सातवाँ अध्याय
देवी भगवती का हिमाचल के यहाँ जन्म लेना तथा आठ भुजाओं का रूप धारण करके मेनका को साक्षत दर्शन देना
श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! जन्म के पश्चात् तुरन्त ही देवी सांसारिक कन्याओं के समान हो रुदन करने लगीं। उसके रुदन के शब्द सुनकर नगर की स्त्रियाँ तुरन्त हिमाचल के महल में दौड़ी आईं। हिमाचल अपने यहाँ देवी का अवतार लेने के सम्बन्ध में सुनकर अत्यन्त आनन्दित होकर अपने महल में पहुँचे। उन्होंने बड़ी धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया। उस समय आदिशक्ति ने आठ भुजाओं वाला रूप धारण करके मेनका को साक्षात् दर्शन दिये। उनके सिर पर चन्द्रमा का मुकट था। जो मरकत मणि के समान काँति वाली अपनी आठों भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण इत्यादि धारण किये हुए थीं, जिनके भिन्न-भिन्न अंगों में बाँधे हुए बाजूबंद, हार, कंकण, खनखनाती हुई करधनी और झुनझुन करते नूपुरों से विभूषित थे तथा कानों में रत्न जड़ित कुण्डल झिलमिला रहे थे।
उस समय मेनका ने देवी की स्तुति करते हुए कहा- हे भगवती! आपने बड़ी कृपा की जो मेरे घर में जन्म लिया है। इस समय आपका जो स्वरूप है, वह सदा मेरे मन में स्थित रहेगा। अब आप बाल स्वरूप बनकर मेरे लिए सुख प्रदान कीजिए। यह सुनकर महामाया ने कहा- मैंने यह स्वरूप इसलिये धारण किया है कि तुमको किसी प्रकार की कोई शंका न रहे, क्योंकि वरदान देते समय तुमने मेरा यही स्वरूप देखा था। इतना कहकर देवी ने पुनः बाल रूप धारण कर लिया और रोने लगीं। महाराजा हिमाचल ने विधिपूर्वक देवी का जातकर्म किया। फिर ब्राह्मणों को जी खोलकर दान दिया, याचकों को मुँह माँगी वस्तुएं देकर विदा किया। फिर शुभ मुहूर्त में कन्या का नामकरण संस्कार हुआ। ऋषियों-महर्षियों ने तारा, महाविद्या-काँति आदि अनेकों नाम बताए।
हिमाचल के महल में देवी चाँद के समान बढ़ने लगी। महाराजा हिमाचल के यहाँ और भी सन्तानें थीं, मगर वह सबसे अधिक प्रेम गिरजा से ही करते थे। गिरजा अब साधारण सांसारिक कन्याओं के समान आहार-व्यवहार करने लगी। उन्होंने अपना प्रभाव छिपा लिया। वह अब सहेलियों के साथ खेलती, सखियों के साथ गेंद खेलती, तनिक बड़ी होकर वह कौड़ियों से खेलने लगी और सुरमरी में जाकर जल क्रीड़ा भी करती । संसार प्रथानुसार उन्होंने अब विद्या अध्ययन भी आरम्भ कर दिया था।
आठवाँ अध्याय
गिरजा की सुन्दरता का वर्णन
श्री ब्रह्माजी बोले- 'हे नारद! गिरजा की सुन्दरता का क्या कहना। उनके सौन्दर्य को देखकर चन्द्रमा भी लजा जाता था। गिरजा की आँखें देखकर हिरण बड़े प्रसन्न होते थे। उनकी वाणी सुनकर कोकिलादिक ने अपनी आवाज के अहंकार का त्याग कर दिया था। ऐसा जान पड़ता था जैसे कि मैं ( श्री ब्रह्मा जी) अपनी समस्त कला गिरजा के स्वरूप में डाल दी हो। जब लक्ष्मी को भगवान विष्णु ने समुद्र में से निकाला था, उनकी उपमा भी गिरजा को देते हुए लज्जा अनुभव होती थी। तीन लोक में गिरजा के समान और कोई कन्या सुन्दर नहीं थी। गिरजा के सौन्दर्य के लिये लक्ष्मी, रती और विष्णु भगवान का मोहनी रूप सभी नीचे हैं। उनके सौन्दर्य के साथ किसी की भी तुलना नहीं हो सकती।
