सातवाँ अध्याय
शिवगणों द्वारा यज्ञ को बुरी तरह नष्ट करना
श्री ब्रह्माजी बोले-हे नारद जी! जब शिवगणों ने दक्ष के यज्ञ को बुरी तरह से नष्ट करना आरम्भ कर दिया तो यह देखकर महर्षि भृगु ने यज्ञ के कुण्ड में आहुतियाँ डाली जिससे अनेकों दैत्यों की सृष्टि हुई जो गिनती में एक हजार थे। इन दैत्यों का नाम ऋभु था। वह ऋभु शिवगणों से युद्ध करने लगे। उन ऋभुओं ने सहस्त्रों शिवगणों को मारकर बुरी तरह से भगा दिया और बीस सहस्त्र के लगभग दैत्य नष्ट हो गये।
जो भागे हुए शिवगण थे, वह सीधे कैलाश पर्वत पर गये और सती जी के भस्म होने तथा अपने बीस सहस्त्र साथियों के मारे जाने का सारा वृतांत उन्हें सुनाया। गणों की बात सुनकर पराक्रमी भगवान सदाशिव जी महाराज के क्रोध का पारावार न रहा। ठीक उसी समय तुम (नारदजी) भी वहाँ पहुँचे और भगवान सदाशिवजी महाराज से यज्ञ की सारी कथा सुनकर कहने लगे
"प्रभु! यदि आपने इन पापियों को दण्ड न दिया तो वेद का मार्ग और धर्म सभी नष्ट हो जायेंगे और इस तरह दधीचि के वह शब्द भी नष्ट हो जायेंगे जो कि उन्होंने सभा में कहे थे कि शिव निन्दक भगवान सदाशिवजी की निन्दा का फल अवश्य भोगेंगे।
भगवान ब्रह्माजी तथा श्रीविष्णुजी भी इन लोगों में सम्मिलित हैं, वरना भला दक्ष की क्या मजाल थी कि वह ऐसा कर सकता। तुम्हारी बात सुनकर भगवान सदाशिवजी महाराज की क्रोधाग्नि पहले की अपेक्षा और भी अधिक भड़क उठी। क्रोध में आकर उन्होंने अपनी एक जटा एक पर्वत से दे मारी। उस जटा के पर्वत पर गिरने के साथ ही एक घोर शब्द हुआ। उस जटा के फिर दो टुकड़े हो गये। एक भाग से महाबली वीरभद्र नामक एक गण उत्पन्न हुआ, दूसरे भाग से अत्यन्त भयंकर तथा करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई। वीरभद्र ने अपने ही समान भयंकर तथा ऊँचे अनगिनत गणों को उत्पन्न किया। वह सबके सब कैलाश पर्वत पर खड़े होकर गरजने लगे और इस प्रकार काली तथा वीरभद्र की सेना कैलाश पर्वत पर खड़ी होकर प्रलय मचाने की प्रतीक्षा करने लगी। वीरभद्र ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान सदाशिवजी महाराज से कहा- "प्रभो! मेरे लिये क्या आज्ञा है। मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ, यदि आज्ञा पाऊँ तो क्षण भर में समुद्र को सोख डालूँ, पर्वतों को पीस डालूँ और देवताओं तथा दैत्यों को भस्म कर डालूँ। आपकी कृपा से मेरे लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं है।
वीरभद्र की बात सुनकर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज किंचित सन्तुष्ट हुए और उसको आशीर्वाद देकर बोले- "हे वीरभद्र! ब्रह्मा का पुत्र अहंकारी दक्ष कनखल में एक यज्ञ कर रहा है। तुम कनखल में जाकर उसको विध्वंस कर दो। वहाँ जो भी व्यक्ति विद्यमान हो उसे उचित दण्ड दो ताकि मेरे भक्तों की वाणी झूठी न होने पावे। उन लोगों को उचित दण्ड देकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आना। वह देवता जो कि महर्षि दधीचि के समझाने पर अभी तक मेरे विरोधी बने बैठे हो, उनको अवश्य ही भस्म कर डालना। दक्ष को उसकी पत्नी तथा बान्धवों सहित अग्नि में जला डालना और तिलांजलि दे आना। शिवजी का आदेश पाकर वीरभद्र और महाकाली अपनी-अपनी सेना को साथ लेकर कनखल की ओर रवाना हो गये।
