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श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता दूसरा (सती) खण्ड प्रथम अध्याय

                                                  ॥ ॐ नमः शिवाय ॥


                                                   श्री शिव महापुराण



                                                        रुद्रसंहिता दूसरा (सती) खण्ड


                                                                      प्रथम अध्याय


ब्रह्मा का सृष्टि की रचना करना श्री ब्रह्माजी बोले-नारद! भगवान सदाशिव जब इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गये तो फिर मैंने हंस का और भगवान श्री विष्णु ने बाराह का रूप धारण करके सृष्टि रचने का विचार किया। श्री विष्णुजी भी अन्तर्ध्यान हो गये और ब्रह्माण्ड से बाहर निकलकर बैकुण्ठ में चले गये। उनके जाने के पश्चात सबसे पहले मैंने भगवान सदाशिव और श्री विष्णु का ध्यान करके जल का निर्माण किया। उस जल में फिर अंजलि जल डाल कर मैंने उस जल से चौबीस तत्वों वाला एक अण्ड प्रकट किया जो कि विराट हो गया। उसके विराट होने से मेरे मन में संशय उत्पन्न हुआ, मैं बारह वर्ष तप करता रहा। इस तप में मैंने केवल भगवान विष्णु का ध्यान किया। बारह वर्ष के पश्चात् भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर मुझको साक्षात् दर्शन देकर कहा-ब्रह्मा! वर माँगो। श्री सदाशिव की कृपा से सब कुछ दे सकता हूँ। इस पर मैंने उनसे कहा-प्रभु! जो कुछ भगवान श्री सदाशिव का आदेश है, वही मैं आपसे माँगूगा। निवेदन




है कि यह जो चौबीस तत्वों वाला अण्ड है यह जड़ दिखाई देता है। आप इसको चेतना प्रदान कीजिये, मेरी इस प्रार्थना पर भगवान श्रीविष्णु उस अण्ड में प्रविष्ट हो गये। उनके अण्ड में प्रविष्ट करने के पश्चात् उसमें से सहस्त्रों सिर, नेत्र और चरण सहित अंग निकले और उन्होंने समस्त पृथ्वी को घेर लिया। भगवान श्रीविष्णु सातों लोकों के अधिपति हो गये। भगवान सदाशिव ने उनको कभी कष्ट न होने वाले कैलाश पर स्थान दिया। अब मैं सृष्टि रचने लगा। पहले पाप सृष्टि उत्पन्न हुई, जिसमें कि अविद्या और तम की प्रधानता थी। उससे मैंने स्थावरों की रचना की। इसके पश्चात् मैंने मनुष्यों की सृष्टि की रचना के लिये भगवान शंकर का ध्यान किया। इसके पश्चात तिरछे चलने वाले जीव उत्पन्न हुए। जब उनसे मुझे संतोष की प्राप्ति न हुई तो मैंने देवताओं की सृष्टि की, परन्तु इससे भी कार्य सिद्ध न हुआ। अतः मैंने भगवान सदाशिव की आज्ञा से रजोगुणी मनुष्यों को उत्पन्न किया। जब पांच प्रकार की सृष्टि हो गयी तो फिर मैंने सर्गों की रचना की। तब महात्सर्ग सूक्ष्म भौतिकसर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग उत्पन्न हुए। फिर ८ प्रकार की सृष्टि वैकारिक सर्ग से उत्पन्न हुई। वैकारिक सर्ग से नवाँ कुमार उत्पन्न हुआ। सनकादिक मेरे ऐसे मानसिक पुत्र थे जो महान वैराग्य से सम्पन्न थे। जब मैंने उनसे सृष्टि रचने के लिये कहा तो उन्होंने वैराग्य प्रकट किया इससे मेरे




