सातवाँ अध्याय
गिरिजा जी द्वारा महाराज हिमाचल से तपस्या की आज्ञा मांगना
हे नारद! जब तुम महामन्त्र का उपदेश करके गिरिजाजी से विदा हो गये तो वह तपस्या का निश्चय करके अपने माता-पिता के पास पहुँची और महाराज हिमाचल से कहा- पिताजी! मैं तप करना चाहती हूँ। तप के द्वारा ही मेरे शरीर, स्वरूप, जन्म-जन्म एवं वंश आदि की सफलता होगी। बिना तप के दूसरा कोई उपाय नहीं है, इसलिये आप मुझे वन में जाने की आज्ञा दीजिये। महाराज हिमाचल ने कहा -पुत्री! मेरी ओर से तुम्हें आज्ञा है और तुम जब चाहो तप के लिये जा सकती हो। लेकिन जाने से पहले तुम्हें अपनी माता से भी पूछ लेना होगा।
तब पार्वती अपनी माता के पास गई और उन पर अपनी इच्छा प्रगट की। पार्वती की बात सुनकर मेनका ने कहा- तुम अपने घर में बैठकर ही तपस्या करो। वन में जाने की क्या आवश्यकता है। वन में जाने की तुम्हारी हठ अच्छी नहीं। वन में सर्प आदि विषैले जन्तु और शेर आदि हिंसक पशु रहते हैं। इसके अतिरिक्त जो तुम भगवान श्री सदाशिव जी से विवाह करना चाहती हो तो वह तो ठीक नहीं है। क्योंकि शिव बैल पर सवारी करने वाले और नशीली वस्तुओं का उपयोग करने वाले, अशुभ शरीर वाले अवधूत स्वरूप हैं। उनकी भक्ति करने से तुमको कुछ प्राप्त नहीं होगा।
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मेनका की बात सुनकर गिरिजा ने कहा- हे माता! ब्रह्मा, विष्णु देवता और ऋषि-महर्षि जिनका ध्यान करते हैं, वह भगवान श्री सदाशिव जी महाराज मेरे हृदय में स्थिर हो गये हैं। यह तीनों युगों से प्रकट होकर अनेकों प्रकार से चरित्र करते हैं अतएव आप मुझे वन में जाकर उनके लिये तपस्या करने की आज्ञा दीजिए।
गिरिजा के विचार को जानकर मेनका अत्यन्त प्रसन्न हुई और उसने प्रसन्नतापूर्वक उनको वन में जाने की आज्ञा दे दी। तब श्री गिरिजा जी माता-पिता की आज्ञा पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और भगवान सदाशिवजी महाराज के गुण गाती हुई अपने माता-पिता तथा सखी सहेलियों को प्रणाम आदि करके तप के लिये चल दीं। उन्होंने जाने से पूर्व अपने समस्त वस्त्र, आभूषण आदि उतार दिये और बलकल मृग चर्म आदि धारण कर लिये। गिरिजा जी के जाने के समय नगर निवासी अत्यन्त व्याकुल हो गये और वन में जाने से रोकने लगे। लेकिन गिरिजा जी ने हर एक को समझा-बुझाकर उन सबको शान्त कर दिया।
इसके पश्चात् वह ब्रह्माणों को प्रणाम करती हुई और भिखारियों को दान देती हुई भगवान सदाशिवजी महाराज का ध्यान करती हुई नगर से बाहर निकल गई। उस समय लोगों ने जय जयकार की और देवताओं ने आकाश से पुष्पों की वर्षा की, दुन्दभी बजने लगी, मंगल गान होने लगा, गिरिजा देवी के बायें अंग फड़कने लगे जिससे उसे विश्वास हो गया कि मुझे भगवान सदाशिवजी महाराज अवश्य प्राप्त होंगे। श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! गिरिजा जी के जाने के पश्चात् उनके माता-पिता, भाई बान्धव आदि उनके वियोग के दुख में बड़े बेचैन हो गये। हिमाचल प्रदेश की मानो शोभा नष्ट हो गई और सब नर-नारी एक दूसरे को देखकर एक दूसरे से भय खाने लगे।