आठवाँ अध्याय
युद्ध में घायल शिवगणों का कैलाश पर लौटना तथा यज्ञ मण्डप में आकाशवाणी होना
हे नारद जी! उधर जब युद्ध में से शेष बचे हुए शिव गण सती के भस्म होने तथा ऋभु नामक असुरों तथा शिवगणों के बीच युद्ध होने के सम्बन्ध में सूचना देने के लिये कैलाश की ओर रवाना हो गये तो यज्ञ मंडप में निम्न आकाशवाणी हुई। "मूर्ख दक्ष! तूने बड़ा भारी अनर्थ किया है जो अपने घर में आई हुई अपनी पुत्री सती का अपमान किया है। तूने भगवान सदा शिवजी महाराज का आदर भी नहीं किया।
मूर्ख! तुझको सती देवी जी का आदर करना चाहिए था। काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा प्रस्तुत हुई स्कन्ध माता और सती पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती हैं, इसी तरह भगवान श्री सदाशिवजी महाराज सब देवों के स्वामी तथा कल्याण कर्ता हैं। उनके तो दर्शन मात्र से ही सबका फल प्राप्त हो जाता है लेकिन तू ऐसा दुष्ट है कि तूने उनका सत्कार तक नहीं किया, इस कारण तेरा यज्ञ नष्ट हो जायेगा क्योंकि जहाँ पूज्यों की पूजा नहीं होती, वहाँ अमंगल ही होता है। दक्ष! तेरा विचार था कि भगवान श्री सदाशिवजी महाराज की पूजा के बिना ही अपना कल्याण कर लूंगा, यह तेरी भूल थी और अब तेरा सारा अहंकार चूर्ण हो जावेगा, क्योंकि भगवान श्री शिवजी महाराज की विमुखता करके कोई भी देवता तेरी सहायता न कर सकेगा।" हे नारद! इस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता तथा ऋषि आश्चर्य करने लगे और भगवान श्री सदाशिव की माया से किसी के मुख से एक शब्द भी न निकल सका। उधर वीरभद्र की सेना प्रलय के समान कनखल की ओर बढ़ती चली आ रही थी,
अब तुम वीरभद्र की सेना का वृतान्त सुन लो-सेनापति शंखकर्ण के पास एक करोड़ सेना, कैकैय के साथ आठ करोड़ सेना, विकृत के साथ आठ करोड़ सेना, परपात्रंक के साथ नौ करोड़ सेना, सुरमन्तक के साथ नौ करोड़ सेना, विक्रातन के साथ छ: करोड़ सेना, जोलक के साथ बारह करोड़ सेना, दुन्धवी के साथ आठ करोड़ सेना, आवेश के साथ आठ करोड सेना और अम्ल, घण्टाकर्ण, कुकुट, चित्रासन, संवरत इत्यादि सेनापतियों के साथ अनगिनत सैनिक थे। वीरभद्र की सेना के अतिरिक्त कनखल को जाते समय भगवान श्री शंकरजी ने प्रलयाग्नि के समान और भी करोड़ों गणों को उनके साथ कर दिया। वह सब प्रबल गण अत्यन्त कौतुहल के साथ वीरभद्र के पीछे-पीछे चले। उनमें से सहस्त्रों पार्षद तो साक्षात भगवान रुद्र के ही स्वरूप थे। वीरभद्र ऐसे रथ पर सवार था जो कि चार सौ हाथ लम्बा था और जिसमें दस हजार सिंह जुते हुए थे। वीरभद्र की सेना को इस प्रकार चलते देखकर कल्प वृक्षों ने बहुत से फूल बरसाएँ और समस्त गणों ने उसकी स्तुति की। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डामुण्ड मर्दिनी, भद्रकाली, भद्राबलि और वैष्णवी यह नौ दुर्गायें भी अपने भूतगणों के साथ वीरभद्र के साथ हो लीं।