क्रोध का वारपार न रहा और मारे क्रोध के मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे। मुझे रोते हुए देखकर भगवान विष्णु ने मेरे पास आकर मुझे समझाया कि इस प्रकार रोने से काम न चलेगा। तुम भगवान सदाशिव की तपस्या करो। मैंने भगवान सदाशिव की कठिन तपस्या की। भगवान सदाशिव की कृपा से मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि यदि भगवान श्री सदाशिव स्वयं मेरे पुत्र बनकर अवतार ध कारण करें तो सृष्टि की उत्पत्ति का कार्य भली-भाँति सम्पन्न हो सकता है। यह विचार करके मैंने तप किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि भगवान शंकर जी मेरी भौहों के मध्य से प्रकट हुए उनके मस्तक में गंगा की धारा तथा जटायें शोभा पा रही थी। भाल में त्रिपुण्ड धारण किये हुए थे। उनके पांच मुख चार हाथ थे।


                                                             दूसरा अध्याय

  शंकरजी का कुपत्रों को उत्पन्न करना तथा सुपुत्रों को उत्पन्न करने के लिए ब्रह्मा को कहना


 ब्रह्माजी बोले- नारद! भगवान श्री सदाशिव के उस रूप ने जिसको कि मैं माया के वश होकर अपना पुत्र समझ रहा था, मेरे पास आकर कहा-आज्ञा दीजिये। मैं आपकी तथा वेद की आज्ञानुसार कार्य करने के लिये तैयार हूँ। भगवान शंकर जी के यह वचन सुनकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मेरी आज्ञानुसार भगवान शंकर जी ने भूत, प्रेत, पिशाच, कुश्माण्ड, बेताल तथा ब्रह्म राक्षसों को उत्पन्न किया। जिनको देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ और मैंने उनसे कहा कि इन कुपुत्रों को तुम अभी नष्ट कर दो और श्रेष्ठ पुत्रों को उत्पन्न करो। 


मेरी बात सुनकर भगवान श्री सदाशिव ने कहा- नहीं! मैं ऐसी सृष्टि उत्पन्न नहीं करूँगा कि जिसको मरना जीना पड़े। उनको आप स्वयं ही उत्पन्न कीजिये उनमें से जो प्राणी चिन्ताओं को त्यागकर परमानन्द में मग्न होंगे उनको मैं मोक्ष प्रदान करूँगा। इस प्रकार कहकर श्री शंकरजी ने अपनी माया को खींच लिया। तब मुझे ज्ञान हुआ और फिर मैंने नत मस्तक होकर उनको प्रणाम किया। उन्होंने उठाकर मुझे अपने कण्ठ से लगाया। उसी समय सनक आदि ने आकर उनको प्रणाम किया और स्तुति करने लगे। भगवान सदाशिव ने मुझे सद्बुद्धि प्रदान की और इसके पश्चात नीललोहित भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गये।


                                                              तीसरा अध्याय

                                   ब्रह्मा जी का काल तथा सृष्टि व अन्य पदार्थों की रचना करना


श्री ब्रह्माजी बोले- नारदजी! इसके पश्चात मैंने नीललोहित भगवान शंकर जी की आज्ञानुसार शब्दादि पंज भूतों द्वारा पंचीकरण करके उनके स्थूल आकाश वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी समुद्र वृक्षादि और कालादि युग पर्यन्त कालों की रचना की तथा सृष्टि के और भी बहुत से पदार्थों की मैंने रचना की। किन्तु जब इससे मुझे सन्तोष न हुआ तो मैंने उमा सहित भगवान शंकर जी का ध्यान करके अपने नेत्रों से मारीचि को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरो को, कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को, अपान से केतु को, कानों से अत्रि को, प्राण से दक्ष को, गोदी से तुम्हें, (नारद जी को) उत्पन्न किया इसके बाद मैंने अपने दो रूप बनाये। मैं आधे से नारी और आधे से पुरुष हुआ। नारी रूप तो शत रूप था और पुरुष स्वायम्भुव मनु था। उन दोनों का परस्पर विवाह हुआ। इसके पश्चात श्री मनुजी के यहाँ प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र हुए। आकृति देवहूति और प्रसूति नामक तीन कन्यायें हुई। बाद में आकृति का विवाह महिर्ष रुचि के साथ, देवहूति का महर्षि कर्दम के साथ और प्रसूति का दक्ष प्रजापति के साथ हुआ।


