॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता चौथा (कुमार) खण्ड
प्रथम अध्याय
ब्रह्माजी का सृष्टि उत्पन्न करना
श्री ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सबसे पहले मैंने भृगु भब, मारीचि अंगिरा मुनि, बहिन और पितर को उत्पन्न किया और सृष्टि बढ़ाने के लिए कहा- मैंने अपने नेत्रों से मारिचि को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को और कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को, अपान से क्रतु को, कानों से अत्रि को, प्राण से दक्ष को और गोदी से तुम (देवर्षि नारद) को और अपनी छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया, इसके पश्चात् मैंने हृदय से धर्म को, पीठ से अधर्म को, होंठ से मोह को और भौंह से क्रोध को उत्पन्न किया। इसके पश्चात् मैंने सरस्वती को उत्पन्न किया, जिसको देखकर ही मैं काम से पीड़ित हो गया और उसके साथ रति की इच्छा करने लगा क्योंकि वह तीनों लोकों को मोहित करने की शक्ति रखती थी। मेरे पुत्र मुझे इस अवस्था में देखकर मुझ पर हँसने लगे और भगवान सदाशिव की स्तुति करने लगे। ताकि मैं इस घोर पाप से बच जाऊँ। मेरे पुत्रों की प्रार्थना पर कृपालु भगवान सदाशिव ने प्रकट होकर मुझे समझाकर इस पाप से बचा लिया। भगवान यथासमय इसी प्रकार अपने भक्तों की रक्षा किया करते हैं।
मैं पाप से बच गया लेकिन मोहवश होकर भगवान सदाशिव की निन्दा करने लगा। इसके पश्चात मैंने अपने से संध्या नामक एक कन्या उत्पन्न की, उस कन्या के समान तीनों लोकों में कोई भी सुन्दर न था। उसके मस्तक पर काली घटा के समान बाल लहरा रहे थे। शुक की भाँति नाक, कमल जैसे नयन, लाली लिए हुये सुन्दर व पतले-पतले होंठ, अनार के दानों के समान सुन्दर दाँत, अनुपम ठोढ़ी, तीन सुन्दर रेखाओं वाला गला, नाना प्रकार के आभूषण पहिने हुए बाजूबन्द तथा रत्नजडित अँगूठियाँ पहले हुए पतली-पतली अँगुलियाँ, कदल समान जाँघें, घुँघरुओं से युक्त चरण, से गम्भीर नाभि, पतली कमर, बलखाता हुआ पेट, चरण, नख और शरदचन्द्र के समान मुख मण्डल इत्यादि । एक-एक अंग उसका आकर्षक तथा मनोहर था। ऐसी गजगामिनी को देखकर मैं अपने आपको संभाल न सका और मोहित हो गया और काम से पीड़ित होकर मैं उसकी ओर चला। तब दक्ष आदि मेरे पुत्रों ने मुझे रोका लेकिन वह स्वयं भी उसकी ओर आकृष्ट होने लगे।
मैं बुद्धिहीन उसकी रूपरेखा पर मोहित होकर अनेकों प्रकार के विचार अपने मन में लेकर धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा। इतने में एक विलक्षण रूप वाला पुरुष जिसके बाल काले थे, स्थूल काया वाला, नीले तथा सुन्दर वस्त्र पहले अविर्भूत हो गया उसके श्वाँस से सुगन्धि निकल रही थी और वह परम शृंगारित था। ऐसा मेरा पुत्र दोनों हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर मेरे सन्मुख खड़ा हो गया, उसने मुझसे पूछा-प्रभु! मुझे मेरा नाम तथा काम बताइये?