नवाँ अध्याय
नारदजी का हिमाचल के महल में जाना तथा गिरजा के भविष्य की जानकारी देना
श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! एक दिन तुम राजा हिमाचल के महल में पहुँचे, वह सब शिव लीला थी और तुम सदाशिव जी महाराज की प्रेरणा से ही वहाँ गये थे। तुम्हारे वहाँ पहुँचने पर महाराज हिमाचल ने यथायोग्य तुम्हारा आदर-सत्कार किया। फिर राजा हिमाचल अपनी कन्या को तुम्हारे पास लाये और उसको तुम्हारे चरणों में डाल दिया। उससे भी तुम्हारे चरणों में प्रणाम कराया और स्वयं भी नतमस्तक होकर तुम्हारे चरणों में प्रणाम करने लगे और कहने लगे- 'ऋषिराज! आप तीनों कालों अर्थात् भूत, वर्तमान तथा भविष्य का हाल जानने वाले हैं। कृपया मेरी कन्या की रेखा देखकर बताइये कि इसका पति कैसा होगा?'
महाराजा हिमाचल के ऐसा कहने पर तुमने गिरजा का हाथ देखा और कहने लगे- 'राजेश्वर! तुम्हारी कन्या की भाग्य रेखा अति उत्तम है। इसका पति योगी, नग्न रहने वाला, निर्गुण, कामवासना रहित, माता-पिता हीन, अभिमान रहित तथा अपवित्र होगा। सदा साधु वेश धारण किये रहेगा।
तुम्हारी यह बात सुनकर हिमाचल और उनकी पत्नी मेनका दुःखी हो गये, लेकिन गिरजा ने तुम्हारी यह बात सुनकर विचार किया कि नारद जी की बात कभी झूठी नहीं होती। यह लक्षण तो भगवान श्री रुद्र के ही हैं। यह सुनकर वह आनन्दित हो गई। महाराज हिमाचल ने तुमसे कहा- 'ऋषिवर! इसके लिये अब क्या उपाय हो सकता है?'
इस पर तुमने उत्तर दिया- राजन्! जो कुछ इस कन्या की रेखा कहती है, वह सब कुछ होकर ही रहेगा लेकिन यह लक्षण भगवान श्री रुद्र से मिलते हैं। श्री रुद्र में जो अशुभ लक्षण हैं, वह भी शुभ ही कहे जाते हैं। अतः तुम अपनी पुत्री का विवाह भगवान रुद्र के साथ ही करो, लेकिन इसमें एक कठिनाई है कि रुद्र भगवान पार्वती पर प्रसन्न किस प्रकार होंगे? इसके लिये पार्वती तप द्वारा उन्हें प्रसन्न करे। इतना कहकर तुम वहाँ से विदा हो गये।
दसवाँ अध्याय
रुद्रदेव की प्राप्ति के लिए हिमाचल का मेनका को अपनी पुत्री के लिए तप के लिए कहना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! भगवान शिवजी की लीला बड़ी अद्भुत है। उनके अधीन तीन लोक हैं। इसलिये तुमको भी चाहिए कि सब शंकादि को त्याग कर उनसे प्रेम करो। कई लोग कहते हैं कि गिरजा का विवाह स्वयंवर की प्रथा के अनुसार हुआ था। किन्तु ऐसा कहना गलत है। कुछ लोगों का कथन है कि सदाशिव जी नग्न रूप में भिखारी के वेश में बैल पर सवार होकर गिरजा से विवाह करने के लिए हिमाचल के द्वार पर आये थे। उस समय शुक्र और शनिदेव भी गुप्त रूप से उनके साथ थे। इस प्रकार उन्होंने सर्वप्रथम महाराज हिमाचल का अहंकार नष्ट किया, उसके पश्चात् कृपा कर बारात चड़ाकर विवाह करने के • लिये आये। आचार्य कहते हैं कि गिरजा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सदाशिव जी ब्याहने के लिये आये और उन्होंने नाना प्रकार की लीलायें की और अनेक तरह के चरित्र दिखाये। इस प्रकार जैसा किसी का विचार होता है और जैसा कोई भगवान सदाशिव जी महाराज से स्नेह करता है, वैसे ही उसको भगवान दिखाई देते हैं।