आकृति और रुचि के यहाँ बारह पुत्र हुए। देवहूति और कर्दम के यहाँ बहुत से पुत्र और दक्ष के यहाँ चौबीस कन्यायें उत्पन्न हुई। उनमें से १३ कन्यायें दक्ष ने धर्म को दी, उनके नाम यह हैं श्रद्धा, लक्ष्मी, धृष्टि, तुष्टि, पुष्टि, मेघा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वगु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति फिर उनसे छोटी ११ कन्यायें ख्याति, सत्पूथ, संमूति, स्मृति, प्रीति, क्षम, सन्नति, अनुरूपा, ऊर्चा, स्वाहा और स्वधा को क्रमशः भृगु, भव, मरीचि, अंगिरा, मुनि पुलस्त्य, पुलहक्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, बहिन और पितर के साथ ब्याही, जिनकी सन्तान से समस्त त्रिलोकी भर गई। फिर तो भगवान सदाशिव की आज्ञा के अनुसार असंख्य जातियों की उत्पत्ति हुई और जिसमें ब्राह्मण श्रेष्ठ हुये। 



दक्ष की साठ कन्याओं की सन्तानों से पाताल से लेकर सत्यलोक तक सब चराचर जगत व्याप्त हो गया और रत्ती भर भी स्थान खाली न रहा। नारद इस तरह मैंने भगवान सदाशिव की आज्ञानुसार सृष्टि की रचना की और भगवान श्री सदाशिव ने अपने भक्तों के उद्धार के लिये बहुत सी लीलायें की। जिनका वाम अंग बैकुण्ठ तथा दायां अंग मैं (ब्रह्मा) हूँ। इस प्रकार ब्रह्मा विष्णु और रुद्र यह तीन गुण प्रधान हुए। सत, रज, तम तीनों गुणों में प्रधान हूँ। इन तीनों गुणों में से रजोगुण वाली सुरा देवी सतोगुण वाली सती और तमोगुण वाली लक्ष्मी प्रगट हुई। सती के सती पार्वती और शिवा (उमा) यह तीन रूप है। जिनमें से शिव सती के रूप में भगवान शंकर के साथ ब्याही गई और पिता के यहाँ यज्ञ में अपने शरीर को त्यागकर अपने पद को प्राप्त हुई और फिर पार्वती होकर तप करके भगवान शिवजी को प्राप्त किया। कालिका, चण्डिका भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, ज्योति, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अम्बा, मृडादी यह नाम पार्वती के ही हैं। फिर देवियों और तीनों देवताओं ने मिलकर अनेक प्रकार की उद्यम सृष्टि की।



                                                               चौथा अध्याय


               नारद जी के कहने पर ब्रह्मा का ब्रह्मलोक विष्णुलोक और शिवलोक वृतान्त सुनाना


श्री ब्रह्माजी से यह कथा सुनकर श्री नारदजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनको नमस्कार करके विनयपूर्वक कहा-प्रभु! अब आप मुझे ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक का वृतान्त सुनाइये। ब्रह्माजी कहने लगे-हे नारद! मेरे लोक का नाम सत्यलोक है। जिसकी लम्बाई सोलह करोड़ योजन है। यहाँ पर रत्नों तथा मणियों के भरे हुए स्वर्ण-मन्दिर, उपवन, कुएं, तालाब और सुगन्धि त पुष्पों वाली पुष्प वाटिकायें हैं। भगवान विष्णु लक्ष्मी सहित अपने भक्तों को सुख देते हुए वहाँ निवास करते हैं और सदा-सदैव भगवान शंकरजी के ध्यान में मग्न रहते हैं। हे नारद! अब मैं उस लोक का वर्णन करता हूँ। जो स्वर्ग से भी ऊपर और चिन्ताओं से भी मुक्त है, उसको स्वामी कार्तिक का लोक कहते हैं, उसका वर्ग चौसठ योजन है। शोक, मोह तथा माया से रहित है, वहाँ प्रत्येक स्थान पर आनन्द ही आनन्द है। वहाँ पर लोगों के घर रत्नों से भरे पड़े हैं। वहाँ के स्वामी, कार्तिकेयजी हैं। जिन्होंने तारकासुर का संहार किया है। वह भगवान शिव के पुत्र हैं। षडाक्षर मन्त्र का जाप करते हुए वह वहाँ पर भगवान सदाशिव में लीन रहते हैं। 