उस सुन्दर पुरुष की बात सुनकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। मैंने कहा-वत्स! मैं तुम्हारा नाम मन रखता हूँ। इसके अतिरिक्त मथन, काम, मदन, इत्यादि भी तुम्हारे नाम हैं, तुम अपने वाणों और सौन्दर्य के द्वारा सबको वश में कर सकोगे। तुमसे इस लोक में आचर्य सदैव सुख का लक्ष और नित्य ही प्राणियों में मद उत्पन्न हुआ करेगा और तुम इसी प्रकार सृष्टि के अवतक बनो। इस प्रकार का वर देकर मैंने उसका सम्मान बढ़ाया और अहंकार में भरकर अपने सिंहासन पर बैठ गया और अपने सभी पुत्रों से कहा- देखो कामदेव का पद सबसे ऊँचा है। मेरी यह बात सुनकर काम ने धनुष पर वह बाण चढ़ाया कि उससे सभी की बुद्धि नष्ट हो गई। धनुष को कान तक खींचकर वह विचार करने लगा कि पितामह के वरदान की परीक्षा करनी चाहिये।
इस प्रकार सोचकर उसने मोहन नाम का वाण मुझ पर छोड़ दिया, साथ ही साथ उसने हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण और बाण इन पाँच बाणों को मुनियों पर छोड़ दिया। संध्या पर इन बाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह देखकर कामदेव ने उस पर भी अपना एक बाण छोड़ा। जिससे संध्या में भी विकार आ गया और वह भी काम के वश में हो गई। उसके शरीर में रोमांच होने लगा। जमाहियाँ आने लगीं और चौंसठ कलाओं का प्रयोग करके वह अपने अंगों को संचालित करने लगी। हमारे मन में भी विकार उत्पन्न हो गया। मारीचि, अत्रि और दक्षादि सब महर्षि इन्द्रियों के विकार को उत्पन्न हो गये। हम सबको काम से पीड़ित देखकर कामदेव को अपने कर्म तथा वाणों में विश्वास हो गया।
दूसरा अध्याय
संध्या पर पिता व पुत्रों का मोहित होना शंकरजी द्वारा उनको समझाना
श्री ब्रह्माजी बोले नारदजी! हम पिता पुत्रों को संध्या पर बुरी तरह से मोहित देखकर सत्य और धर्म बड़े घबराये और वह धर्म रक्षक भगवान शंकर जी के पास गये, उनको सारी कथा सुना हमारे पास ले आये। भगवान शंकर जी मुझे देखकर हँसे और मुझको लज्जित करते हुए बोले-हे ब्राह्मण! तुम्हें अपनी पुत्री को देखकर काम कैसे प्रकट हो गया। यह वेद मार्ग पर चलने वालों को उचित नहीं। क्या यह महापाप नहीं है? पुत्री, पुत्र की बहू, माता के साथ भोग करने वाला घोर नर्क में डाला जाता है। खेद है कि तुम वेदपाठी होकर इस बात को भूल गये और लज्जा को त्यागकर अपना धर्म नष्ट कर दिया। मैंने और भी बहुत से कामी पुरुष देखे हैं, मगर तुम तो सबसे आगे हो। तुम्हारे वेदपाठी और ज्ञानी होने पर हजार बार धिक्कार है। नारद जी! मुझे इस प्रकार धिक्कारने के बाद भगवान शिव मेरे पुत्रों की ओर आकृष्ट होकर बोले- अरे तुम जैसे एकान्त योगियों का चित्त कैसे मलिन हो गया। हाँ जिनके चित्त को स्त्रियाँ हर लेती हो, उनसे भला सत्संग की आशा कैसे की जा सकती है। हे वेदपाठी ऋषियों! तुम इस प्रकार कामी कैसे हो गये? खेद है कि ब्रह्मा के पुत्र होकर तुमने इस प्रकार के बुरे काम को अपनाया, तुम लोगों को बार-बार धिक्कार है।
