श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता पाँचवाँ (युद्ध) खण्ड Part -2
सातवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का शिवजी को सती से विवाह के लिए तैयारी करने को कहना
हे तात! जब आप प्रजापति दक्ष से मिलकर वापिस कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के पास पहुँचे तो फिर आपके तथा भगवान सदाशिव के मध्य किस प्रकार की वार्ता हुई तथा फिर शिवजी ने क्या किया। कुल हाल सविस्तार कहने की कृपा करें। नारद के ऐसे वचन सुनकर श्री ब्रह्मा जी बोले कि हे नारद ! जब मैं शिव के सम्मुख उपस्थित हुआ तो भगवान शंकर विरहाग्नि में रत थे। शिवजी को सती के मिलने में सन्देह था तथा मनुष्य के समान ही अधीर होकर मुझसे सती के बारे में पूछने लगे कि ब्रह्माजी! प्रजापति दक्ष ने क्या निश्चय किया, मुझको उनसे शीघ्र परिचय कराओ। भगवान शंकर के ऐसे वचन सुनकर मैंने कहा कि हे देवों के देव ! आपका कार्य शीघ्र ही सिद्ध होगा, इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है। मेरे वहाँ पहुँचने से पहले ही मेरे पुत्र दक्ष ने आपको अपनी कन्या सती को देने का दृढ संकल्प कर लिया था। दक्ष ने भी सती को आपको दी जाने की बात सुनकर अपने मन में प्रसन्न होकर कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा। जब शिवजी स्वयं ही मेरी कन्या को वरने की इच्छा कर रहे हैं तो मुझको कोई बाधा नहीं है। भगवान शिव जी जब चाहें तभी कोई शुभमुहूर्त देखकर मैं अपनी कन्या को भिक्षा के रूप में दे दूंगा।
अतः हे भक्त वत्सल! आप शुभ लग्न, घड़ी, मुहुर्त विचारक सती के साथ पाणिग्रहण के लिए तैयार होकर प्रजापति के यहाँ चलने के लिए तैयारी कर दो। इस प्रकार मेरे वचन को सुनकर भगवान शंकर हँसकर बोले कि मैं तुम्हारे तथा नारद जी के साथ दक्ष के घर पर चलूँगा। इस विशेष अवसर पर आप अपने मरीच आदि पुत्रों को बुला लीजिये। तब मैंने अपने मरीच आदि पुत्रों को स्मरण किया। वे सब । मेरे मानसिक पुत्र बड़ी तत्परता से मेरे सम्मुख चलने के लिये तैयार होकर उपस्थित हो गये। शिवजी के स्मरण करते ही भगवान विष्णु भी लक्ष्मी सहित अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर आ गये। फिर तो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी रविवार के दिन फाल्गुनी नक्षत्र में शिवजी ने अपनी इस यात्रा का श्री गणेश किया। मैं विष्णु तथा सभी देवता, ऋषि गण मेरे साथ चलने के लिये तैयार हो गये। इस प्रकार शिवजी की बारात की अत्यन्त शोभा हुई। शिवगण तथा देवताओं ने उस समय बहुत बड़ा उत्सव किया।