इस लोक के ऊपर शक्तिलोक है। जहाँ पर शक्ति रूपा जगतमाता निवास करती हैं। उन्हीं जगतमाता शक्ति की कृपा से मैंने सृष्टि की रचना की है। सूर्य, चन्द्र और इन्द्र सदा इन्हीं जगत माता के चरणों का ध्यान करते हैं। वह भगवान शिव को अत्यन्त प्रिय है। उनके अंशों से ब्रह्माणी और रमा भी उत्पन्न हुई है। स्वाहा, स्वधा, सिधा, विश्वा और इन्द्रानी इत्यादि भी उन्हीं के अंश से हैं। शक्तिलोक अत्यन्त आकर्षक व रमणीक स्थान है। उसके कपाट मणियों के बने हुए हैं। उसका विस्तार अट्ठाईस करोड़ योजन है। वहाँ शक्ति और उनकी सहेलियाँ निवास करती हैं। शक्तिलोक के ऊपर शिवलोक है। वहाँ पर मोह, चिन्ता, दुख आदि का नाम भी नहीं है। वहाँ करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश है। वहाँ के घर मणियों से जड़े हुए हैं, अप्सरायें नृत्य करती हैं और स्थान-स्थान पर बाग-बगीचे और पुष्प वाटिकायें हैं। भगवान शिवजी के निवास स्थान के निकट उनके भक्तों के भी निवास स्थान हैं। वहाँ पर उनके पचास हजार सेवक निवास करते हैं। वहाँ की पृथ्वी रत्नमयी है। उनका विस्तार दो सौ करोड़ योजन है। मध्य में एक बहुत बड़ा चिन्ताहरण मंदिर बना हुआ है, जिसको देखकर मनुष्य के मन में अपने आप भक्ति उत्पन्न होती है।


वहाँ पर करोड़ों सूर्य एक साथ ही प्रकाशमान होते हैं। वहां की दीवारें हीरों की बनी हुई है। खम्बे तथा किवाड़ भी मणियों के बने हुए हैं। उस मंदिर के भीतर एक दिव्य विमान पर भगवान सदाशिव विराजमान हैं। जिनके स्वरूप को मैं और विष्णुजी भी नहीं जान सके। वहाँ पर विष्णु की एक शाखा है, जिसका नाम धेनुलोक है, उसके स्वामी भगवान श्रीकृष्णचंद्र जी महाराज हैं।


                                                              पाँचवाँ अध्याय


         नारद जी का संसार के कल्याण के लिए शिवजी के विषय में विस्तारपूर्वक पूछना


श्री ब्रह्माजी से यह कथा सुनकर नारदजी ने नमस्कार करके विनयपूर्वक कहा- ब्रह्माजी! आपने सबसे ऊपर शिवलोक का वर्णन किया है। संसार में तो यह प्रसिद्ध है कि भगवान शिवजी का स्थान कैलाश है। और शिवलोक को जाने वाला उस कैलाश पर्वत पर जाता है। अब मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जिस भगवान सदाशिव का आपने वर्णन किया है, क्या यह वही कैलाशवासी सदाशिव हैं या कोई दूसरे हैं?


नारदजी की यह बात सुनकर श्री ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा करने लगे- नारद मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ क्योंकि तुम सब कुछ जानते हुए भी संसार के कल्याण के लिए इस प्रकार प्रश्न कर रहे हो, सज्जन पुरुषों का यही काम है। अतः मैं अब तुमको वही कथा सुनाता हूँ। भगवान श्री सदाशिव ब्रह्म सगुण रूप महेश्वर हैं। उनके स्थान-काशी, आनन्द वन, ब्रह्मवन इत्यादि हैं। तुम्हें स्मरण होगा कि जब मैंने भगवान श्री सदाशिव से सहायता की प्रार्थना करते हुए अवतार धारण करने के लिये कहा था। तब उन्होंने मुझे वचन दिया था कि समय आने पर ऐसा ही होगा। इसके पश्चात वह अन्तर्ध्यान हो गये और यथासमय उन्होंने अपना वचन पूरा भी किया। मेरे मनोरथ पूर्ण करने के लिये वह कैलाश पर्वत पर आये और कठिन साधना में लग गये। वही कथा अब तुमको सुनाता हूँ।