केवल सदाशिव के गण भद्रा, कींट, अशनि और मालकग की सेना ही चौंसठ हजार थीं। बाजों के शोर से कानपड़ा शब्द सुनाई न देता था। सेना के चलने से पृथ्वी हिलने लगी। धूल से अन्धकार छा गया। वह धीरे-धीरे कनखल के पास आ पहुँचे।
नवाँ अध्याय
शिवजी का क्रोध करके वीरभद्र को दक्ष के यहाँ भेजना
इधर वीरभद्र कैलाश पर्वत से अपनी सेना के साथ कनखल की ओर चला। उधर यज्ञशाला में नाना प्रकार के अपशकुन दिखाई देने लगे। आकाश में बिजली चमकने लगी और हड्डियों की वर्षा होने लगी। यह देखकर यज्ञस्थल में बैठे सभी लोग आश्चर्य करने लगे। दक्ष की बाँई आँख, बाँह और बाँई जंघा फड़कने लगी। ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई
हे दक्ष! तू महापापी तथा मूर्ख है, तुझको हजार बार धिक्कार है। तुझे आज भगवान श्री सदाशिवजी द्वारा अत्यन्त दुःख सहना होगा और केवल तेरे ही कारण आज समस्त मण्डल को भी महान दुःख की प्राप्ति होगी। दक्ष पत्नी ने सब लोगों को जो कि सभा में उपस्थित थे, सम्बोधित करके कहा- 'तुम लोगों ने भगवान सदाशिवजी महाराज का अपमान किया है। भगवान शंकरजी की उपेक्षा करने वाला कभी सुख नहीं पा सकता। भगवान शिव प्रलय करने वाले और सृष्टि का संहार करने वाले हैं, अतएव अब उनके कोप से कोई भी न बच सकेगा, महाप्रलय हो जायेगी।'
आकाशवाणी और दक्ष पत्नी की बात सुनकर काँपता, सभा में बैठे सभी लोग मारे भय के थर-थर काँपने लगे और दक्ष तो बेहद दुखी हुआ। वह डरता, हाँपता तथा गिड़गिड़ाता हुआ भगवान विष्णु के पास पहुँचा और उनकी स्तुति करके बोला-प्रभु! आप सब के स्वामी हैं। दीनबन्धु ! इस समय मैं बड़ा भयभीत हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये, मुझे बचाइये।
इतना कहकर दक्ष भगवान श्री विष्णु के चरणों में गिर पड़ा। श्री विष्णु जी ने उसको समझाते हुए उत्तर दिया-हे दक्ष! जहाँ तक सम्भव होगा, मैं आपकी रक्षा करूंगा और तुम्हारे यज्ञ की रक्षा करूँगा लेकिन तुमने संसार को संहार करने वाले भगवान सदाशिवजी से शत्रुता की है अतएव कोई भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता। हम सभी देवताओं को शक्ति उन्हीं से मिली है। और उन्हीं के ध्यान व पूजन से शक्तिशाली है। उनकी समानता की क्षमता किसी में भी नहीं है। यह जो कुछ हो रहा है, सब भगवान की अवज्ञा का फल है। पग-पग पर जो तुम्हारा कार्य विफल हो रहा है, यह सब भगवान शंकर जी की उपेक्षा के कारण है। पूज्यों का अपमान होने से पग-पग पर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। दरिद्रता, मरण तथा भय की प्राप्ति होती है अतएव तब तुम यत्नपूर्वक भगवान शंकर जी का पूजन करो। देखो आज तुम्हारी ही दुनीति के कारण हम घबराये हुए हैं और मारे भय के हम सबके मुख सूख गये, हम सब बड़े-बड़े देवता प्रभावहीन हो गए हैं। श्री ब्रह्माजी ने कहा-नारद! भगवान श्री विष्णु की बात सुनकर दक्ष बड़ा घबराया। ठीक उसी समय वीरभद्र भी यज्ञ में आन पहुँचा। उस समय उसका स्वरूप दिव्य था।
