पाँचवाँ अध्याय
शंकर जी द्वारा विष्णु का उत्पन्न होना तथा उनका नामकरण करना व कार्य समझाना
भगवान सदाशिव ने शिवा से कहा-देवी! हम एक ऐसा पुरुष पैदा करना चाहते हैं जो कि शान्त, सत्वगुणों से युक्त एवं गम्भीरता में सागर के समान हो। हम इस जगत का सम्पूर्ण भार उसको सौंपकर शान्ति से काशी में निवास करें। भगवान के ऐसे वचन सुनकर जगदम्बा ने अपनी दृष्टि बाँई ओर घुमाई, जिससे एक अत्यन्त सुन्दर पुरुष का आविर्भाव हुआ जो कि कलाओं से भरपूर शीलवान, गुणवान और बुद्धिमान था। उसका रंग श्याम था, सुन्दरता अद्वितीय थी, शरीर का प्रत्येक भाग सुडौल एवं सुन्दर था। कमल जैसे नयन, मस्तक पर त्रिपुण्ड, गले में कोसतुकमणि, चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म को धारण किये हुए वैजन्तीमाला तथा पीताम्बर पहिने चौदह विद्याओं को जानने वाला और सिद्धि वाला परम शक्तिमान बार-बार प्रणाम करता हुआ शंकरजी के पास खड़ा हो गया। उसको देखकर भगवान सदाशिव और शिवा अत्यन्त प्रसन्न हुए। वह सुन्दर पुरुष भगवान सदाशिव तथा पार्वती से बोला- मेरा नाम तथा काम बताने की कृपा करें।
यह सुनकर भगवान श्री सदाशिव ने हँसकर कहा सर्वत्र व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु है। अब तुम्हारे समान कोई दूसरा मनुष्य उत्पन्न न होगा। तुम्हें लोग हरि तथा भगवान आदि नामों से पुकारेंगे, भक्तों को सुख देने के लिये ही मैंने तुम्हें उत्पन्न किया है। तुम सबसे पहले कार्य साधन के लिए दृढ़ता से तप करो। ऐसा कहकर सदाशिव ने भगवान श्री विष्णु जी को योग विद्या का ज्ञान दिया और भगवान श्री सदाशिव अन्तर्ध्यान हो गये। श्री विष्णु भगवान बारह हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करते रहे। बारह हजार दिव्य वर्षों तक भगवान श्री सदाशिव का ध्यान करते रहने पर भी उन्हें अपने मनोरथ कल्याणकारी भगवान शंकर का दर्शन न हुआ। भगवान श्री सदाशिव के दर्शन न होने के कारण भगवान विष्णु को उदास देखकर आकाशवाणी हुई। हे विष्णु! तुम अभी तप करो तुम्हें इतनी जल्दी हमारा दर्शन नहीं हो सकता। यह सुनकर श्री विष्णु दुबारा तप के लिये बैठ गये। अब श्री विष्णु जी तप के बीच में भगवान श्री सदाशिव की माया से श्री विष्णु के शरीर में अनेक प्रकार की जल धारायें बहने लगीं। श्री विष्णु उन जल ध राओं को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। चारों तरफ जल ही जल हो गया और श्रीविष्णु उस जल पर सो गये। उसी समय भगवान विष्णु का श्रुति समस्त नारायण नाम हुआ और उस समय इस संसार में श्रीविष्णु के अतिरिक्त और कोई न था। फिर भी विष्णु जी से सब तत्वों की उत्पत्ति हुई और उनका विस्तार हुआ, फिर प्रकृति की उत्पत्ति हुई। प्रकृति ने पहले महान उत्पन्न किया।