नारदजी! भगवान शंकरजी के उन शब्दों से मेरा बड़ा बुरा हाल हुआ। मारे भय और लज्जा के मेरे शरीर से पसीना चूने लगा। मुझको जो विकार उत्पन्न हुआ था, वह शंकर जी की बातों से जाता रहा। मेरे शरीर से जो पसीना चुआ उससे चौंसठ हजार आग्नेस्वाता पितृगण उत्पन्न हो गये और छियासी हजार वहिर्षद पितृ हुये। दक्ष के शरीर से जो पसीना गिरा, उससे एक सुन्दर कामिनी उत्पन्न हुई। जिसको आज संसार रति के नाम से जानता है, उसको देखकर क्रतु आदि भी स्खलित हो गये।
उनसे जो वीर्य भूमि पर गिरा, उससे अन्य पितरों की उत्पत्ति हुई। इतने में शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये। मैने क्रोध भरी दृष्टि से काम को देखा और उसको शाप देना चाहा। मुझे शाप देने के लिए तैयार देखकर सारे पितरों ने मुझे समझाया और शाप देने से रोका। परन्तु मारे क्रोध से मेरा बहुत बुरा हाल था। मैंने उससे कहा-मूर्ख! तूने अपने पिता के साथ ही ऐसा बुरा बर्ताव किया? अतः जैसा तूने किया वैसे ही तू भोगेगा। तू तूने भगवान सदाशिव के सामने मुझे लज्जित किया है, अतः मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू शिवजी के नेत्र वाणों मैं से भस्म हो जायेगा, तभी मुझे सुख मिलेगा।
यह सुनकर कामदेव बुरी तरह से काँपने लगा। सारा गर्व चूर-चूर हो गया और वह हाथ जोड़कर कहने लगा-भगवन! आप तो न्याय का अनुसरण करने वाले हैं। तब फिर आपने मुझे शाप क्यों दे दिया? आपने कहा था मैं ( श्री ब्रह्मा जी ) श्री विष्णु और शंकर जी सभी तुम्हारे वश में होंगे। जो कुछ आपने कहा था मैंने तो उसकी परीक्षा करने के लिए किया था। हे जगतपिता! मेरा कोई दोष नहीं है, अत: आप मुझे शाप से मुक्त कर देवें। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! कामदेव ने जब इस प्रकार नर्म होकर मेरी स्तुति की तो मैंने कहा- मेरा शाप तो झूठा नहीं हो सकता। अतएव जब भगवान शिव अपना विवाह करेंगे तब तुम्हारा दुबारा जन्म होगा। इतना कहकर मैं चुप हो गया और मुनि तथा कामदेव भी अपने-अपने स्थान को चले गये।
तीसरा अध्याय
ब्रह्माजी का शंकर के विरुद्ध मन में द्वेष आना तथा रति का विवाह कामदेव के साथ होना
नारद जी ने कहा- प्रभु! इसके पश्चात क्या हुआ? श्री ब्रह्माजी बोले-नारद! इतना कुछ होने पर भी भगवान सदाशिव के विरुद्ध मेरे मन में जो द्वेष उत्पन्न हो चुका था, उसको मैं किसी प्रकार भी दूर न कर सका। इसको भी तुम शिव की माया ही कह सकते हो। मैंने अपने पुत्र दक्ष को बुलाकर कहा कि अपने पसीने से उत्पन्न हुई कन्या रति का विवाह कामदेव से कर दो। इस पर दक्ष ने कामदेव से कहा- कन्दर्प! तुम्हारे ही समान गुण वाली मेरी पुत्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करो।
यह कह दक्ष ने अपनी रति नामक सुन्दर कन्या का विवाह कामदेव के साथ कर दिया। विवाह के समय सुखवर्द्धक महान उत्सव हुआ। अपनी पुत्री तथा जमाता को सुखी देखकर दक्ष भी अत्यन्त प्रसन्न हुए। जैसे मैं कह चुका हूँ, मेरे हृदय में द्वेष की अग्नि जल रही थी। मुझे माया ने दबा लिया और मैंने अहंकार में भरकर दक्ष से कहा- हे दक्ष! भगवान सदाशिव तीनों लोकों के स्वामी स्त्रियों से रहित, भोग विलास को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहते हैं और संसार के बन्धनों से मुक्त होकर योगियों के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