ऐसी बातों में शंका व संदेह करना उचित नहीं है। सबसे पहले मैं शिवजी के स्वयंवर तथा विवाह का वर्णन करूँगा। अब तनिक ध्यानपूर्वक सुनो जब गिरिजा युवावस्था को प्राप्त हो गई तो एक दिन मेनका ने महाराज हिमाचल के पास जाकर कहा- हे प्राणनाथ! हमारी पुत्री अब युवावस्था को प्राप्त हो गई है, अतः किसी सुन्दर, स्वस्थ व गुणवान युवक को ढूंढिये और उसके साथ इसका विवाह कीजिए। जैसी यह रूपवती तथा गुणवती है, वैसा ही इसके लिए वर तलाश करना चाहिये।
इस पर राजा हिमाचल ने उत्तर दिया- 'प्रिये ! देवर्षि नारद के वचन कभी असत्य नहीं होते। यदि तुमको अपनी प्यारी पुत्री से प्रेम है, तो उसे भगवान रुद्र की प्राप्ति के लिए तप करने को कहो। जब भगवान श्री रुद्र इससे विवाह करना स्वीकार कर लेंगे तो उनके अशुभ लक्षण भी शुभ हो जायेंगे।
महाराजा हिमाचल की यह बात सुनकर मेनका प्रसन्न हो गई, लेकिन श्री सदाशिव जी महाराज के योगी, नग्न रहने वाले, निर्गुण, कामवासनारहित माता-पिता से हीन, अपवित्र एवं साधु वेशधारी होने के सम्बन्ध में विचार कर उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली। मुख से बात न निकल सकी। मेनका की यह दशा देखकर श्री गिरिजा ने माता के मन की बात समझकर उसको धैर्य देते हुए कहा-माता जी ! मैंने आज रात्रि के चौथे पहर में एक विचित्र स्वप्न देखा है। इस स्वप्न में एक तेजस्वी ब्राह्मण के दर्शन हुए थे, उसने प्रसन्न होकर दया दिखाते हुए मुझसे कहा कि तू भगवान रुद्र की प्राप्ति के लिए तप कर। मेनका ने उसी समय पार्वती के स्वप्न के सम्बन्ध में उसके पिता राजा हिमाचल को बताया।
ग्यारहवाँ अध्याय
शंकरजी का हिमाचल प्रदेश में आगमन तथा हिमाचल का उनसे मिलना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इसके कुछ दिन बाद रुद्र भगवान अपने मुख्य गणों के साथ हिमाचल प्रदेश में पधारे और गंगाजी के तट पर एक रमणीक स्थान देखकर आत्मचिंतन करने लगे। उनके आने के संबंध में सुनकर महाराज हिमाचल अपने मन्त्री मण्डल सहित उनकी सेवा में उपस्थित हुए और बड़े प्रेम के साथ उनको प्रणाम करके उनका विधिवत पूजन किया। भगवान ने हँसकर उनसे कहा- हे राजेश्वर! मैं इस प्रदेश में तप करने के विचार से आया हूँ। मैं यहाँ गंगा के तट पर तप करना चाहता हूँ। आप कुछ ऐसा प्रबन्ध कर देवें जिससे कि यहाँ कोई न आवे, जिससे कि मेरी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न न पड़े। महाराज हिमाचल ने हाथ जोड़कर निवेदन किया प्रभु! आप स्वतन्त्र होकर यहाँ तप करें। मैं हर तरह से आपकी सेवा करूँगा। इतना कहकर रुद्र भगवान को नतमस्तक हो महाराज हिमाचल अपनी राजधानी को वापिस लौट आये और मेनका को सारा वृतान्त सुनाया और अपने मन्त्रियों को आदेश दिया कि गंगा तट की ओर जहाँ पर कि रुद्र भगवान आत्मचिंतन कर रहे हैं, वहाँ कोई भी न जाने पावे। यदि कोई जायेगा तो उसे मैं यथायोग्य दण्ड दूँगा।