महान फिर तीन गुणों की उत्पत्ति हुई, फिर अहंकार उत्पन्न हुआ। इससे फिर तीन मात्रा का शब्द स्पर्श, रूप, रस और गन्ध उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् उससे पंचभूत पृथ्वी, वायु, जल, और आकाश प्रकट हुए और नेत्र, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। इस प्रकार उपस्थ यह कर्म इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। इस प्रकार पुरुष के बिना प्रकृति का यह सब जड़ रूप कार्य हुआ। यह सब तत्व चौबीस प्रकार के थे और यह सब ब्रह्मरूप जल पर सो रहे भगवान विष्णु की निद्रावस्था में उनकी नाभि में से एक विशाल कमल उत्पन्न हुआ। इस कमल का विस्तार अनन्त योजन का था और ऊँचाई भी अनन्त योजन की थी।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इसके पश्चात् भगवान श्री सदाशिव ने अपनी दांई भुजा में से मुझे उत्पन्न किया और उस कमल पर रख दिया। मेरे चार मुख थे। और अपने लाल मस्तक पर मैं त्रिपुण्ड धारण किए हुए था। मैंने कमल के अतिरिक्त और कुछ न देखा और यह न जान सका कि मेरा उत्पन्न करने वाला कौन है। भगवान श्रीसदाशिव की माया त्रिलोकी में फैली हुई है। वह जो कुछ भी चाहते हैं, वही करते हैं। श्री विष्णु, देवता, दैत्य, दानव सब उनके ही आधीन हैं। जब मैं यह नहीं जान सका कि मैं कैसे उत्पन्न हुआ हूँ तो मैं उस कमल की नाल को पकड़कर नीचे उतरने लगा। मैं निरन्तर सौ वर्ष तक उस कमल नाल को पकड़कर नीचे की ओर उतरता रहा। इतने पर भी उसकी जड़ तक न पहुँच सका।
तब मैं दुबारा कमल के ऊपर चढ़ने लगा। ऊपर आने में मुझे सौ वर्ष लगे लेकिन जब मैं ऊपर पहुँचा तो वहाँ कमल न था। यह देखकर मैं बड़ा घबड़ाया। उसी समय मुझे आकाशवाणी सुनाई दी। जिसके द्वारा मुझे तप करने का आदेश दिया। मैं अब तपस्या करने लगा। मैंने मंगलमयी आकाशवाणी के अनुसार बारह वर्ष उग्र तप किया। इसके पश्चात मुझे चार भुजाधारी सुन्दर नेत्र वाले भगवान विष्णु के दर्शन हुए। श्री विष्णुजी को देखकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ। लेकिन भगवान श्री सदाशिव की माया से मोहित होकर अपने पिता को न जानकर उनसे पूछा तुम कौन हो? मेरा यह प्रश्न सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले-तुम निर्भय हो जाओ। मैं तुम्हारी सम्पूर्ण कामनायें पूर्ण करूंगा। हे नारद! उनकी बात सुनकर रजो गुण से विरोध मानकर मैंने उनसे कहा-क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं सबके संहार का कारण हूँ। तुम मुझ पर ऐसे शासन कर रहे हो, जैसे कि कोई अपने शिष्य पर करता है। मैं साक्षात् जगत का कर्ता प्रकृति का प्रवर्तक सनातन आज विष्णु से उत्पन्न होने वाला और विश्व की आत्मा ब्रह्मा हूँ।
वेदों में मुझे स्वयम्भू स्वराट परमेष्टा और श्रेष्ठ कहते हैं। ब्रह्माजी बोले-नारद! जब मैंने ऐसा कहा तो भगवान श्री विष्णु क्रोध में भरकर मुझसे कहने लगे- इस प्रकार की मूर्खता की बातें आपके करने के योग्य नहीं है। सृष्टि को उत्पन्न करके पालन करने वाला मैं ही हूँ। फिर सबको नष्ट करने वाला भी मैं ही मैं हूँ। निर्दोष नारायण जगन्नाथ मेरे ही नाम हैं। तुम मेरी माया के अधीन होकर ही ऐसा कह रहे हो। क्योंकि यह सारा संसार माया के अधीन है। मैंने ही वेदों को बनाया है और मैंने ही कमल नाल से तुमको उत्पन्न किया है। मुझसे उत्तम और श्रेष्ठ दूसरा और नहीं है। तुम अपने नाम पर इतना अहंकार न करो। अतएव सत्य बोलने के योग्य बातें बोलो। जिस प्रकार अन्धा अपनी आँखों का, निर्धन अपने धन का वर्णन करता है, उसी तरह तुम भी अपने नामों की बड़ाई कर रहे हो। यदि तुम मेरा पूजन न करोगे तो तुम्हारा कल्याण नहीं होगा।