उनको अपनी इन्द्रियों पर विश्वास है। उन्होंने हमारा अपमान किया है। अतः हम लोगों को भी वही काम करना चाहिए जिससे कि उनके मन में विकार उत्पन्न हो। इसलिए अब तुम उपाय करो कि भगवान अपना विवाह करें। जब तक यह काम न होगा, मेरी चिन्ता न मिटेगी। वह मेरे पुत्र होकर भी अपने को सबसे बड़ा समझकर मेरी बेईज्जती करने लगे। यदि विष्णु ऐसा करते तो मुझे इतना दुख न होता इसलिये जब तक शंकर जी अपना विवाह न कर लेंगे, मुझे चैन न पड़ेगा। मैंने यह बात दक्ष से कही थी कि वहाँ कामदेव और रति आ पहुँचें। मैंने तब कामदेव की अत्यधिक प्रशंसा करके उससे कहा-वत्स! अब तुम जगत के हितार्थ भगवान शिव को अपने वश में करो और अपना प्रताप दिखाओ | ऐसा से करने से तीनों लोकों में तुम्हारा अधिकार हो जायेगा। यह काम तुम्हारे अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता। इसमें लाभ ही लाभ है। ऐसा करने तुम्हारा मन शान्त भी हो जायेगा और स्त्री में अनुराग होने से श्री सदाशिव तुम्हें वर भी देंगे। कामदेव बोला-प्रभु! आपका कहना सिर आँखों पर, परन्तु भगवान सदाशिव को मोहित करने के लिये स्त्री कहाँ से आयेगी, उसका निर्माण तो आपको ही करना होगा।
उसी समय मेरे श्वांस से बसन्त उत्पन्न हुआ। उसके उत्पन्न होने के साथ मन्द-मन्द शीतल पवन चलने लगी। चिड़िया चहचहाने लगी। कोकिला व भँवरे सात स्वरों में गाने लगे। सारस तथा हंस नदियों के तट पर घूमने लगे। भँवरे फूलों पर गुंजारने लगे। बसन्त की रूप राशि का क्या कहना-पुष्पित ताम्ररस से नेत्र, संध्या उदित चन्द्र सा मुख और सुन्दर नासिका। मैंने कामदेव से कहा-कामदेव! इस का नाम बसन्त है। यह लोकों को रंजित करने वाला है। अब तुम बसन्त तथा अपने अन्य सहचरों को साथ लेकर भगवान सदाशिवजी को मोहित करने के लिए जाओ। कामदेव भगवान सदाशिव के स्थान की ओर चल दिया।
चौथा अध्याय
कामदेव का शंकरजी को मोहित करने में असफल होना
श्री ब्रह्माजी बोले- नारदजी! मेरी आज्ञा पाकर कामदेव बसन्त आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर भगवान श्री शिवजी के स्थान पर पहुँचा। कामदेव की माया से सब जीव मोहित हो गये। अनेकों प्रकार के यत्न करने पर भी वह भगवान सदाशिव को मोहित नहीं कर सका। उसका प्रत्येक यत्न व्यर्थ प्रमाणित हुआ
और वह दुखी होकर बसन्त आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर मेरे पास लौट आया और हाथ जोड़कर कहने लगा-प्रभु! मैंने अपने प्रभाव से तीनों लोकों को मोहित कर डाला। मगर श्रीशंकर जी पर मैं अपना कोई प्रभाव न डाल सका। उनकी समाधि को भंग करने में असफल रहा। मुझे तो यह डर है कि कहीं भगवान शिव मुझे अपनी क्रोध ग्नि से भस्म ही न कर डालें, आप यह कार्य किसी दूसरे को सौंप दीजिये। कामदेव की बात सुनकर मैं दुखी हो गया और मेरे मुख से दुख के कारण तीव्रगति से श्वांस निकलने लगी। मेरे इस तीव्र श्वाँस से बहुत से बली उत्पन्न होकर 'मारो-मारो' 'काटो-काटो' का शोर मचाने लगे। वह विचित्र आकृति वाले बुरी तरह से शोर मचा रहे थे और अनेकों वाद्यों को बजा रहे थे। उन भयंकर प्रकृति वाद्यों की आकृति को देखकर अनायास ही भय उत्पन्न होता था। कामदेव ने पूछा प्रभु यह कौन है? मैंने कहा- इनके अन्दर मार है और इनका नाम भी मार है। कामदेव ने कहा- प्रभु ! यह क्या करेंगे और कहाँ रहेंगे?