सब लोग दिन रात पार्वती के चरित्र का वर्णन करते रहते थे। जिस प्रकार मछली पानी के बिना व्याकुल हो जाती है, उसी प्रकार पार्वती के बिना हिमाचल की राजधानी बेचैन हो गई। यह दशा देखकर महर्षि वेद शिरा महाराज हिमाचल के पास पहुँचे और सब लोगों को तसल्ली देते हुए कहने लगे- हे हिमाचल! तुम्हारी कन्या आदिशक्ति है, ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि देवता उनका स्मरण किया करते हैं। गिरिजा को तुम्हें भगवान सदाशिव जी की शक्ति समझना चाहिये। उनके वन में जाकर तपस्या करने से तुम दुखी मत होओ। तुम्हारी कन्या उग्र तप द्वारा श्री सदाशिव को प्राप्त करेंगी और तीनों लोकों को आनन्द प्रदान करेंगी। उस समय तुम्हारी कीर्ति की प्रशंसा सब लोग करने लगेंगे। तुम प्रतिक्षण भगवान श्री सदाशिव का स्मरण करो क्योंकि वही हर प्रकार के सुखों के देने वाले हैं। इतना कहकर महर्षि वेदशिरा ने मन ही मन भगवती को नमस्कार किया। फिर अपने स्थान को चले गये।
आठवाँ अध्याय
गिरिजा का शिव प्राप्ति के लिए कठिन तप करना
श्री ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! गिरिजाजी बलकल, मग, चर्म आदि धारण करके श्रृंग तीर्थ में, जो गौरी शिखर के नाम से प्रसिद्ध है, वहाँ पर पहुँची और वहाँ की पृथ्वी को शुद्ध करके वेदी बनाकर अपनी इन्द्रियों को वश में करके मन को एकाग्र कर कठिन तप करना आरम्भ कर दिया। गर्मी के दिनों में वह अपने चारों ओर अग्नि जलाकर और शीतकाल में वह शीतल जल में बैठकर महामन्त्र का जाप करने लगी। हे नारद! गिरिजा देवी ग्रीवा को झुकाए हुए चौंसठ वर्ष तक एक ही आसन पर बैठी रहीं। किन्तु जब इस प्रकार के उग्र तप का उनको कोई फल न मिला तब उन्होंने पहले से भी अधिक कठिन तपस्या करनी आरम्भ कर दी। वह एक सहस्र वर्ष तक केवल वृक्षों की जड़ एवं पत्ते खाकर जीवित रहीं फिर एक सहस्र वर्ष केवल हरी घास व शाक आदि का ही आहार किया और कुछ दिनों तक केवल जल पीकर ही सन्तोष किया।
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार के घोर तप से भी जब उनको सिद्धि प्राप्त न हुई, तब उन्होंने और भी कठिन तपस्या करनी आरम्भ कर दी। कुछ दिनों तक वह इस प्रकार तपस्या करने के पश्चात् प्रेम सहित श्री सदाशिव की मूर्तियाँ बनाकर नाना प्रकार के पुष्पों को गिन-गिन कर भगवान श्री शंकरजी महाराज की मूर्तियों पर चढ़ाने लगी और सब ओर से ध्यान हटाकर दिन-रात भगवान श्रीशंकर के स्मरण में मग्न रहना आरम्भ कर दिया और ब्रह्मा स्वरूप में स्थित हो गई। इस कठिन तपस्या के बीच में उनके सम्मुख नाना प्रकार की कठिनाइयाँ आने लगीं।