पांच मुख, तीन नेत्र, दस भुजायें, मस्तक पर सुन्दर जटायें और अर्ध चन्द्र, शरीरों पर सांपों के आभूषण, बैल पर सवार, रूद्राक्ष की माला धारण किये हुये, भस्म लगाये, वज्र समान अंग वालें तरह-तरह के हथियार धारण किए हुए, 'शिव-शिव' का उच्चारण कर रहे थे। वीरभद्र के असंख्य साथी सूरवीर दिशाओं सहित आकाश मण्डल में व्याप्त हो गये। सातों द्वीपों सहित पृथ्वी कांप उठी और समस्त समुद्र थर्रा उठे। यह देख दक्ष अपने मुख से रक्त वमन करने लगा और अपनी पत्नी सहित एक बार फिर भगवान श्रीविष्णु के चरणों पर गिरकर बोला-भगवन्! इस समय मेरा सहारा आप ही हैं। यदि आप मेरी रक्षा न करेंगे तो और कौन करेगा। भगवान विष्णु ने उसको समझाते हुये कहा-हम अपनी शक्ति के अनुसार तुम्हारी रक्षा जरूर करेंगे। लेकिन शंकर जी ब्रह्मा स्वरूप हैं, सर्वशक्तिमान और सारे विश्व के स्वामी हैं। उनके कोप से भला जगत में कौन बचा सकता है? जब तुमने अपने अहंकार में भरकर अपनी हानि लाभ के सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचा तो अब हम क्या कर सकते हैं?
जो लोग भगवान को नहीं समझते, सुख और दुख के बारे में किसी प्रकार का विचार नहीं करते, वह सौ करोड़ वर्ष तक नरक में वास करते हैं। जिन भगवान शंकरजी के गुणों को वेद पुराण और शास्त्र नीति कहकर वर्णन करते हैं, तुम उनके निन्दक हो। यह जो शिवगणों का सेनापति वीरभद्र है, इसके सम्बन्ध में शायद तुम नहीं जानते। यह तो शिवजी के शत्रुओं को जड़मूल से नष्ट कर देता है। यह जो इस समय तुम्हारे यहाँ आया है। इसके आने से केवल मुझको ही नहीं बल्कि समस्त देवताओं को दुख उठाना पड़ेगा। मैंने तुम्हें तुम्हारी रक्षा का वचन तो अवश्य दिया है लेकिन मैं अपने अन्दर इसको रोकने की शक्ति नहीं पा रहा हूँ। मेरा सुदर्शन चक्र आज शायद इसका मुकाबला न कर पायेगा। यदि हम लोग यहाँ से भाग भी खड़े होंगे तो भी वीरभद्र अपने प्रभाव से हमें खींच लेगा। हम पाताल में ही क्यों न चले जायें इसके शस्त्र वहाँ पर भी अपना प्रभाव डालने से न रहेंगे।
श्री ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! भगवान विष्णु दक्ष को इस प्रकार समझा रहे थे कि यज्ञ मण्डप को वीरभद्र की सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। उसी समय इन्द्र अपनी सेना को लेकर यहाँ आये और अपना वज्र सम्हाल कर युद्ध के लिये तैयार हो गये। इन्द्र की सहायता के लिए सभी देवता आ गये फिर क्या था, इन्द्र तथा वीरभद्र के बीच में घोर युद्ध होने लगा।
दसवाँ अध्याय
यज्ञ शाला में वीरभद्र तथा इन्द्र में युद्ध होना