भगवान विष्णु की इस प्रकार की अहंकार पूर्ण बातें सुनकर मुझे हँसी आने लगी और इतना क्रोध आया कि मैं भगवान विष्णु को अपना शत्रु समझने लगा। मैंने उनसे कहा-आप मुझे बार-बार गुरु की भांति उपदेश क्यों दे रहे हैं? आप अपने आपको वेद पाठी कहते हैं, मगर मैं समझता हूँ कि आप वेदों का नाम तक भी नहीं जानते। आपका यह क्रोध सर्वथा व्यर्थ है। इस बात को लेकर मेरे और विष्णु जी के बीच बड़ा भारी शब्द युद्ध हुआ। भगवान सदाशिव की माया से मोहित होकर हम दोनों ही अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानते रहे। इसमें शंका और संदेह करने की कोई बात नहीं, क्योंकि भगवान सदाशिव की माया ही ऐसी है।
छठवाँ अध्याय
ब्रह्मा विष्णु का आपस में लड़ना, शंकर जी का ज्योति पुंज प्रकट होकर दोनों को समझाना
ब्रह्माजी ने कहा नारद! मेरे और भगवान विष्णु के इस शब्द-युद्ध को देखकर भगवान सदाशिव प्रकट हो गये। लेकिन वह प्रकट हुए एक तेजपुंज के रूप में। उस तेजपुंज को देखकर हम दोनों का युद्ध रुक गया। भगवान विष्णु भयभीत होकर कहने लगे-ब्राह्मण! यह तेज कहाँ से प्रकट हुआ है? जो इस बात का पता लगा सके, वही सबका स्वामी है। मुझे तो यह आदि अन्त से रहित मालूम होता है। अतः हम दोनों इसका पता लगाते हैं। तुम ऊपर के लोकों की खोज करो। मैं नीचे के लोकों में जाता हूँ। भगवान विष्णु की ऐसी बातें सुनकर मैं अहंकार में भरकर उनके कहने के अनुसार पता लगाने के लिये चल पड़ा। लेकिन यह एक मानी हुई बात है कि जो काम अहंकार के साथ किया जाता है वह कभी पूरा नहीं होता। अपितु सुख तथा शान्ति को भी नष्ट कर देता है। रावण और वाणासुर इत्यादि अहंकार के कारण ही तो नष्ट हुए हैं। बस अहंकार त्यागे बिना कोई भी काम पूरा नहीं होता।
भगवान श्री विष्णु भी श्वेत शूकर का रूप धारण करके पाताल लोक की ओर गये। उसी दिन से संसार में सफेद शूकर प्रसिद्ध हुए। मेरे और भगवान विष्णु के इस चरित्र का जो मनुष्य प्रातः काल ध्यान करता है, वह इस लोक में बड़े सुख और ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। मैं और भगवान विष्णु दिव्य सहस्र वर्ष तक उस ज्योतिपुंज का आदि व अन्त खोजते रहे परन्तु पार नहीं पा सके। हम दोनों वापिस लौट आये, किन्तु जिस स्थान से चले थे, उसको भी न पा सके। उस स्थान को खोजने में भी हमको दिव्य सहस्र वर्ष ही लग गये। तब मैंने सोचा कि मुझको उत्पन्न करने वाला कोई और ही शक्तिमान पुरुष है। यह विचार उठते ही हम उस ज्योतिपुंज के पास आ गये और मूर्खता के कारण उत्पन्न हुई शत्रुता का त्याग कर दिया। उसी समय आकाशवाणी हुई 'तुम दोनों ही योग करो।' आकाशवाणी सुनकर हम दोनों ही योग करने लगे और दिव्य ज्योति को सम्बोधित करके प्रार्थना की कि 'हे प्रभु! आप शीघ्र ही हमें अपने वास्तविक रूप का दर्शन दीजिए। हमारी इस प्रार्थना को सुनने के पश्चात् भगवान शिव की गम्भीर वाणी सुनाई दी - ॐ!ॐ!! तब उस शब्द को सुनकर मैंने विचार किया कि यह क्या है?