कपिलपुरी में यज्ञदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। यज्ञदत्त विद्या में पारंगत था। उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम उसने गुणनिधि रखा। बालक बड़ा बुद्धिमान तथा चतुर था। आठ वर्ष की छोटी सी आयु में ही उसने बहुत सी विद्यायें सीख ली थी, परन्तु वह कुमार्ग में पड़कर अपने धर्म और कर्म से भटक गया। वह जुआरी, खेलकूद में संलग्न और गाने बजाने वालों का साथी बन गया। उसने बहुत जल्दी ही अपने पिता की सम्पत्ति लुटा दी। उसकी माता उसे बहुत रोकती थी, परन्तु प्रेम के कारण सम्बन्ध में उसके पिता को कुछ न बताती थी। पुत्र चाहे कितना ही बुरा हो परन्तु माता कभी भी उसका बुरा नहीं चाहती।


                                                               छठवाँ अध्याय

                                                   यज्ञ दत्त व उसके पुत्र का वर्णन 


यज्ञदत्त जब कभी भी घर आकर अपनी पत्नी से गुणनिधि के सम्बन्ध में पूछता कि इस समय गुणनिधि कहाँ है? तो वह सदा झूठ बोल देती और कह देती कि घर से बाहर गया हुआ है। या तो वह कहीं स्नानादि कर रहा होगा या देव मन्दिर में बैठकर भगवान का पूजन कर रहा होगा। यज्ञदत्त अपने पुत्र के सम्बन्ध में इस प्रकार हमेशा अंधेरे में ही रहा। असली भेद न जानते हुये उसने गृह्यसूत्र के अनुसार गुणनिधि का विवाह भी कर दिया। विवाह हो जाने के पश्चात यज्ञदत्त की पत्नी सदा पुत्र को समझाती कि तुम्हारे पिता बड़े महात्मा हैं। अतएव उसके साथ ही बड़े भारी क्रोधी भी हैं। जब उनको तुम्हारे बारे में मालूम होगा तो इसके लिये तुम्हें और मुझे दोनों को ही दण्ड देंगे। तुम्हारा कुल बड़ा पवित्र है फिर तुम यह बुरे काम क्यों करते हो। परन्तु गुणनिधि पर माँ के समझाने का कुछ भी प्रभाव न पड़ता।


                                                                 सातवाँ अध्याय


                यज्ञदत्त का अपने पुत्र के बारे में अपनी पत्नी से पूछना पत्नी द्वारा झूठ बोलना


जब कभी यज्ञदत्त अपनी पत्नी से अपने पुत्र के बारे में पूछता तो वह बात बनाकर उसको टाल देती। आखिर कब तक? एक दिन उसने पिता की अंगूठी चुराकर किसी जुआरी को दे दी। जब यज्ञदत्त ने उस जुआरी से पूछा कि यह अँगूठी उसके हाथ में कैसे आई है। तो जुआरी ने यज्ञदत्त से कहा कि उसने उनकी अँगूठी नहीं चुराई किन्तु उसके यहाँ तो ऐसी बहुत सी अँगूठियाँ मौजूद हैं। क्या मेरी अँगूठी देखकर आपकी नीयत तो नहीं बिगड़ गई? यज्ञदत्त ने जुआरी की बात सुनकर कहा-सुनो लल्ला ! यह अँगूठी मेरी है और मुझे राजा के यहाँ से मिली है। तुम झूठ बोलकर इसे अपनी न बताओ। परन्तु यह बताओ कि यह अंगूठी तुम्हारे पास कैसे आई है? यज्ञदत्त की बात सुनकर जुआरी को क्रोध आ गया, उसने गरजकर कहा- जो सच सुनना चाहते हो तो ध्यानपूर्वक सुनो। यह अँगूठी तुम्हारे पुत्र ने मेरे पास जुए में हारी है। उसने यही अंगूठी ही जुए में नहीं हारी किन्तु आज तक जुए में बहुत सा धन भी घर से चुराकर हारा है। आप जितने ही सज्जन, साधू तथा धर्मात्मा हैं, आपका पुत्र उतना ही बड़ा बदमाश है। दुःख इस बात का है कि आप इतने बड़े विद्वान होते हुए भी आज तक अपने पुत्र की करतूतों को नहीं जान सके?