मैंने कहा- यह सदा तुम्हारे साथ रहेंगे। तुम्हारी सहायता करना इनका काम होगा। इनका मुख्य कार्य होगा ज्ञानियों के ज्ञानमार्ग में बाधा डालना। मेरी बात सुनकर कामदेव और रति को सन्तोष हुआ।
मैंने कहा-कामदेव तुम अपने सहचरों के साथ अब की बार इन मारो को भी साथ लेकर भगवान श्री सदाशिव के स्थान पर जाओ और भगवान पर अपना प्रभाव डालो। कामदेव ने कहा-प्रजानाथ! आपकी आज्ञानुसार मैं अवश्य जाऊँगा और शायद इन मारो के कारण मैं सफल भी हो जाऊँ। परन्तु फिर भी डरता हूँ कि मेरी धृष्टता को देखकर भगवान सदाशिव कहीं मुझे भस्म ही न कर डालें।
इतना कहकर कामदेव रति, बसन्त और मारगणों को साथ लेकर दुबारा भगवान सदाशिव के स्थान पर गये और वहाँ जाकर उसने तथा उसके साथियों से जो कुछ भी भगवान सदाशिव को मोहित करने के लिए हो सका, किया। परन्तु वह अपने प्रयत्नों में सफल न हो सका। लाख चेष्टा करने पर भी वह शंकरजी को मोहित न कर सका। इस पर वह निराश होकर अपने सहचरों सहित एक बार फिर मेरे पास लौट आया और मुझसे कहने लगा-पिताजी! आप शंकर जी के विवाह की कोई और ही व्यवस्था कीजिए। मैं उनको मोहित नहीं कर सका और शायद कर भी न सकूँ। इतना कहकर वह मुझको प्रणाम करके वहाँ से चला गया।
पाँचवा अध्याय
ब्रह्मा द्वारा शंकरजी से बदला लेने के लिए विष्णु की स्तुति करना
कामदेव तो चला गया लेकिन मैं पूर्ववत शंकर जी को मोहित करने के सम्बन्ध में सोच रहा था। मेरा यह अहंकार कि कामदेव द्वारा मैं यह कार्य करवा लूँगा अब चूर-चूर हो चुका था। अब मैंने भगवान श्री विष्णु का ध्यान किया और उनसे इस प्रकार कहने लगा- भगवान आप मुझे अपना सेवक समझकर मेरे दुखों का अन्त कीजिए। हे भक्त वत्सल ! आप अपने भक्तों का दुःख हरने के लिए ही तो अवतार धारण करते हैं। अतः आप मुझ पर कृपा करके मुझे दर्शन देवें और मेरे दुःखों को दूर करें।
मेरी इस स्तुति को सुनकर पीताम्बरधारी ने भव्य स्वागत किया। भगवान ने चारों तरफ अपने आकर्षक मुस्कराहटें बखेरते हुए कहा-ब्राह्मण! कहो तुम्हें मुझसे कौनसा काम आन पड़ा है जिसके लिये कि तुमने मुझ स्मरण किया है? इस पर मैंने भगवान विष्णु को बीती हुई सबकी सब बात बता दी। मेरी बात सुनकर भगवान विष्णु हँसकर मुझे समझाने लगे तुम्हें अपनी कन्या को देखकर ही मोह उत्पन्न हो गया था और उसको कुदृष्टि से देखा था। तब उस समय भगवान श्रीसदाशिव ने आकर तुम्हें और तुम्हारे पुत्रों को बहुत धिक्कारा था और तुम्हारे पुत्रों के समक्ष तुम्हारी निन्दा की थी। मगर ऐसा उन्होंने क्यों किया था। क्या तुमने इस पर भी विचार किया है? वह तो तुम्हें अपना पुत्र जानकर तुम्हारी भलाई के लिये ही तुम्हें सद्उपदेश करने के लिये आये थे लेकिन तुमने अपनी अल्पबुद्धि के कारण उनके सद्उपदेशों की ओर ध्यान नहीं दिया।
तुम सब लोकों के कर्ता होकर और वेदवक्ता होकर ऐसी मूढमती वाले क्यों हो गये हो? हाँ! तुमने वेदों के पाठ को भुला दिया है, यही कारण है कि तुम उस ब्रह्म स्वरूप भगवान के साथ शत्रुता करना चाहते हो जिनका कि सब देवता पूजन करते हैं। जिनके कि सब देवता सेवक हैं। वह आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। वह भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों कालों का हाल जानने वाले हैं। वह भक्तवत्सल है और सदा अपने भक्तों पर कृपा करने वाले हैं। यदि तुम भगवान सदाशिव को विवाहित देखना चाहते हो तो इसके लिए तुमको उग्र तप करना चाहिये तथा भगवती उमा का ध्यान धरना चाहिये। यदि भगवती प्रसन्न हो जायेगी तो तुम्हारे सब काम पूर्ण हो जायेंगे। भगवती शिवा अवतार लेकर किसी की कन्या जायेंगी और फिर उनका भगवान सदाशिव के साथ विवाह हो जाएगा, इसके लिए तुम्हें दक्ष को भी तप करने के लिये तैयार करना चाहिए। उसके तप करने से भगवती पार्वती उसके यहाँ कन्या के रूप में जन्म लेंगी। भगवती उमा को ही सदाशिव पत्नी के रूप में ग्रहण करके भक्तों के दुखों का अन्त करेंगे। बस यही एक विधि है जिससे कि तुम भगवान श्रीसदाशिव को विवाहित देख सकते हो। इतना कहकर पीताम्बरधारी, चतुर्भुज भगवान श्रीविष्णु अन्तर्ध्यान हो गए।