फिर कुछ दिनों के पश्चात् महाराज हिमाचल पार्वती के साथ पुष्प फल आदि लेकर रुद्र भगवान की सेवा में उपस्थित हुये और गिरिजा को उनके सामने ले जाकर कहने लगे- प्रभु! यह मेरी कन्या पार्वती है। यह आपकी सेवा करना चाहती है। यह नित्य ही आपका पूजन भी करती है। अब मैं इसे आपकी सेवा में लाया हूँ। कृपा करके आप इसे स्वीकार करें। यह सुनकर भगवान शिव ने अपने नेत्र खोले, सामने खड़ी अत्यन्त रूपवती गिरिजा को देखा। फिर उन्होंने हिमाचल से कहा- राजेश्वर ! यह कन्या गुणों तथा रूप की खान प्रतीत होती है। चन्द्रमा के समान रूपवती होने के कारण मैं इसका यहाँ रहना पसन्द नहीं करता क्योंकि इस प्रकार की सुन्दर स्त्रियों के निकट रहने से हमारे जैसे तपस्वियों की तपस्या में विघ्न पड़ सकता है।
भगवान श्रीसदाशिव की बात सुनकर राजा हिमाचल अत्यन्त व्याकुल हो गये, लेकिन पार्वती बिलकुल न घबरायी। उन्होंने कहा- योगेश्वर! जगदीश्वर! कृपा सागर! आपने यहाँ पर एक महान तप करने का विचार किया है, लेकिन मैं आपसे यह पूछना चाहती हूँ कि क्या तप शक्तियुक्त नहीं है? क्या शक्ति सब कर्मों में प्रकृति नहीं मानी गई है? शक्ति से ही चराचर जगत रचना, पालन और संहार हुआ करता है। आप तनिक विचार करें कि यह प्रकृति क्या वस्तु है? और आप कौन है? आप ही कहिये यदि प्रकृति न हो तो यह शरीर और यह स्वरूप किस प्रकार का हो? यदि जीव सदा-सदैव शक्ति का ध्यान पूजन करते रहे तो संसार के कार्य सुगमतापूर्वक चलते रहें।
भगवान श्रीसदाशिव ने गिरिजा के प्रश्न का उत्तर दिया- हे हिमाचल कन्या! मैं तो प्रकृति का तप द्वारा नाश कर चुका हूँ और अब तो मैं तत्व रूप में स्थित हूँ और साधुओं के लिये प्रकृति का संग्रह करना उचित नहीं है। इस सत्य से आप भली-भाँति परिचित हैं। इस पर लौकिक व्यवहार के अनुसार गिरिजा हँस कर बोलीं योगीराज! आप जो कुछ कह रहे हैं, उस पर तनिक विचार कर कहें। मैं आपसे यह पूछना चाहती हूँ कि यदि आप प्रकृति का नाश कर चुके हैं तो आप किस प्रकार विद्यमान हैं? यह सारा जगत तो प्रकृति से बँधा हुआ है ना? और उसी प्रकृति के द्वारा ही इस संसार का समस्त कार्यक्रम चल रहा है। क्या आप प्रकृति को समझ नहीं पा रहे हैं। मैं ही प्रकृति हूँ और आप पुरुष हैं। आप भी मेरी कृपा द्वारा चेष्टावान हैं एवं सगुण हैं। नहीं तो आप किसी कार्य के लिये समर्थ नहीं हैं। हे नारद! श्री गिरिजा के ऐसे वचन सुनकर भगवान श्री सदाशिव ने कहा- हे पार्वती! यदि मैं माया रहित परमेश्वर हूँ तो फिर आप भक्ति प्रेम मैं एवं श्रद्धापूर्वक मेरी सेवा के लिए प्रस्तुत हो जायें।
इतना कहकर भगवान श्री सदाशिव ने महाराज हिमाचल से अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में कहा- राजेश्वर! तुम्हारी कन्या के लिए आज्ञा है कि वह नित्य प्रति आकर मेरे दर्शन कर सकती है। भगवान को प्रसन्न देखकर हिमाचल भी प्रसन्न हो उठे और गिरिजा सहित भगवान सदाशिव के चरणों में प्रणाम करके महलों को वापिस लौट आ उस दिन के पश्चात् गिरिजा जी नित्य प्रति अपनी सखियों को साथ लेकर भगवान सदाशिव के पूजन के लिये जाने लगीं। कभी-कभी वह भगवान के सामने प्रेम रस एवं श्रृंगार रस सम्बन्धी गान भी करने लगती।