श्री ब्रह्माजी बोले-हे नारद! यज्ञशाला में अब वेद मन्त्रों की ध्वनि के बजाय शंख, दुन्दुभी, मृदंग इत्यादि का शब्द गूंजने लगा। दोनों पक्ष अपनी वीरता दिखाने लगे। उसी समय भृगु ने शिवगणों पर उच्चाटन महामन्त्र का प्रयोग किया और वीरभद्र शक्ति से रहित हो गए और इन्द्र की सेना ने उनको व्याकुल कर दिया। सहस्त्रों गण मारे गये व सहस्त्रों भाग खड़े हुए। नारद जी! इसका कारण भगवान शंकर जी का मन्त्र-शक्ति ब्राह्माणों को मौत देना था लेकिन वीरभद्र अपनी सेना को नष्ट होते तथा भागते देखकर क्रोध में भर गये उन्होंने त्रिशूल हाथ में लेकर देवताओं को गिराना आरम्भ किया। उन्होंने थोड़ी सी देर में ही देव सेना के छक्के छुड़ा दिए। कितने ही देवता मारे गए, कितने ही घायल हुए, शेष भाग खड़े हुये। केवल इन्द्र ही रणभूमि में डटा रहा। उसने देवताओं के गुरु बृहस्पति से पूछा-'गुरुदेव! आप देवताओं के रक्षक हैं अतएव आप ही कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे कि हम लोगों को विजय प्राप्त हो? इन्द्र की बात सुनकर श्री बृहस्पति बोले-हे देवराज ! यह जो वीरभद्र शिवगणों का सेनापति है, उसके पराक्रम के सामने कौन ठहर सकता है,
इस बात को प्रत्येक शिवभक्त जानता है। इस समय यह तुम्हारी मूर्खता है जो तुम मुझसे अपनी विजय के सम्बन्ध में। प्रश्न कर रहे हो? उसी समय वीरभद्र ने कहा-हे सभी देवताओं तुम सब के सब मूर्ख हो, जो श्री सदाशिव को यज्ञ का भाग मिले बिना ही अपना भाग लेने आये हो। मैं शंकर जी के आदेशानुसार तुम लोगों को यज्ञ भाग देने आया हूँ। तुम्हें ऐसा यज्ञ भाग दूँगा जिससे कि तुम सर्वदा के लिये तृप्त हो जाओगे। यह कहकर उग्र पराक्रमी वीरभद्र ने अपने तीक्ष्ण बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। जिससे देव सेना में हाहाकार मच गया और वह सबके सब रणभूमि से भाग निकले। भागे हुए देवता भगवान श्रीविष्णु के पास पहुँचे और उनसे सहायता की याचना की। ऋषियों और महर्षियों के कहने पर भगवान श्री विष्णु युद्ध के लिये तैयार हो गये। और अस्त्र-शस्त्र सम्हाल कर वीरभद्र के सामने आकर खड़े हो गये। उनको युद्ध के लिये तत्पर देखकर वीरभद्र ने कहा- “रमापति! आप यहाँ किसलिये आये हैं? आप अपने तेज एवं प्रकाश को क्यों नष्ट करना चाहते हैं? आप दक्ष की रक्षा के लिये क्यों चेष्टा कर रहे हैं? यह आपको शोभा नहीं देता। यदि आप मेरी बात न मानेंगे तो मुझे आपको भी यज्ञ का उचित भाग देना पड़ेगा। भगवान श्री विष्णु बोले-हे वीरभद्र! तुम शिवगण हो और भगवान श्री सदाशिव के तेज से उत्पन्न हुए हो |
मैं इस समय दक्ष प्रजापति की सहायता के लिये आया हूँ, इसका कारण यह है कि दक्ष मेरा भक्त है उसने मेरी बड़ी सेवा की है। भक्तों के अधीन रहने के कारण मैं यहाँ आया हूँ। इसी प्रकार भगवान शिवजी महाराज भी भक्तों की रक्षा करते हैं, अतएव तुम अपनी शक्ति का प्रयोग करो। भगवान विष्णु की बात सुनकर वीरभद्र बड़े जोर से हँसा और कहा-“प्रभु! आप और भगवान शिवजी महाराज एक ही स्वरूप हैं। आप में और उनमें कोई भेद नहीं है। उनकी इच्छा से ही मैं यहाँ आया हूँ। अब आप ही बतलाइये कि मेरा क्या कर्तव्य है?"