शिवजी की इच्छा से हाथी, नन्दीश्वर, सर्प, चन्द्रकला, व्याघ्र आदि सब शिवजी के आभूषण बनकर सुशोभित हो गये। फिर श्री सदाशिव अपने वाहन नन्दीश्वर पर आरूढ़ होकर चलने को उद्यत हुए। हमारा ये सब समाज प्रजापति दक्ष के सामने जा पहुँचा। फिर दक्ष मुझसे बोला कि आप विवाह सम्बन्धी सभी कार्य सम्पन्न कीजिये। मैंने कहा ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर कार्य सम्पन्न करने लगा। शुभ नक्षत्र में दक्ष ने अपनी कन्या सती का कन्यादान किया। शिवजी ने सर्वांग सुन्दरी दक्ष पुत्री के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया। इस अवसर पर सभी देवता प्रसन्नचित्त हुए। दक्ष भी बहुत हर्ष को प्राप्त हुआ और मंगलाचार हुआ।
मेरी आज्ञा से भगवान शंकर को सती के साथ अग्नि की सात परिक्रमा के लिए मैंने उनसे कहा तथा हवन के लिए उन दोनों को सामने बैठा लिया। भगवान सदाशिव की माया के वशीभूत होकर तथा कामांध होकर मुझे विकार दृष्टि से सती का मुख देखने की लालसा हो गई। सती का मुख देखने के लिये उपाय सोचने लगा। तभी मैंने यज्ञ में गीली लकड़ी डालकर तथा घृत डाल दिया जिससे वहाँ पर धुँआ इकट्ठा होने लगा। जब अधिक धुँआ हुआ तो मैंने उस बीच में सती का मुख उघाड़कर देखा, सती के अपूर्व सौन्दर्य को देखकर मेरा मन विचलित हो गया। उसी समय मेरे वीर्य की चार बूँद स्खलित होकर गिर पड़ी तथा मैं उसको छुपाने की चेष्टा करने लगा परन्तु अन्तर्यामी शिव जी से यह कृत्य छुप न सका तथा इस कुकृत्य को देखकर शिवजी अत्यन्त क्रोधित होकर कहने लगे कि हे ब्रह्मा! तू बहुत पापी है, तूने काम के वशीभूत होकर ऐसा कुकृत्य किया है। तू क्या समझ रहा था कि मैं तेरे इस कुकृत्य को न देख सकूँगा। अरे मुझसे इस वृहद संसार में कोई भी वस्तु छुपी नहीं है। मैं उसी प्रकार सारे संसार में व्याप्त हूँ जिस तरह तिलों में तेल रहता है। तूने ये बहुत बड़ा पाप किया है। इसलिए मैं तुझको दण्ड दूंगा। मैं तेरी हत्या करूंगा। शिव ने क्रोध के साथ ब्रह्मा को मारने के लिए अपना त्रिशूल उठा लिया।
ऐसे दृश्य को देखकर सभी देवता बड़े भयभीत हुए तथा भगवान शिवजी की स्तुति करने लगे। भगवान विष्णु भी स्तुति करके कहने लगे कि हे देवाधिदेव ! क्रोध शान्त कर मेरे कथन को सुनो। आप, मैं तथा ब्रह्मा कोई अलग नहीं हैं। हम सब आपका ही भिन्न रूप हैं। आप सब कुछ जानते हैं फिर क्रोध को न करके अपने इस भिन्न स्वरूप को नष्ट मत करो। आपकी माया के वशीभूत होकर ब्रह्मा ने यह कृत्य किया है। अतः जगदीश्वर यह क्षमा योग्य है, आप क्षमा दान दो। विष्णु ऐसा कहकर शिव स्तोत्र की स्तुति को करने लगे। विष्णु जी के ऐसे वचन सुनकर तथा सभी देवतादि तथा प्रजापति दक्ष द्वारा क्षमा की प्रार्थना करने पर अपना क्रोध भगवान शंकर ने शान्त किया। तथा मुझको मारने से छोड़ दिया। इसके बाद वहाँ पर सभी विवाह के कार्य मैंने ही सम्पन्न कराये तथा सभी अत्यन्त प्रसन्न होकर मंगलाचार आदि रीति होने लगी।
आठवाँ अध्याय
ब्रह्माजी का सती का रूप देखकर मोहित होने पर शिवजी का क्रोधित हो उन्हे दण्ड देना