अब गिरिजा जी का अधिक समय श्री महेश की सेवा पूजा में ही व्यतीत होने लगा। गिरिजा को इस प्रकार अपनी सेवा में तत्पर देखकर भगवान सदाशिव ने सोचा कि उमा तभी तपस्या कर पायेगी, जबकि इसके भीतर के अहंकार का नाश हो जायेगा और इसको ग्रहण भी उसी समय करूंगा। ऐसा विचार कर सदाशिवजी आत्मचिन्तन में लग गये, मगर उनको एक प्रकार की चिन्ता सी लग गई। वह नित्य प्रति गिरिजा को श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक अपना पूजन करते हुए देखते! इसी बीच में तारकासुर से पीड़ित ऋषिमंडल, इन्द्रादि देवताओं ने मुझसे आकर कहा और मैंने फिर कामदेव को आज्ञा दी। मेरी आज्ञानुसार कामदेव उस स्थान पर गया, जहाँ पर कि भगवान श्री सदाशिव आत्मचिन्तन कर रहे थे, नाना प्रकार की माया फैलाने लगा। लेकिन वह रुद्र भगवान को चलायमान न कर सका बल्कि उल्टे सदाशिव भगवान ने भस्म कर डाला।
बारहवाँ अध्याय
तारकासुर के जन्म का वर्णन
नारद जी ने पूछा- प्रभु! वह देवताओं को कष्ट पहुँचाने वाला तारकासुर कौन था और भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने कामदेव को क्यों भस्म कर डाला था। श्री ब्रह्मा जी बोले इसके सम्बन्ध में तुम पूरी कथा सुनो-महर्षि कश्यप की जो दिती नामक स्त्री थी, उसके गर्भ से दो अत्यन्त बलवान हुए। उनमें से एक का नाम हिरण्यकश्यप था और दूसरे का नाम हिरणाक्ष था। इन दोनों दैत्यों ने अपने बल व पराक्रम से तीनों लोकों को जीत लिया। उनके कारण देवताओं को स्वप्न में भी सुख प्राप्त न होता था। तब भगवान श्री विष्णु महाराज ने अपने भक्तों का दुख हरने के लिये अवतार धारण उन दोनों भाइयों को मार डाला। पहले तो बाराह का रूप धारण करके तथा दूसरे नृसिंह रूप धारण करके समाप्त कर दिया। उस समय देवताओं को बड़ा सुख मिला और उन सबने मिलकर भगवान
श्री विष्णु की स्तुति की। श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर दिती को बड़ा कष्ट पहुँचा। उन्होंने कश्यप जी की सेवा में उपस्थित होकर उनसे सारा समाचार कहा और उनसे सुख देने वाले एक पुत्र की कामना की। महर्षि कश्यप ने दिती से कहा कि वह एक हजार वर्ष तक उग्र तप करे तो उसकी इच्छा पूर्ण हो सकती है। श्री कश्यपजी की आज्ञा पाकर दिती ने उग्र तप करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच में देवराज इन्द्र दिती के पास जाकर उसकी सेवा करने लगे। एक दिन दिती ने देवराज इन्द्र से पूछा- तुम किस प्रयोजन से मेरी सेवा कर रहे हो? देवराज बोले- मैं तुमसे यह वरदान चाहता हूँ कि जिस पुत्र की प्राप्ति के लिए तुम उग्र तप कर रही हो वह भाई के समान हो और सदा सदैव देवताओं की सेवा करता रहे।