उसी समय श्री विष्णु जी ने उस ज्योतिपुंज (लिंग) के दक्षिण भाग में सनातन आद्यवर्ण आकार को और उसके उत्तर भाग अकार को देखा। फिर मध्य में और अन्त में ॐ को देखा। यह सब सूर्य मण्डल और चन्द्र मण्डल की भांति स्थित थे। जिनके आदि और अन्त का कुछ भी पता न लगता था। वहाँ सत्य आनन्द और परब्रह्म परायण दृष्टिगोचार हो रहा था। अब हम इस बात का विचार कर रहे थे कि हम इसके नीचे तथा ऊपर जाकर आदि और अन्त का पता लगायें कि वहाँ पर एक परम ऋषि का आविर्भाव हो गया, उन परम ऋषि से विष्णु जी को पता चला कि 'अकार' 'उकार' 'मकार' 'नाद' और बिन्दु का अर्थ होता है कि प्रथम अक्षर लिंग की ज्योति है।
दूसरे अक्षर उकार ज्योति का मध्य है। अर्थ मात्रा नाद ज्योति का मस्तक और बिंदु लिंग की ज्योति है। इसके अतिरिक्त यह अर्थ भी होते हैं कि अकार से ऋग्वेद, उकार से यजुर्वेद और मकार से सामवेद और नाद से अथर्ववेद और बिन्दु से ब्रह्म विद्या का स्वरूप। हर एक वेद ने दस-दस अर्थों से भगवान सदाशिव की स्तुति की है। ऋग्वेद रजोगुणी है, वह लिंग का दक्षिण वाला भाग है। यजुर्वेद सत्वगुणी और लिंग का मध्य भाग है और सगुण अथर्ववेद का कहना है कि श्री सदाशिव कुछ नहीं करते, जो कुछ भी होता है, वह शक्ति की इच्छा से होता है।
ऋग्वेद की उपमा जागृत यजुर्वेद की सुपन और सामवेद की सुश्पल्वों से दी जाती है। अथर्ववेद की पूरी अवस्था मानी जाती है। इसके जानने के पश्चात जप करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिये इस जप को तारक कहा जाता है। यह मोक्ष के देने का अधि कारी है। इसका नाम परनव है। ॐ के तीनों अक्षर इस परनव के अन्दर ही छिपे हुए हैं। पुरी जो कि अत्यन्त गोपनीय है, उससे अंगों सहित वेद उत्पन्न होते हैं। वह सबसे उत्तम है। उसी में तीनों लोक छिपे हुए हैं, उसका कभी नाश नहीं होता, ब्रह्म से लेकर कण तक उसी में लीन हो जाते हैं। अव्यक्त खोजने पर शीघ्र प्राप्त नहीं होता। अठारह पुराण इसी में होते हैं
भगवान सदाशिव को वेद परब्रह्म स्वरूप कहते हैं। दक्षिण अकार से सृष्टि की उत्पत्ति, बाँये अंग से पालन और हृदय के दोनों मकार सदाशिव के शरीर में अलंकरित है। मस्तक अकार, दया नेत्र उकार, दोनों कान मकार, नाक नकार होंठ दोनों अकार तालू के वर्ग के पांच अक्षर, दाँया पाँव तोरक के अक्षर, बाँया पाँव पकार, पृष्ठ भाग कुकार, दोनों पाँजर अकार, कँधा मकार हृदय पोरष वीर्य को प्रकट करते हैं। ऐसे सदाशिव का केवल ध्यान करने से अत्यधिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। मैंने और श्री विष्णु जी ने भग सदाशिव के स्वरूप को देखा और प्रसन्न चित्त से स्तुति करना आरम्भ कर किया |
सातवाँ अध्याय
ब्रह्मा तथा विष्णु की प्रार्थना पर शिवजी का प्रकट होना