नारद जी ने श्री ब्रह्माजी से पूछा कि हे प्रभु ! फिर इसके आगे की कथा किस प्रकार है, सब मुझको सुनाइये जिससे मेरे कर्ण प्रिय नहीं बल्कि हृदयस्पर्शी भी हो तथा इस संसाररूपी भवसागर से पार कर परम पद को दिलाने वाली हो तब ब्रह्मा जी ने कहा - हे नारद आगे की कथा इस प्रकार है कि जब श्री शंकर भगवान ने मेरा वध नहीं किया तो सभी देवता प्रसन्न हो गये तथा भगवान शंकर की जय-जयकार करते हुए भगवान शंकर की स्तुति करने लगे। तब शंकर भगवान ने प्रसन्न होकर मुझसे कहा कि हे ब्रह्मा ! अब निर्भय होकर मेरी आज्ञा से अपना मस्तक स्पर्श करो। मैंने अपना मस्तक छूकर उनको प्रणाम किया। शिवजी मेरे मस्तक पर जा बैठे। इन्द्रादि देवताओं को देखकर मैं लज्जित हो गया। फिर तो मैंने शिवजी की स्तुति की तथा इस पाप का प्रायश्चित पूछा। शिवजी बोले इस समय मैंने तुम्हारा रूप कर दिया है, उसी रूप से तपस्या करो। रुद्र सिर से जो तुम्हारी इस पृथ्वी में ख्याति होगी और तुमसे तेजस्वी ब्राह्मणों के कार्य सिद्ध होंगे। तुमने अपना वीर्यपात कर मनुष्यों जैसा कार्य किया है।
अतः तुम मनुष्य बनकर पृथ्वी पर विचरण करो, जो लोग तुमको इस रूप में देख यही कहेंगे कि शिव ब्रह्मा के ऊपर बैठे है। इससे लोग परस्त्री गमन भी न करेंगे और जो चार बूँदे तुम्हारे वीर्य की पृथ्वी पर गिर पड़ी हैं, उन चारों बूँदों से चार मेघ पैदा होंगे जो कि आकाश में प्रलयकारी होंगे। जिनके नाम सम्वर्त, आवर्त्तक, पुस्कर तथा द्रोण होंगे। ऋषियों को देखते ही वे मेघ बनकर आकाश में विचरण करने लगे। तब भगवान शंकर तथा सती शांत हुए। तब भगवान शंकर की आज्ञा से मैंने विवाह का शेष कार्य पूर्ण कराया। देवताओं तथा ऋषि-मुनियों ने शंकर तथा सती पर फूलों की वर्षा की। उस उत्सव में प्रसन्न होकर मुझसे शंकर जी ने कहा कि हे तात! तुमने इस समय विवाह संस्कार अति उत्तम कराया है, सो इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम कोई भी वर माँग लो। तब मैंने शिवजी से कहा कि हे भगवान ! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तथा वर देना चाहते हैं तो आप इसी यज्ञ वेदी पर इसी रूप में सती सहित निवास कीजिये। मैं भी इसी वेदी के पास ही लोकार्थ तप करूंगा। ऐसे पवन सुनकर भगवान शंकर ने कहा- हे ब्रह्मा जी! तुमने लोक कल्याण हेतु मुझसे यह वर माँगा है, इससे मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ।
मैं सती सहित यहीं पर सर्वदा निवास करूंगा। यह कहकर फिर भगवान सदाशिव ने दक्ष से भी सती सहित विदा माँगी। तब सहर्ष ही दक्ष ने प्रसन्नचित्त शिव को विदा की अनुमति दे दी। सदाशिव विदा होकर कैलासधाम पर पहुँचे। वहाँ पर पहुँचकर उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों आदि को विदा किया। सब विदा होकर अपने-अपने धाम को चले गये। शिवजी प्रसन्नचित्त होकर हिमालय पर विहार करने लगे। शम्भू के सती के साथ होने वाला विवाह मैंने तुम्हें सुनाया है, जो इस आख्यान को विवाह पूर्व वेदी पर बैठकर इसको सुनेंगे, उनके सभी कार्य बिना बाधा के सम्पन्न होंगे। कन्यायें इसको सुनकर अति सुख का अनुभव करेंगी तथा सौभाग्य पूर्ण तथा शील, साध्वी गुणों से युक्त तथा पुत्रवती होंगी।