भूतों की सेना ने उनको चारों ओर से घोर लिया और वह सब भयानक शब्द करने लगे। उसमें से कोई सिंह के समान, कोई हाथी के समान, कोई बैल के समान, कोई चमगादड़ के समान और कोई भैंसे जैसे मुँह वाला था कोई एक मुँह वाला, कोई बहुत से मुखों वाला था। किसी के शरीर पर रंग काला, किसी का पीला, कोई श्वेत और कोई लाल रंग का था। कोई उछलता था तो कोई गाता-नाचता था, कोई दौड़ता था। इस प्रकार वह सब भूत भयंकर रूप धारण करके गिरिजा के पास आकर उनको डराने लगे। उस समय गिरिजा और भी अधिक भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के ध्यान में मग्न हो गई। गिरिजा के तेज से कोई भूत जल गया, कोई पृथ्वी पर गिर गया, तब वह सबके सब भाग गये। जिस स्थान पर पार्वती जी बैठ कर तप कर रही थीं, वहाँ के समस्त जीवों ने आपस का बैरभाव त्याग दिया। सिंह और मृग, चूहा और बिल्ली, साँप और मोर आपस में इकट्ठे रहने लगे। उस स्थान पर सुन्दर पुष्प खिलने लगे और पक्षी मीठे स्वर में शिवजी का कीर्तन करने लगे। समस्त ऋद्धियाँ-सिद्धिया वहाँ आकर इकट्ठी हो गई।
श्री ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! पार्वती जी के तप के कारण त्रिलोकी तप उठी। देव, दानव, ऋषि, महर्षि यक्ष, गन्धर्व सिद्ध, साख्य, विद्याधर आदि सभी व्याकुल होकर मेरे पास आये और कहने लगे- प्रभु! आपका बनाया हुआ यह ब्रह्माण्ड इस समय कैसा संतप्त हो रहा है। उससे दुखी होकर हम सब आपकी शरण में आये हैं। आप हमें बताईये कि ब्रह्माण्ड क्यों संतप्त हो रहा है? देवताओं के इस प्रकार प्रश्न करने पर मैंने ध्यान लगाकर देखा तो मालूम हुआ कि यह चराचर ब्रह्माण्ड पार्वती जी की कठिन तपस्या के द्वारा सन्तप्त हो रहा है।
इसके पश्चात् मैं और सारे देवता क्षीरसागर में भगवान श्रीविष्णु के पास पहुँचे और उनको नत-मस्तक होकर प्रणाम किया और और फिर स्तुति करके बोले इस समय गिरिजा देवी भगवान श्री सदाशिव महाराज की प्राप्ति के लिये उग्र तप कर रही हैं और उस तप के द्वारा यह चराचर ब्रह्माण्ड तप्त हो रहा है। हम सब अत्यन्त दुखी होकर आपकी शरण में आये हैं। अतएव आप हमारी रक्षा करें। हे नारद! हमारी प्रार्थना सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले-हे देवताओं! मैंने आपके कष्ट को भली भाँति जान लिया है। अतएव इसके लिये हमें भगवान श्री शंकर जी की शरण में जाना चाहिये और उनसे प्रार्थना करनी चाहिये कि वह जगतजननी पार्वती जी के तप से प्रसन्न होकर उसे इच्छित वर देवें और उनके साथ विवाह करके हम सब लोगों का दुःख दूर करें।
भगवान श्रीविष्णुजी की बात सुनकर सब देवता मारे भय के थर-थर काँपने लगे, उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान श्री विष्णु से निवेदन किया- 'प्रभु'! हम भूल कर भी भगवान सदाशिवजी के पास न जायेंगे क्योंकि हम अपने अन्दर उनका क्रोध सहन करने की शक्ति नहीं रखते। वह कामदेव को भस्म कर चुके हैं, कहीं उनके पास जाकर हमारी भी वही दशा न हो।
देवताओं की बात सुनकर भगवान श्री विष्णुजी ने कहा-देवताओं! तुम लोग डरो नहीं, भगवान श्री सदाशिवजी महाराज बड़े दयालु हैं। वह तुमको बिल्कुल नहीं जलायेंगे। मेरी बात पर विश्वास करो। वह तो सबके स्वामी हैं, तुम सब लोग उनकी शरण में पहुँचो वह अवश्य ही तुम्हारी रक्षा करेंगे।