ब्रह्माजी ने कहा-नारद! हम दोनों की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान श्री सदाशिव प्रकट हो गये। उनके पाँच मुख, तीन नेत्र थे, जिनके ललाट पर चन्द्रमा, शिर पर जटायें विराजमान थी। गौरवर्ण नेत्र, सर्वांग भस्म लपेटे, दस भुजा वाले, नील कण्ठ, भूषणों से विभूषित सर्वांग सुन्दर, मस्तक पर भस्म त्रिपुण्ड लगाये हुए थे उन करुणाकर महेश के वाम अंग में सुन्दर भूषणों से भूषित शिवा विराजमान थी। भगवान श्री शिव के इस सुन्दर स्वरूप को देखकर हम दोनों गद्गद् हो गये। हमारे नेत्रों से अनायास ही प्रेम अश्रु बहने लगे। हम प्रेम में इस तरह खो गये कि हम दोनों से काफी देर तक कुछ बोला न गया परन्तु शीघ्र ही हमने अपने आपको सम्भाल लिया और भगवान शिव की स्तुति करने लगे, हम दोनों ने शंकर जी से निवेदन किया- भगवन्! हम लोगों में मूर्खता के कारण जो शत्रुता उत्पन्न हो गई थी, वह हमारे लिये कल्याणकारी ही प्रमाणित हुई है क्योंकि उसके कारण हमें आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं। प्रभु! इस समय हमारी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं है। इस प्रकार • भगवान श्री सदाशिव की स्तुति करते हुए हम दोनों अहं भाव तथा अहंकार से रहित हो गये और दोनों ने ही भगवान शिव को अपना स्वामी माना और प्रसन्न चित्त से स्तुति करते हुए उनके चरणों में नतमस्तक हो गये।
आठवाँ अध्याय
शिवजी का ब्रह्म तथा विष्णु को समझाना तब उन करुणाधार भगवान श्री शिव ने मुस्कराते
हुए कहा-हे ब्रह्मा! हे विष्णु! हमारे वचनों को ध्यान पूर्वक सुनो। तुम लोगों ने मोह में फंसकर परस्पर युद्ध किया। परन्तु हमने तुम्हें अपने भक्त बनाने के लिये तुमको जान बूझकर लड़ने नहीं दिया। अपने ज्योति को प्रकट करके अपना परिचय दिया। परन्तु तुम लोग जान नहीं सके। इसके पश्चात हमने लिंग स्वरूप में प्रकट होकर तुम लोगों को दर्शन दिये। तब तुमने हमें पहचाना। अब तुम अहंकार व अपेक्षा को त्यागकर वह कार्य करो जिसके करने के लिये हम तुम्हें कहते हैं, ऐसा कहकर उन करुणाधार महेश ने अपनी श्वास द्वारा मुझे और श्री विष्णुजी को वेदों का ज्ञान प्रदान किया। पाँच मन्त्र ऐसे बताए जिनमें कि समस्त विद्यायें विद्यमान हैं, पहले हमें पुराणों की शिक्षा दी गई। जिसके अक्षर वेद कहे जाते हैं।
इसके पश्चात उन्होंने वेदों की माता गायत्री की व्याख्या की जिसमें कि २४ अक्षर वेद कहे जाते हैं। इसके पश्चात उन्होंने महामृत्युञ्जय की शिक्षा दी। फिर भक्तों को सुख देने वाली चिन्तामणि को बतलाया। इन मन्त्रों को पढ़कर हम अत्यन्त प्रसन्न हुए। इसके पश्चात् मैं और विष्णु उनके दर्शन में लीन हो गये और वह आनन्द प्राप्त हुआ जो कि कहा नहीं जा सकता। जो सुख सर्दियों में धूप से और कामी पुरुष को स्त्री प्राप्त होने से होता है, वही सुख हमें भगवान श्री सदाशिव के दर्शन करने से हुआ। भगवान श्री सदाशिव बोले-श्रेष्ठ देवों! मैं तुम दोनों की भक्ति देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। हे ब्रह्मा मैं तुम्हें सारी सृष्टि का स्वामी बनाता हूँ, तुम प्राणियों की सृष्टि करो। हे विष्णु! तुम प्राणियों का पालन करो और वेदों को देखकर मुझे पहचानों और उचित रीति से अपने-अपने काम को करो। वेद को मेरा रूप तथा वेद वाक्यों को मेरी आज्ञा जानो। भगवान श्री सदाशिव की बात सुनकर हम लोगों ने कहा-प्रभु! आप संसार में अवतार धारण करके हमारी सहायता करें। हमें पूजन इत्यादि की विधि बतायें। हम लोगों की प्रार्थना सुनकर भगवान सदाशिव ने प्रसन्न होकर कहा-हर प्रकार की चिन्ता को त्यागकर तुम स्वयं सुख भोगते हुए संसार को सुखी बनाओ तुमने मेरा जो स्वरूप देखा है, उसकी पूजा करो,