नवाँ अध्याय
शिवजी का सती के साथ कैलाश पर विहार करना
नारद जी बोले कि हे पितामह ! जो अभी सती का आख्यान सुनाया है इसमें शिवजी के विवाह को मैंने भली भाँति सुना है। इससे आगे शिवजी के मंगल करने वाले चरित्रों का वर्णन कीजिये। तब ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! सती ने कैलाशधाम पहुँचकर गणों को आज्ञा दे दी कि तुम सब आश्रम से दूर पहुँचकर निवास करो। जब मैं स्मरण करूं तो आ जाना। नन्दी आदि गण अपने स्थान पर चले गये। तब एकान्त पाकर शिवजी सती के साथ रमण करने लगे। कभी शंकर जी सती को फूलों की माला पहनाते तो कभी जब सती दर्पण में अपना मुख देख रही होती, उस समय चुपके से पीछे से आकर सती के मना करने पर भी सती के कुण्डलों को हाथ लगा देते।
इस प्रकार शंकर जी कभी सती से दूर न जाते तथा इधर-उधर ही चुपके से आकर सती के साथ क्रीड़ा करते। प्रीति सहित सती का आलिंगन करते। कभी उनका हार उठा लेते तो कभी बाजूबन्द। इस प्रकार बार-बार स्पर्श पहिनाते निकालते। कालका नाम की दासी को आगे-आगे चलाकर सती जब उनके पीछे चलती तो उनके बड़े-बड़े कुचों को पकड़ लेते। कभी रमणीय कुंजों में जाकर सती के साथ विहार करते सती के बिना शंकर जी को एक क्षण के लिये भी सुख नहीं मिलता था। इस प्रकार सती के साथ विहार करते हुए शिवजी को पच्चीस वर्ष कैलाशधाम में व्यतीत हो गये।
ब्रह्मा जी बोले- हे नारद जी! एक दिन वर्षा ऋतु में जब वर्षा हो रही थी तो शिवजी तथा सती एक पर्वत शिखर पर बैठकर आनन्द को प्राप्त हो विहार कर रहे थे, उसी समय सती ने शंकर जी से कहा- हे प्राण बल्लभ ! इस वर्षा ऋतु के आरम्भ होने के कारण किसी सुरक्षित स्थान पर चलिये। जिससे यह वर्षाकाल का समय आनन्दमय व्यतीत हो जावे। इस बात को सुनकर जगहर्ता श्री शंकर जी बोले कि हे प्रिये! तुम्हारा यह कथन है कि वर्षाकाल आरम्भ हो गया है। अगर तुम कैलास पर विश्राम करना चाहो तो वहाँ चलें अथवा हिमालय इस समय सर्वश्रेष्ठ शिखर है, वहाँ पर मेघ हिमालय के कदमों अथवा नितम्बों तक ही विचरण करते हैं। अतः श्रेष्ठ शिखर पर हम अपना आश्रम बनाकर अपना समय व्यतीत कर सकते हैं। हिमालय की श्रेष्ठता इस संसार में अद्वितीय है।
कैलाशधाम इस मेघ के उच्छृंखल प्रवृत्ति से नितान्त दूर है। इस पर सती ने कहा कि वहीं ठीक है। सती की बात को सुनकर तथा सहमति को जानकर शंकर भगवान कैलाशधाम में हिमालय पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर रहकर सती के साथ विहार करने लगे। शंकर जी सती के साथ अनेकानेक क्रीड़ा करते तथा कभी सामने बिठाकर अधिक समय तक सती का मुख देखते रहते। इस प्रकार सती के साथ रहकर भगवान शंकर ने कैलाश पर दस हजार वर्ष व्यतीत किये। इतने समय एक दूसरे के प्रेम-भावों को जानकर आपस में अनुराग उत्पन्न किया। इस प्रकार शंकर भगवान जप, तप, यज्ञ त्यागकर सती के प्रेम में अनुरक्त हो गये।
