्चात् उनको भगवान श्री सदाशिव जी महाराज का पञ्चमुखी स्वरूप दिखाई दिया। उस रूप को देखकर पार्वती जी ने मन ही मन भगवान श्री सदाशिव को प्रणाम किया। इसके पश्चात् पार्वती जी अपनी माता की आज्ञा एवं प्रथा के अनुसार देव पूजन के लिये महल से बाहर निकलीं।
पार्वती जी जिस समय कुल देवों का पूजन कर रही थीं, भगवान श्री शंकर जी महाराज ने भी क्षण भर के लिये अपनी दृष्टि उनकी ओर घुमाई। उन्हें उस समय गिरिजा जी साक्षात् सती के रूप में दृष्टिगोचर हुई। उन्हें इस प्रकार देखकर, भगवान को सती जी स्मरण हो आईं, वह गद्गद् हो गये, रोमावली खिल गई। कुल देवों का पूजन करके गिरिजा जी ब्राह्मणों की स्त्रियों के साथ वापिस महल के भीतर लौट गई और कुछ आवश्यक रीतियों को पूर्ण करने के पश्चात् बारात जनवासे को लौट गयी।
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