इसके पश्चात् मैं और भगवान श्री विष्णु पार्वती जी के दर्शन करने के पश्चात् भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास पहुँचे। भगवान की शोभा का क्या कहना। उनके मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान था। जटाओं से गंगा की धारा बह रही थी, मस्तक पर त्रिपण्ड लगाये हुये थे और कानों में साँप लटक रहे थे। तीनों लोकों के दुःख का नाश करने वाले भगवान श्री सदाशिव जी महाराज को आसन पर विराजमान देखकर हम सब बार-बार उनके चरणों में प्रणाम करने लगे।
नौवाँ अध्याय
देवताओं की स्तुति पर शिवजी का प्रसन्न होना
देवताओं ने स्तुति करके भगवान सदाशिव जी महाराज को प्रसन्न किया और कहने लगे। प्रभु! आपकी महिमा एवं तेज अपार है। हम लोग किसी प्रकार भी उसका वर्णन नहीं कर सकते। आपकी महिमा को जानकर नारद भी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। आपके पूजन एवं ध्यान से सभी पापियों ने आपके लोक को पाया है। जब तक कोई आपकी तपस्या नहीं करता, उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। आप सबके पिता एवं सबको उत्पन्न करने वाले हैं। आप जड़ तथा चेतन का भेद जानने वाले, संसार में समाए हुये होने पर हम सबसे पृथक हैं। हे परमेश्वर! जगदीश्वर! आप सब लोगों के स्वामी तथा सब लोगों के मुक्तिदाता हैं। माया आपके अधीन है। आप किसी के वश में नहीं हैं। आकाश, पृथ्वी, समीप्य व दूरी सब आप ही हैं, भक्तों पर कृपा करके सगुण रूप भी आप की धारण करते हैं। बहुत से लोग आपके चरणों की नौका बनाकर इस संसार सागर से पार उतर गये हैं। जो लोग अहंकारहीन हैं तथा निर्भय होकर आपका स्मरण करते हैं, वह मोक्षपद को प्राप्त कर लेते हैं।
बिना आपकी भक्ति के आवागमन का यह चक्कर समाप्त नहीं होता। आप उत्पत्ति के समय ब्रह्मा और संहार के समय शिव का रूप धारण कर लेते हैं। आप वेदोक्त कर्म जप-जप ध्यान तथा भक्ति से प्राप्त होने वाले हैं। आपकी महिमा अपार है। इसका कोई वर्णन नहीं कर सकता। आप समस्त देवताओं के स्वामी हैं, इन्द्र और समस्त सृष्टि के कारण स्वरूप हैं। आपका शरीर विद्या और बुद्धि से परिपूर्ण है। आप कालदेव का दमन करके योग में स्थिर रह रहे हैं। आपका ब्रह्मस्वरूप भक्तों के हृदय में स्थिर रहता है। आप काल के भी काल, समस्त सुखों के भण्डार, दयालु और परब्रह्म हैं। तीनों गुणों से भी परे होने पर संसार के कल्याण के लिये अवतार धारण करते हैं। आपका यह अवतारी शरीर केवल हम लोगों का मनोरथ पूरा करने के लिये हुआ है। जो लोग आपके चरणों का ध्यान करते हैं, वह आपको बहुत प्यारे लगते हैं और आप उनके वश में रहते हैं। आपके अगणित अवतारों की महिमा का किसी प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सकता। जो लोग आपकी कथा सुनते और आपके चरित्रों का वर्णन करते हैं, वह आपको बहुत प्यारे हैं। हे प्रभु! देवता, ऋषि और महर्षि, पशु, पक्षी आदि सब जीवों में अवतार लेकर आप भक्तों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार स्तुति करके देवता चुप हो गये।