ब्रह्माजी ने नारद से कहा कि एक दिन सती ने भगवान शंकर से इस प्रकार कहा कि हे प्राण वल्लभ ! मैं आपकी निर्विकार प्रिया हूँ। आपको मैंने कठिन उग्र तप करके प्राप्त किया है तथा आपके साथ क्रीड़ा विहार करके मैं अत्यन्त प्रसन्नचित्त हूँ। अतः अब मेरा मन इन सबको छोड़कर तत्वों की ओर उन्मुख होना चाहता है। हे त्रिलोचन! यह सांसारिक जीव इस संसाररूपी भवसागर को पारकर आपके परम पद को किस प्रकार प्राप्त करता है, वह सब मुझको सुनाइये जिससे मेरे हृदय को प्रसन्नता हो। सती की इस बात को सुनकर शंकर जी हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा सती से इस प्रकार कहने लगे कि हे प्रिये! तुमने संसार के जीवों के मोक्ष के लिए जो प्रसंग किया है, वह अति उत्तम है। हे महेश्वरी! चिंतन ही परम तत्व है। दूसरा तत्व ब्रह्मा स्मरण है। इन तत्वों के अलावा इस सांसारिक जीव के उद्धार के लिये वही है। इन दो तत्वों को कोई विरला ही जानता है। ऐसा कोई भी त्रिलोकी में नहीं है। यदि है तो मैं उसका दास हूँ। परन्तु मैं तुमको बतलाता हूँ कि ब्रह्मा तत्व से परे हैं। भक्ति ही विज्ञान की जन्मदाता अथवा माता है। भक्ति का विरोध करने वाला कभी भी विज्ञान की श्रेष्ठता को नहीं पा सकता है। मैं उसी भक्ति के वश में हूँ। भक्ति भी दो प्रकार की होती है। सगुण भक्ति तथा निर्गुण भक्ति। इसमें दोनों ही भक्ति श्रेष्ठ है। इन दोनों भक्ति के भी भेद हैं। इन दोनों को छह भक्ति में विभक्त किया है तथा उन छह को भी विद्वान तथा शास्त्रों ने अनेक भेदों में विभक्त किया है।
उनमें जो भक्ति के अंगों का वर्णन मैं तुमको कहता हूँ, ध्यान पूर्वक सुनो। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्यभाव, अर्चना, वन्दना, संख्यता और आत्मसमर्पण है। इस भक्ति की सभी युगों में विशेषता है। परन्तु अधिक फलदायक यह कलियुग में ही होती है। इसकी प्रत्यक्षता से ही मैं इसके वश में हूँ। संसार में जो मेरी भक्ति करता है, मैं सदैव ही उसकी सहायता करता हूँ। उसको अनेकानेक विघ्नों का अन्त करके शत्रुओं का विनाश करता हूँ। इसलिये ही मैंने अपने तीसरे नेत्र से काम को भी भस्म कर दिया था। भक्ति के लिये ही मैंने रावण का त्याग कर दिया था। रावण का कुछ भी पक्षपात नहीं किया। इस भक्ति के कारण ही मैंने नन्दीश्वर से व्यास कान्ति से बाहर दण्ड दिलवा दिया था। इससे अधिक में तुमको क्या उपमा दूं।
मैं पूर्णतः भक्ति करने वाले भक्त के वश में हूँ। एक बार तो होनी को भी वश में होने के कारण मैं उसको टाल देता हूँ। भक्ति की ऐसी अपार महिमा को सुनकर दक्ष पुत्री सती अत्यन्त ही प्रसन्न हुई तथा शिवजी को भक्तिपूर्वक सती प्रणाम किया। इसके बाद सती ने शंकर भगवान से पृथ्वी लोक में जीवों के उद्धार की बात पूछी। जप, तप, यज्ञ, शास्त्र इत्यादि की महिमा का ज्ञान श्रवण किया। ज्योतिष शास्त्र, सामुदायिक शास्त्र, वेद वेदान्त के भेद भी ग्रहण किये। इस प्रकार सती को अनेकानेक तत्वों की महिमा का ज्ञान कराया जिससे सती अत्यन्त ही प्रसन्न हुई। इस प्रकार अनेक जगहों पर विहार करते हुए शिव तथा पार्वती विचरण करते थे।