इन्द्र की बात सुनकर दिती ने अपने मन में विचार किया कि इन्द्र ने मुझे बुरी तरह से ठग लिया है। इसके पश्चात् वह 'तथास्तु' कहकर दोबारा तपस्या करने लगी। कश्यप की सेवा करने से दिती के गर्भ रह गया। इन्द्र को जब पता चला तो उसने दिती के गर्भ में प्रवेश कर गर्भ स्थित बालक के सात टुकड़े कर दिये, लेकिन सात टुकड़े होने पर भी उसके प्राण न निकल सके। इस पर उसने उस बालक के उनचास टुकड़े कर डाले। फिर भी दिती के तप के प्रभाव से उस बालक की मृत्यु न हो पाई। वह सब बालक मन्दगण नाम से प्रसिद्ध हुए और इन्द्र के भाई होकर देवताओं में गिने गये और शीघ्र ही स्वर्ग को चले गये। इसके पश्चात् दिती फिर महर्षि कश्यप की सेवा में पऊँची और उनको अपनी सेवा द्वारा प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगी।
तब महर्षि कश्यप ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उससे कहा- दिती अब तुम शुद्ध होकर दस हजार वर्ष तक तप करो। तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी और फिर दिती ने महर्षि कश्यप के आदेशानुसार दस सहस्र वर्ष तक तप किया। इस उग्र तप के पूर्ण होने पर इसके गर्भ में एक महा बलवान और तेजवान पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम बज्रांग रखा गया। जब बज्रांग युवावस्था को प्राप्त हुआ तो उसकी माता ने उसको देवताओं से युद्ध करने का आदेश दिया। उसने अपनी माता के आदेशानुसार इन्द्र को बाँध लिया और उसको अपनी माता के सम्मुख ले जाकर लात व घूंसों से खूब मारा। इस पर इन्द्र ने बज्रांग की अधीनता स्वीकार कर ली। उस समय मैं ( श्री ब्रह्माजी) और महर्षि कश्यप ने बजांग के पास जाकर कहा पुत्र! तुम अपने कुल में सूर्य के समान हो अतएव तुम अब इन्द्र को छोड़ दो।
हमारी बात सुनकर ब्रजांग ने कहा- 'मैंने अपनी माता के आदेशानुसार इन्द्र को दण्ड दिया है। अब आप लोगों की आज्ञानुसार इसको छोड़ देता हूँ। मुझे इन्द्रासन से कोई प्रयोजन नहीं है। हे ब्राह्मण! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। इसलिए मुझे आप साररूप तत्व का उपदेश करें। हे नारद! यह सुनकर मैंने उसको सात्विक भाव का उपदेश सुनाया और फिर हम अपने लोक को वापिस लौट आये। बज्रांग अब समुद्र के तट पर उग्र तप करने लगा। इन्द्र के गणों ने बज्रांग के पास जाकर उसकी तपस्या को भंग करने की पर्याप्त चेष्टा की, अतएव वह अपने प्रयत्न में सफल न हो सके। अतएव वह हार मानकर बैठ गये। बज्रांग की तपस्या देखकर मैं उसको वरदान देने के लिये गया और मैंने उससे वर मांगने के लिये कहा-तब उसने कहा- प्रभु! आप मुझे यही वर दीजिये कि मुझमें राक्षसी भाव उत्पन्न न हो और मैं सदा धर्म का पालन करने के लिये तैयार रहूँ और कभी धर्म के कार्य से विमुख न होऊँ।
हे नारद! मैं बज्रांग को मनचाहा वर तथा एक रूपवती स्त्री उत्पन्न करके उसे देकर अपने लोक को वापिस लौट आया। अब बज्रांग ने तो राक्षसी स्वभाव को त्याग दिया, परंतु उसकी स्त्री के हृदय में सात्विक भाव न था। उसने काम भावना लेकर पति की खूब सेवा की। एक दिन सेवा से प्रसन्न होकर बज्रांग ने उससे कहा- प्रिये! कहो तुम क्या चाहती हो?