देवताओं को सहमे हुये एवं भयभीत देखकर भगवान श्री सदाशिव जी ने पूछा- 'देवताओं! तुम लोग यहाँ किस लिये आये हो? और इतने व्याकुल क्यों हो? तब भगवान सदाशिव जी महाराज के वचनों को सुनकर सब देवताओं ने भगवान श्री विष्णु जी की ओर देखा भगवान श्री विष्णु जी ने उनका मतलब समझकर उनसे कहा- आप 'प्रभु! समस्त देवमण्डल तथा सारे संसार को अपने वश में रखने वाले हैं। नारद के उपदेश से गिरिजा देवी उग्र तप कर रही है। अतएव आपको उचित है कि आप उनके पास जाकर उनको मनचाहा वरदान प्रदान करें। जगदीश्वर! हम सब (देवताओं) की इच्छा है कि आप गिरिजा के साथ विवाह कर लें और हम सब लोग आपकी बारत में चलें।
श्री ब्रह्मा जी बोले- 'हे नारद! यह सुनकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने कहा-विवाह करके संसार के जाल में फँसना बुद्धिमानी का काम नहीं। क्योंकि स्त्रियों की संगति से नाना प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। अगर हम आप लोगों का कहना नहीं मानते है तो धर्म तथा शास्त्र की प्रतिष्ठा कम होती है। इसके अधीन होकर हम तुम लोगों का कहा मानने के लिए तैयार हैं।
चाहे इसके लिये हमें कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े। हमने राजा कामरूप की इच्छा से, दैत्य को मारकर उसके सब दुख मिटाये थे और गौतम को भी निरूपाय किया था। देवताओं के जलने पर हमने विष को पी लिया था। और रामचन्द्र के सेवक हनुमान के रूप में भी हमने अनेकों प्रकार के कष्ट उठाये थे। हमारे भक्तों पर जब भी विपत्ति आई है, तब-तब ही हमने अवतार लेकर उनको आनन्द प्रदान किया है। हमने बृहस्पति का अवतार लेकर विश्वामित्र के दुख को दूर किया है, अतएव हम अब तुम्हारा कष्ट मिटाने को भी तैयार हैं। यदि तुम लोगों की यही इच्छा है तो हम गिरिजा के साथ विवाह कर लेंगे। हे देवताओं! तारका द्वारा तुम्हें जो दुख प्राप्त हुआ है, उसे निवारण करने के लिये हम शीघ्र ही गिरिजा के साथ विवाह करेंगे। देवताओं को इस प्रकार तसल्ली देकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज अन्तर्ध्यान हो गये।
दसवाँ अध्याय
शिवजी द्वारा पार्वती की परीक्षा लेना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के वचन सुनकर हम सब लोग प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने स्थान को लौट आये। हमारे आने के पश्चात् भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने पार्वती की परीक्षा के लिए वशिष्ठ आदि सात ऋषियों को बुलाकर उन्होंने यह आदेश दिया कि गौरी शिखर नामक पर्वत पर पार्वती हमें प्राप्त करने के लिये उग्र तप कर रही हैं, अतः तुम लोग छल से उसके पास जाकर उसके प्रेम की परीक्षा लो। हे नारद! भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के वचनों को सुनकर सप्त ऋषि गिरिजा जी के पास जा पहुँचे और उनसे पूछा-हे पार्वती जी! आप हमें बतायें कि आप किसके लिये यह उग्र तप कर रही हैं।