दसवाँ अध्याय
दक्ष का शिवजी को शाप देना नन्दीकण का दक्ष को शाप देना
नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा कि पितामह! आगे का विषद वर्णन भी मुझको सुनाइये। इस पर ब्रह्माजी कहने लगे कि इस प्रकार सती को शंकर भगवान के साथ विहार करते हुए बहुत काल व्यतीत हो गया तो सहसा ही सती अपने मन में वियोग होने की अनुभूति का अनुभव करने लगी। परन्तु भगवान शंकर तो शब्द रूप से भी भिन्न नहीं है तो भला वियोग सती को कैसे हो गया। परन्तु सती अनुभव कर ऐसा समझने लगी कि भगवान शंकर ने मुझको त्याग दिया है। उन्होंने अपने पिता के यहाँ शंकर जी का अपमान होते देख अपना शरीर त्याग दिया। वही सती ने हिमालय के घर में पार्वती के नाम से जन्म लिया तथा कठिन तप कर शिवजी को पुनः प्राप्त किया। सूतजी कहते है कि जब ब्रह्माजी ने सती की इस प्रकार कथा कही तो नारद जी ने और भी दृढ़तापूर्वक सती की महिमा का वर्णन सुनने के लिये अपनी इच्छा प्रकट की। साथ ही अपनी शंका प्रकट की कि भगवान शंकर जी के चरित्रों को जानने वाले दक्ष ने उनका अपमान क्यों किया। कृपया आप सारी कथा विस्तारपूर्वक मुझे सुनाइये।
ब्रह्माजी बोले हे नारद! यह सब कुछ भगवान सदाशिव की माया के वशीभूत ही हुआ। जिनका ध्यान मैं भगवान विष्णु तथा अन्य देवतागण करते हैं, सुनो- मँ दक्ष के शिव विरोध की कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ।
एक बार प्रयागराज प्रजापतियों के स्वामी दक्ष ने एक महान यज्ञ किया जिसमें कि मैं सपरिवार सम्मिलित था। अपने-अपने परिवार सहित अन्य देवतागण भी उपस्थित थे। सबने भक्तिपूर्वक उनको प्रणाम किया, तथा उनकी स्तुति की। संयोगवश दक्ष प्रजापति भी वहाँ पर आये। उन्होंने आकर मुझे प्रणाम किया तथा मेरे संकेत पर ही वे अपने आसन पर बैठ गये। सब देवताओं ने भी उसका यथावत पूजन किया। लेकिन लीलाधारी महेश्वर अपने आसन पर बैठे ही रहे। इससे प्रजापति दक्ष को बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। उन्होंने गरज कर कहा- हे ब्राह्मणों और देवताओं! ब्रह्माजी मेरे पिता हैं। उन्होंने मेरा सम्मान नहीं किया, ठीक है लेकिन यह शिव मूर्ख तथा अहंकारी है तभी तो इसने उठकर मेरी स्तुति नहीं की है, इसने वेद मार्ग का त्याग कर दिया है। मुझ प्रजापति का अपमान किया है। इसलिये मैं इसे बुद्धिहीन, प्रेतों का स्वामी, माता-पिता विहीन, पाप-पुंज घमण्डी तथा अन्य अशुभ कर्म करने वाला मानता हूँ। वेद शास्त्रों में बुद्धिमान तथा शक्तिशालियों का विधान है कि ऐसे मूर्ख तथा अज्ञानी, अहंकारी, नीच जीव को दण्ड देवे। अतः मैं इसे शाप देता हूँ और इसे इस यज्ञ समाज से बहिष्कृत करता हूँ। आज से यह देवताओं के साथ यज्ञ में भाग न ले सकेगा।