उसकी पत्नी ने कहा- प्राणनाथ! इन्द्र हमारा बड़ा भारी शत्रु है, वह हमें सदैव कष्ट पहुँचाता रहता है। अतएव आप मुझे त्रिलोकी को जीतने वाला महा पराक्रमी पुत्र दीजिये। इस प्रकार कहकर अपने पति बजांग के चरणों में गिर पड़ी। ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! अपनी स्त्री की बात सुनकर बजांग अत्यन्त दुखी हो गया और विचार करने लगा कि अब मुझे क्या करना उचित है। वह बुरी तरह से धर्मसंकट में फंस गया था। उसने सोचा कि मैं देवताओं से बैर नहीं करना चाहता, लेकिन मेरी स्त्री उनसे प्रतिशोध लेना चाहती है।
यदि मैं स्त्री की इच्छा पूर्ण कर देता हूँ, तो इसका परिणाम बड़ा दुखदाई होगा और जो मनुष्य स्त्री की इच्छा पूर्ण नहीं करता, वह नर्क में जाता है। हे नारद! इस प्रकार बजांग धर्म संकट में पड़कर दुखी होकर उग्र तप करने लगा। उसके उग्र तप से प्रसन्न होकर मैं उसके पास पहुँचा और उसे वर माँगने के लिये कहा- उसने मुझसे यह वरदान माँगा कि मुझे एक बलवान, तेजवान पुत्र की प्राप्ति हो जो कि अपनी माता को सुख देने वाला हो, यह बात सुनकर मैं उसे वर देकर अपने लोक को लौट आया। अब उसने अपनी स्त्री की अभिलाषा पूर्ण की और वह गर्भवती हो गई।
तेरहवाँ अध्याय
तारकासुर का तपस्या करके शंकर जी वरदान प्राप्त करना
हे नारद! बज्रांग की स्त्री को गर्भ धारण करते ही तीनों लोक काँपने लगे और संसार में अनेक प्रकार के उपद्रव होने लगे। बिजलियाँ गिरने लगीं, भूकम्प आने लगे। नदी, सरोवर आदि का जल उछल-उछल कर पर्वतों पर चढ़ने की चेष्टा करने लगा। सूर्य को राहू ने ग्रस लिया। समय पूर्ण होने पर बड़े लम्बे-चौड़े शरीर वाला बालक पैदा हुआ, क्योंकि वह अपने माता-पिता के दुख दूर करने के लिये पैदा हुआ था। इसलिये ऋषियों ने उसका नाम 'तारक' रक्खा। जब तारकासुर कुछ बड़ा हो गया तो उसने अपनी माता से तपस्या करने को आज्ञा माँगी, उसकी माता ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद देकर उसको तपस्या की आज्ञा दे दी।
उसने परिजातिक पर्वत पर जाकर उग्र तप करना आरम्भ कर दिया। पहले सौ वर्ष तक वह दोनों हाथ ऊपर को उठाये और शून्य में दृष्टि जमाये खड़ा रहा। इसके पश्चात् सौ वर्ष तक वह पैर के अँगूठों के बल खड़ा होकर तप करता रहा। वह गर्मियों में अग्नि के ढेरों के बीच में बैठा रहा और सर्दियों में पानी के भीतर पड़ा रहा। उसने खान-पान त्यागकर केवल वायु भक्षण करके उग्र तप किया। सबसे आखिर में उसने शरीर के अंगों को काट-काट कर अग्नि में हवन करना