छठवाँ अध्याय
विष्णु के समझाने पर ब्रह्मा का शंकरजी के प्रति वैरभाव छोड़ना
श्री ब्रह्माजी बोले- नारदजी! भगवान विष्णु के आदेशानुसार मैंने भगवान श्री सदाशिव से वैर-भाव त्याग दिया। मैं समझ गया कि भगवान श्रीविष्णु जो कुछ कहते हैं, वह ठीक हैं। मैंने विचार किया था, वह सब गलत है। अतः मैने दक्ष को बुला भेजा। जब वह आए तो मैंने उनसे कहा-दक्ष! मुझे वैसे सदाशिव से ईर्ष्या थी इसलिए मैंने कामदेव और रति को उनको मोहित करने के लिए उनके स्थान पर भेजा। कामदेव ने उनके स्थान पर जाकर उनको मोहित करने के लिए अनेकों प्रकार के यल किए जिससे कि सब जीव मोहित हो गये मगर शिवजी वश में न आये, उनके सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गये। मैंने उसे दोबारा मारगणों के साथ
सदाशिव के पास भेजा। मगर परमात्मा शिव मोहित न हुये और वह निराश होकर लौट आया। कामदेव तो निराश हो गया लेकिन मैं निराश न हो सका। मैंने जब भगवान सदाशिव को मोहित करने का उपाय न देखा तो अपनी सहायता के लिए श्री विष्णुजी की स्तुति की। मेरी स्तुति करने पर करुणेश विष्णु ने मुझे साक्षात दर्शन दिये और मैंने फिर अपना सारा दुख उनके सामने रखा। मेरी बात सुनकर भगवान श्रीविष्णु ने कहा कि हे ब्राह्मण! उन्होंने तुम्हें अपना पुत्र जानकर तुमको सद्उपदेश दिया। मगर तुमने अपनी अल्पबुद्धि के कारण उनके सद्उपदेश पर ध्यान नहीं दिया। हाँ तुमने वेदों के पाठ को भुला दिया है तुम उस ब्रह्म स्वरूप भगवान के साथ शत्रुता करना चाहते हो जिनका कि सब देवता पूजन करते हैं और जिनके कि सब देवता सेवक हैं। यदि तुम भगवान सदाशिव को विवाहित देखना चाहते हो तो इसके लिये तुमको उग्र तप करना चाहिये। भगवान श्री सदाशिव के साथ-साथ अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये भगवती शिवा का भी ध्यान करना चाहिये। इससे पार्वती इस लोक में किसी की कन्या हो जायेगी। और फिर उनसे सदाशिव का विवाह हो जायेगा। तुम दक्ष को तप करने के लिये कहो क्योंकि उमा उन्हीं के यहाँ पुत्री बनकर आवेंगी सो हे दक्षजी! अब तुम एक ऐसी पुत्री को जन्म दो जो भगवान सदाशिव की पत्नी बने। तुम समस्त लोकों में सम्मान के योग्य बनो।
अब तुम्हारे लिये यही उचित है कि तुम शम्भु प्रिय देवी दुर्गा की उपासना करो और जब वह तुम्हें दर्शन देवें और वर माँगने के लिये कहें तो तुम उनसे यह वर माँगना- 'आप मेरी पुत्री हो।' मैं भी तप करने जाता हूँ और मैं भी यही वर माँगूँगा। भगवती की महिमा का पार किसी ने नहीं पाया जब भगवान सदाशिव ने हमें उत्पन्न किया था तो उस समय मेरी और भगवान विष्णु की प्रार्थना पर उन्होंने कहा था कि हम 'हर' नाम धारण करके अवतार धारण करेंगे और सभी संसारिक कामों को संपूर्ण करेंगे। हमारी आदि शक्ति जिनका कि एक अंश श्री लक्ष्मीजी हैं, अवतार धारण करके हमारी पत्नी बनेंगी। दक्षजी! इस संसार की उत्पत्ति इन आदि शक्ति द्वारा ही हुई है। वह सबकी माता हैं। वही अब सती के नाम धारण करके तुम्हारें यहाँ जन्म लेगी। इसलिए अब तुम ऐसा उपाय करो जिससे कि आदि शक्ति का अवतार तुम्हारे घर में हो। इसके पश्चात श्री दक्ष मेरे आदेशानुसार मन्दिराचल पर्वत पर तप करने के लिए चले गये।
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता पाँचवाँ (युद्ध) खण्ड प्रथम अध्याय
0 Comments