जुआरी की बात सुनकर यज्ञदत्त का मारे लज्जा के बुरा हाल हो गया। वह मारे लज्जा के मुँह ढांपे हुये तथा सिर झुकाये हुये अपने घर पहुँचा और घर आने के साथ ही अपनी पत्नी से पूछा कि गुणनिधि कहाँ है? वह अँगूठी कहाँ है जो कि उस दिन तूने उबटना करते मेरे हाथ से ले ली थी? मुझे उसकी आवश्यकता है, उसे लाकर मुझे दे। यज्ञदत्त की बात सुनकर उसकी पत्नी ने उत्तर दिया। 'वह अँगूठी मैंने यहीं कहीं रख दी थी? अब मुझे याद नहीं आ रहा है कि कहाँ रखी थी?' स्त्री की बात सुनकर यज्ञदत्त ने कहा तुम झूठी हो। जब कभी भी मैंने तुमसे गुणनिधि के बारे में पूछा है तुमने मुझे झूठी बात बनाकर टालने की कोशिश की है। अच्छा तुम अँगूठी की बात जाने दो और मुझे बताओ कि घर का अन्य बहुमूल्य सामान कहाँ है? न जाने मेरे किन पापों के कारण मेरे यहाँ ऐसा पुत्र पैदा हुआ है। फिर जब उसने घर का दूसरा कीमती सामान देखा तो मालूम हुआ कि सभी बहुमूल्य वस्तुएं गायब थी। इस पर यज्ञदत्त ने हाथ में जल लेकर पत्नी और पुत्र को तिलाञ्जलि दे दी और एक ब्राह्मण की कन्या से अपना दूसरा विवाह भी कर लिया।



                                                                 आठवाँ अध्याय


                                            यज्ञदत्त का अपने पुत्र व पत्नी को तिलांजली देना


 जब गुणनिधि को मालूम हुआ कि उसके पिता को सारा भेद मालूम हो गया है और उसने उसे और उसकी माँ को तिलांजली दे दी है तो उसको बड़ा दुःख हुआ वह अपनी करनी पर पछताने लगा। वह भूखा प्यासा शिव मन्दिर के पास जाकर बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि का व्रत था। लोगों ने मन्दिर में आकर भगवान शिव का पूजन किया, फिर तरह-तरह के पकवान तथा खाद्य सामग्री ऊपर चढ़ाई। जब लोग भगवान का पूजन आदि करके मन्दिर में ही सो गये तो गुणनिधि ने मन्दिर के भीतर प्रवेश किया और खाने पीने का सामान उठाकर बाहर की ओर भागा। मगर चलते-चलते उसका पैर एक सोते हुऐ शिव भक्त से टकरा गया। फिर क्या था उस भक्त के मुँह से 'चोर-चोर' का शब्द सुनकर सभी लोक जाग उठे और दौड़ते हुये गुणनिधि का पीछा किया। बहुत से नागरिक भी उन भक्तों के साथ •मिल गये। अन्त में उन लोगों ने दौड़ते हुये गुणनिधि को पकड़ लिया और सबने मिलकर उसको ऐसा मारा कि वह मर गया। उसके मरने के साथ ही यमदूतों ने आकर उसे घेर लिया और निर्दयतापूर्वक उसे मारने लगे। उध र भगवान सदाशिव ने अपने गणों से कहा यदि गुणनिधि बड़ा पापी, दुराचारी और कुकर्मी है। फिर भी उसने शिवरात्रि का व्रत रखकर जागरण किया। हमारे पूजन को देखा है। हमारे दर्शन किये हैं। दीपक से लिंग शरीर पर गिरती हुई छाया को इसने निवारण किया है। रात्रि में अपना वस्त्र फाड़कर उसमें बत्ती डाली है। प्रसंगवश उसने हमारे गुणों का श्रवण किया है तथा ऐसे ही और धर्म कार्य किये हैं। अतः वह हमारे लोक को आयेगा और कुछ दिनों तक यहाँ रहेगा। उसके पश्चात यह कलिंग देश का राजा होगा। तुम लोग वहाँ जाकर गुणनिधि को यमदूतों के बन्धन से मुक्त करो। क्योंकि हमने उसे अपना लिया है। अतएव भगवान सदाशिव की आज्ञा पाकर विमान पर बैठकर, शूलधारी, उनके पार्षद भी घटना स्थान पर आन पहुँचे और बोले 'यमराज के गणों! तुम अब इस परम धर्मात्मा ब्राह्मण को छोड़ दो क्योंकि अब इसमें कोई पाप शेष नहीं रहा। '