सूत जी महाराज कहने लगे कि ब्रह्मा जी नारद जी से बोले कि हे नारद! इस शाप को सुनकर भगवान सदाशिव तो शान्त ही बैठे रहे। लेकिन उनके गण शान्त न रह सके। उनमें से नन्दी नाम के गण की आँखों में क्रोध की लालियाँ छा गई, साथ ही वह गरजकर कहने लगा कि हे प्रजापति दक्ष! तुम मूर्ख एवं अज्ञानी हो, झूठा अभिमान करते हो। जिनके आदि अन्त मध्य का पारावार नहीं है, जो निर्गुण निराकार है, सर्वव्यापी है, रोम-रोम में बसने वाले हैं, सभी देवतागण उनका हर घड़ी स्मरण करते हैं। जिनके स्मरण करने से ही संसार के सभी पाप दूर हो जाते हैं। जिनकी इस त्रिलोकी में कोई भी बराबरी नहीं कर सकता है, उनका ही तू इस भरे समाज में अपमान करता है। तुझको इसका दण्ड भुगतना पड़ेगा। क्योंकि तूने शिवजी महाराज की निन्दा की है।
शिव के निन्दक को कहीं पर भी सहारा नहीं मिल सकता है। शिव द्रोही इस जन्म में तो क्या अनेकानेक जन्मों तक पाप का भागी होता है। अतः तू शिवद्रोही है इसलिये मैं तुझको शाप देता हूँ कि आज से तेरे इस शरीर पर जो मुख है, वह नहीं रहेगा। उस नन्दीगण का ऐसा शाप सुनकर सारी सभा तथा देवतागण आश्चर्य तथा भययुक्त हो गये। प्रजापति दक्ष भी यह शाप सुनकर चिन्तातुर तथा भयभीत होकर नन्दीगण से कहने लगे कि हे नन्दीगण! तुम यह बात तो वेदों के विपरीत कह रहे हो। अतः मैं भी तुमको शाप देता हूँ कि तुम बुद्धि रहित हो बोझा ढोने का काम करोगे।
दक्ष प्रजापति का शाप सुनकर नन्दी की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी। उसने कहा कि हे शिव के निन्दक तू तत्व को नहीं जानता हैं। रे मूर्ख! तूने भृगु आदि ऋषियों के मध्य में भगवान शंकर का अपमान किया है, उसके लिये तू क्षमा योग्य नहीं है। ब्रह्माजी ने बेकार ही तुझको अपने मुख से उत्पन्न किया है। तुम सब काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत हो । अतः तुमको शुभ कर्मों का फल कभी भी प्राप्त नहीं होगा। तुम लोग भी भगवान शंकर के परमपद को नहीं पा सकते हो। जो ब्राह्मण शिवद्रोही होंगे, वे शूद्रों के घर पर यज्ञ करावेंगे तथा घर-घर भीख माँगेंगे। नन्दी के शाप को सुनकर सभा में कोलाहल मच गया। भगवान शंकर ने नन्दी को समझाते हुए कहा-नन्दी तुम्हे क्रोध नहीं करना चाहिए। मैं बड़े तथा ब्राह्मणों को शाप नहीं देता हूँ। इस बात को भली भाँति समझ लो कि दक्ष का शाप मुझको बिल्कुल नहीं लगेगा। यह तत्व कोई जान सका है? संसार सृष्टि कर्ता, तीनों लोकों का बनाने वाला मैं हूँ, जहाँ तक तुम देखते हो यह सब मेरी माया का फैलाव है। भगवान सदाशिव की बात को सुनकर नन्दीगण शान्त हो गये और फिर अपने गणों सहित अपने धाम को चले गये और दक्ष उस दिन से शिव निन्दक बन गये।
श्री शिवमहापुराण शतरुद्रसंहिता (छठवाँ खण्ड) प्रथम अध्याय
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