उससे तुमको सुख की प्राप्ति होगी। इस समय जैसे मेरे लिंगरूप के पूजन से तुम लोगों का दुःख दूर हुआ है। इसी तरह दुःखी व्यक्ति मेरे लिंगरूप द्वारा मेरा पूजन करके अपने दुःखों को दूर कर सकते हैं। लिंग के अर्थ है संसार के कष्ट क्षय लय होने का स्थान। जब भी तुम्हें किसी तरह का कष्ट हो तुम मेरे इस लिंगरूप की पूजा करना। समय आने पर मैं भी इस संसार में प्रकट हूँगा। मेरा नाम उस समय रुद्र अवतार होगा। मुझमें और रुद्र में भेद न जानना। सारी सृष्टि में मुझे व्यापक समझना, कोई भी वस्तु मुझसे पृथक नहीं है।
इसके पश्चात् भगवान श्री सदाशिव ने उस गुप्त भेद को भी हम पर प्रकट कर दिया जो कि वेदों में भी नहीं मिलता। उन्होंने कहा- मैं सनातन, शिवरूप मूलभूत, सत्यज्ञान और अनन्त हूँ। इन तत्वों को जानकर सर्वदा मेरा ध्यान करना चाहिये और मेरे रुद्र रूप में तामसी गुण जानना चाहिए। क्योंकि वह वैचारिक है किन्तु वास्तव में तामसी नहीं है। अतः हे ब्राह्मण! अब तुम सृष्टि के कर्ता बनो और भगवान श्री विष्णु सृष्टि के पालक बने और मेरा रुद्र अंश जो है, वह सृष्टि को क्षय करने वाला होगा और यह जो उमा नाम वाली परमेश्वरी प्रकृति है, उसी की शक्ति भगवान श्री विष्णु को लक्ष्मी और ब्रह्मा को बागदेवी अर्थात् सरस्वती के रूप में प्राप्त होगी और उमा स्वयं प्रकट होकर महादेव को अपनायेगी। तीनों देव अपनी शक्तियों सहित मेरा पूजन करेंगे। मैं सबको चिन्ताओं से मुक्त कर दूँगा। अब तुम इन तीनों देवताओं के आयुर्बल को सुन लो । ब्रह्मा का दिन चार हजार युग का होता है
और इसी क्रम से रात को भी समझो। तीस दिन का एक महीना और बारह महीने का एक वर्ष, इस प्रमाण से ब्रह्माजी की आयु सौ वर्ष की होती है और श्री ब्रह्माजी का एक वर्ष भगवान श्री विष्णु का एक दिन कहलायेगा और वह भी इसी प्रमाण से सौ वर्ष तक जियेंगे तथा विष्णु का एक वर्ष रुद्र के एक दिन के बराबर होगा और उसी क्रम से वह भी एक वर्ष तक स्थित रहेंगे। जब मेरे (भगवान श्री सदाशिव के ) मुख एक श्वास उत्पन्न होता है जिसमें कि उनके इक्कीस हजार के सौ दिन रात होते हैं। उनके छ: उच्छवास और निश्वास का एक पल, साठ पल की एक घड़ी और साठ घड़ी का एक दिन रात होता है। मेरे ( श्री सदाशिव के) उच्छवास, निश्वास अर्थात् भीतर बाहर श्वास लेने की संख्या नहीं है, इसी कारण शिव का उत्थान अक्षय है। ऐसा कहकर भगवान सदाशिव ने हमारे सिरों पर हाथ फेरा और अन्तर्ध्यान हो गये।
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता दूसरा (सती) खण्ड प्रथम अध्याय
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