वीरभद्र की बातें सुनकर भगवान विष्णु ने कहा ने वीरभद्र! तुम भगवान शिवजी महाराज की आज्ञा का पालन करो और मेरे साथ युद्ध करो। इस युद्ध में तुम्हारी विजय होगी और मैं आहत होकर विष्णुलोक को चला जाऊँगा और तुम विजय को प्राप्त करोगे। और इसके पश्चात् महापराक्रमी वीरभद्र और भगवान श्रीविष्णु के बीच भयानक युद्ध होने लगा। इस भयंकर युद्ध से चहुँ ओर हा-हाकार मच गया। जो देवता रणभूमि छोड़कर भाग गये थे, वह भी लौट आये। इन्द्र भी वापस आ गया और भगवान श्री विष्णु की सहायता करने लगा।
ग्यारहवाँ अध्याय
श्रीविष्णु और वीरभद्र के साथ भयंकर युद्ध होना
ब्रह्मा बोले- हे नारद! भगवान श्रीविष्णु और वीरभद्र के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। अनिल तथा मुनिभद्रा का मोर्चा लगा। यमराज और महाकाल भिड़ गये। गरुड़ के साथ रुण्ड, भृंगी, कुबेर और कुस्माण्डपति इत्यादि सभी दिगपालों के साथ शिवगणों का भयंकर युद्ध होने लगा। इन्द्र ने नन्दी पर वज्र चलाया और इन्द्र पर नन्दी ने त्रिशूल का प्रहार किया। त्रिशूल के प्रहार से इन्द्र बेहोश हो गये। मगर शीघ्र ही उठकर लड़ने लगे। अनिल ने मुनिभद्र पर शक्ति से आघात किया और इन्द्र की शक्ति से घायल हो गया। लेकिन तुरन्त ही उठकर त्रिशूल का प्रहार किया। बड़ी देर तक यह भयानक युद्ध होता रहा। मगर कोई किसी को पराजय न कर सका। यह दशा देखकर भैरव क्रोध में भरकर योगिनियों के साथ देव सेना में प्रविष्ट होकर उनका रक्त पीने लगा। उस समय उनका स्वरूप इतना भयंकर हो गया। कि समस्त देवमण्डल भयभीत हो गया और भागने लगा। देवताओं को भागते देखकर भैरव ने कहा- 'क्यों भागते हो! कुछ वीरता दिखलाओ।' इस प्रकार क्षेत्रपाल ने भी देवसेना में घुसकर देवताओं को अघात पहुँचाया। इसके पश्चात महाकाली देवताओं का भक्षण करने लगी। क्षेत्रपाल और काल ने देवताओं की वह दुर्दशा की कि चहुँ ओर हाहाकार मच गया। देवताओं की दुर्दशा देखकर भगवान विष्णु भी क्रोध में भर गये,
उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र चलाया जिससे कि चारों दिशायें प्रकाशमान हो गई। लेकिन क्षेत्रपाल ने उस चक्र को अपने मुख में ले लिया। तब श्री विष्णु जी ने उसके मुख पर अपनी गदा का प्रहार किया। तब महाकाली विष्णुजी के सामने आई। भगवान विष्णु जी ने उन पर बाणों की वर्षा की। मगर काली जी ने उनके समस्त बाणों को भक्षण कर लिया। इस पर भगवान श्री विष्णु ने क्रोध में भरकर नन्दक नामक अस्त्र का प्रहार किया। मगर महाकाली ने उसे भी तोड़ दिया। तब भगवान विष्णु काली देवी जी से युद्ध बन्द करके भैरव से युद्ध करने लगे। भैरव ने भी क्रोध में भरकर विष्णु के चक्र को काट डाला। विष्णु पर बड़े तीव्र बाणों की वर्षा करी। लेकिन