आरम्भ कर दिया। इसकी कठिन तपस्या से तीनों लोक जलने लगे। तीनों लोकों के इस प्रकार जलने से सभी देवता अत्यन्त दुखी होकर मेरे पास आये और मुझसे पूछा कि तीनों लोकों के जलने का क्या कारण है। परन्तु शंकरजी की माया के कारण मैं तीनों लोकों के जलने के कारण को न जान सका, अतः मैं समस्त देवताओं को साथ लेकर भगवान विष्णु की सेवा में उपस्थित हुआ।
परन्तु श्री विष्णु भी शिवजी की माया को न जानते थे। अतः हम सब वहाँ से भगवान शिवजी के पास गये और सारा वृतान्त उनको सुनाया, तब भगवान सदाशिव ने यह बताया कि तारकासुर के कठिन तप के कारण तीनों लोकों की यह दशा हो रही है। क्योंकि वह देवताओं को दुख देने के लिये तपस्या कर रहा है इसलिये हम उसको वरदान देने में संकोच कर रहे हैं। हे नारद! भगवान सदाशिव की बात सुनकर समस्त देवताओं ने उनसे प्रार्थना की।
प्रभु! आप शीघ्रताशीघ्र तारक के पास जाकर उसको वरदान दीजिए। आपके वरदान द्वारा वह हमें इतनी जल्दी न मार सकेगा, जितना कि उसके उग्र तप की अग्नि तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर डालेगी।
यह सुनकर भगवान सदाशिव ने देवताओं से पूछा तुम लोगों में क्या कोई ऐसा नहीं है जो कि तारकासुर की तपस्या भंग कर सके। भगवान शिव की बात सुनकर श्री विष्णु जी ने अहंकार में भरकर कहा निःसंदेह मैं तारकासुर की तपस्या को भंग कर सकता हूँ। इस पर भगवान श्री सदाशिव ने आदेश दिया और विष्णु मोहिनी रूप धारण करके तारकासुर के पास गये। भगवान श्री विष्णु के मोहिनी रूप का कुछ प्रभाव न पड़ा और विष्णु जी वापिस लौट आये। हे नारद! भगवान सदाशिव की माया का ध्यान करो कि कितनी प्रबल है, जो भगवान श्री विष्णु शिवभक्त तारक को चलायमान नहीं कर सके। वह भला भगवान सदाशिव को कैसे जीत सकते हैं।
तब तारकासुर के उग्र तप से प्रसन्न होकर शंकर जी वरदान देने के लिये उसके पास जा पहुँचे और ऊँची आवाज में शंकर जी ने वरदान माँगने के लिए कहा। हे नारद! भगवान श्री सदाशिव के सम्मुख खड़ा होकर तारकासुर ने तुरन्त अपने नेत्र खोले और हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करने लगा। इसके पश्चात् श्रीसदाशिव से यह वरदान माँगा कि आपके चलाये हुए शस्त्र से ही मेरी मृत्यु हो और किसी प्रकार भी मेरी मृत्यु न हो और करोड़ों वर्ष तक मैं इस लोक में राज्य करूँ। भगवान सदाशिवजी यह वरदान देकर अपने लोक को लौट गये।
श्री शिवमहापुराण उमासंहिता (आठवाँ खण्ड) प्रथम अध्याय
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