पार्वती जी बोली- हे ऋषि श्रेष्ठों! मैं तो देवऋषि श्री नारदजी के आदेश से भगवान श्री सदाशिव को वर पाने के लिये तपस्या कर रही हूँ। पार्वती जी की बात सुनकर ऋषियों ने हँसकर कहा-हे पार्वती! तुम कपटी नारद के वचनों पर विश्वास करके बड़ी भारी भूल कर रही हो। उसके चरित्र को भला तुम जैसी निष्कपट कुमारी क्या जान सकती है? आज तक उसने किसी का भला नहीं किया। उसने आज तब अनेकों को मरवाया है और अनेकों के घर तबाह किये हैं। उनकी लीलायें हम सबसे सुनो-एक बार दक्ष ने विवाह करके एक सहस्र पुत्र उत्पन्न किये, इस नारद मुनि ने उन सबको बहका दिया जिसके कारण वह वैरागी हो गये और फिर आज तक घर लौटकर वापिस नहीं आये। चित्रकेतु का घर भी उसी ने नष्ट किया है और हिरण्यकशिपु को भी उसी ने मरवाया है, उसने जिस किसी को भी परामर्श दिया, बस वह चौपट हो गया।
अतः हम तुमसे कहते हैं कि तुम उसके बहकावें में न आकर तनिक विचार कर देखो-हे पार्वती! तुम जिस प्रकार का पति चाहती हो वह तो उदासीन, बिना वस्त्रों के, निर्गुण, अशुभ बिना सेवकों के और बिना माता-पिता के है। पहले जब इसी शिव ने दक्ष पुत्री सती के साथ विवाह किया था, तो भला उसको कौन सा सुख दिया था? जान पड़ता है जैसे कि तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो गई है जो कि तुम ऐसे पति की प्राप्ति के लिए तपस्या कर रही हो जो व्यक्ति एकान्त में रहकर सदा ध्यान में मग्न रहता है, वह भला स्त्री के साथ किस प्रकार निर्वाह कर सकता है? हमारे विचार से तो इसी में तुम्हारा
कल्याण है कि तुम अपनी जिद का त्याग कर दो और समस्त देवताओं के स्वामी भगवान श्री विष्णु जी के साथ विवाह कर लो। बैकुण्ठ के स्वामी लक्ष्मी के पति सर्व सुन्दर विष्णु भगवान के साथ तुम्हारा विवाह हम करवा देंगे और तुम हर तरह से सुख पाओगी। भगवान श्रीविष्णुजी भी तुम्हें प्रसन्न रखेंगे।
हे नारद! सप्त ऋषियों की बात सुनकर पार्वती जी ने हंसकर कहा- हे मुनीश्वरगण! जो अपने गुरु के वचन को झूठा समझते हैं, वह कभी आवागमन से मुक्त नहीं हो सकते। कल्पों में भटकते फिरते हैं। मुझे तो अपने गुरु श्री नारदजी पर पूर्ण विश्वास है। विष्णुजी चाहे गुणों की खान हों और भगवान सदाशिव जी महाराज में हजार अवगुण हों लेकिन मुझे तो केवल भगवान सदाशिवजी से ही प्रेम है। भगवान श्री सदाशिव की महिमा अपार है।
वह निर्गुण अवश्य हैं, किन्तु भक्तों के कल्याण के लिये शरीर धारण करते हैं, मैंने देव ऋषि बृन्द! यदि भगवान श्री सदाशिव के साथ मेरा विवाह न भी हुआ तो फिर मैं कुंवारी रहकर ही उनका भजन एवं ध्यान किया करूंगी। संसार के सभी पदार्थ अपना धर्म छोड़ दें। सूर्य पूर्व की बजाय पश्चिम से उदय होने लगे किन्तु मेरी प्रतिज्ञा अटल रहेगी। हे नारद जी! इतना कहकर पार्वती जी चुप हो गई और सप्तऋषि उनके ऐसे वचन सुनकर उनको धन्य धन्य कहने लगे और आशीर्वाद देकर फिर उन्होंने पार्वती जी से कहा- हे भगवती! तुम्हें भगवान श्रीसदाशिवजी अवश्य प्राप्त होंगे।
यह कहकर और पार्वती जी को प्रणाम करके वह ऋषि भगवान श्री सदाशिवजी के पास लौट आये और उनसे पार्वती जी को मनचाहा वरदान देने के लिये कहकर अपने आश्रमों को लौट गये।
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