मृत्यु के समान भयंकर बाणों को विष्णु जी अपने पास पहुँचने से पूर्व ही काट डालते और भैरव पर भीषण बाणों की वर्षा करते। भैरव ने भी उनके बाणों को काट डाला, दोनों में महाभयंकर युद्ध हुआ। भैरव ने क्रोध में भरकर खाली न जाने वाले त्रिशूल को तान लिया। यह देखकर वीरभद्र दौड़कर भैरव के पास आये और उन्हें त्रिशूल चलाने से रोककर कहा-यह क्या कर रहे हैं? भगवान श्री सदाशिवजी महाराज की आज्ञा नहीं है।
आप ऐसा न करें। इतना कहकर वीरभद्र स्वयं उनसे युद्ध करने लगा। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से अपने समान कितने ही विष्णुओं को उत्पन्न किया। यह सब विष्णु गरुड़ पर सवार, अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए शिवगणों पर चोट करने लगे। उसकी जबरदस्त मार से शिवगण व्याकुल हो गये। वीरभद्र ने भगवान शंकर का ध्यान करके त्रिशूल चलाया और थोड़ी सी देर में समस्त माया रूपी विष्णु जलकर राख हो गए। तब क्रोध में भरकर श्री विष्णु जी महाराज ने वीरभद्र के मस्तक पर गदा का प्रहार किया और यह इच्छा की कि वीरभद्र को मार डालूँ, मगर वीरभद्र ने अपनी गदा से श्री विष्णु की गदा का वार रोककर अपने आपको बचा लिया और श्री विष्णु के वक्षःस्थल में अपना त्रिशूल दे मारा, जिससे विष्णु मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और चारों तरफ हाहाकार मच गया। लेकिन श्री विष्णु तुरन्त उठ खड़े हुए और क्रोध में भरकर चक्र लेकर उसको मारने के लिए दौड़े। यह देखकर वीरभद्र ने सदाशिव का ध्यान किया। सदाशिवजी महाराज उससे कहा-डरो मत वीरभद्र के अद्भुत तेज से चक्र ने श्री विष्णु जी के हाथ में ही रह गया और वह स्वयं वहीं के वहीं रूके रह गये। उनका स्तम्भन हो गया। यह देखकर याज्ञिकों ने यज्ञमन्त्रों से उनका स्तम्भन छुड़ाया।
फिर विष्णु ने अपना शांर्ग धनुष उठाकर उस पर अपना बाण चढ़ाया। वीरभद्र ने तीन बाण छोड़कर उसके तीन टुकड़े कर दिये। फिर श्री विष्णु ने परमोधन मन्त्र के द्वारा अपनी रक्षा की। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! उस समय मैंने श्रीविष्णु के पास जाकर कहा-प्रभु होनी मिट नहीं सकती, हमारा तथा आपका कोई भी उपाय दक्ष की रक्षा नहीं कर सकता। हम इस युद्ध में विजय नहीं पा सकते, यदि हार गये तो बदनामी होगी। यज्ञ नष्ट हो जायेगा, क्योंकि दधीचि का शाप झूठा नहीं हो सकता। अतः इस समय अवसर के अनुसार कार्य करना चाहिए। जब श्रीसदाशिवजी महाराज का क्रोध शांत हो जायेगा, तब सब कुछ ठीक हो जाएगा क्योंकि आपकी तथा उनकी लीला का कोई पार नहीं पा सकता। मेरी बात सुनकर श्रीविष्णु जी अन्तर्ध्यान होकर अपने लोक को चले गये।
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