यमदूतों ने भगवान श्री सदाशिव के पार्षदों से कहा-यों तो आपकी आज्ञा हमारे सिर माथे पर है। मगर यह तो दुष्ट, महापापी, कुकर्मी, माँस तथा मदिरा का प्रयोग करने वाला, परस्त्री तथा वेश्यागामी, माता पिता की आज्ञा न मानने वाला, चोर तथा जुआरी है। हम लोग इसीलिये इसको ले जा रहे हैं। यमदूतों की बात सुनकर शिव के पार्षदों ने कहा- तुम मूर्ख हो। यह ब्राह्मण पापी नहीं है। इसका सबसे बड़ा धर्म तो यह है कि इसने पुराना कपड़ा जलाकर शिवालय में प्रकाश किया। रात्रि भर जागरण किया, स्थिर चित्त से शिवालय के द्वार पर बैठकर इसने भगवान श्री सदाशिव के पूजन को देखा और हरि कीर्तन सुना। इसीलिये भगवान श्री सदाशिव की इच्छानुसार यह कलिंग देश का राजा बनाया जायेगा और इस प्रकार कहने के पश्चात् भगवान श्रीसदाशिव के पार्षद गुणनिधि को अपने साथ ले गये।


                                                                       नवाँ अध्याय


                                          शिवरात्रि के व्रत के कारण गुणनिधि का शिवलोक जाना


यमदूतों से मुक्ति पाकर गुणनिधि भगवान श्री सदाशिव के पार्षदों के साथ विमान पर चढ़कर शिव लोक को गया।यमूदतों ने जाकर सारा वृतान्त यमराज से कहा, जिसे सुनकर यमराज ने कहा- जो व्यक्ति भस्म रमाये हुये हो, रुद्राक्ष की माला धारण किये हुए हो। शिव लिंग का पूजन करता हो और श्री सदाशिव के गुणों का गान करता हो, छल से ही सही, उसके पास बिलकुल न जाना। दूतों से यह कहकर यमराज ने भगवान श्री सदाशिव को प्रणाम करके कहा-आप मेरे इस अनजाने दोष को क्षमा कर दें।

अब गुणनिधि की कथा सुनिये यमदूतों से मुक्ति पाकर जब गुणनिधि शिवलोक को गया तो कुछ दिन तक वहाँ सुख भोगकर वह कलिंग देश का राजा हुआ। कलिंग देश के पहले राजा का नाम इन्द्रमणि था। गुणनिधि ने उसके यहाँ अरिन्दम के नाम से जन्म लिया। अरिन्दम भगवान श्रीसदाशिव का अनन्य भक्त था। महाराजा इन्द्रमणि अपने पुत्र में उदारता, धीरता तथा वीरता इत्यादि गुण देखकर उसे राज्य पाट देकर आप तप करने के लिये चले गये।


अरिन्दम ने सिंहासन पर बैठने के साथ प्रजा को यह आज्ञा दी कि सब लोग शिवालय में प्रतिदिन रात्रि को दीपक जलाया करें। यदि कोई इस आज्ञा को नहीं मानेगा तो उसका सिर घड़ से अलग कर दिया जायेगा, इस आज्ञा से राज्य भर के समस्त शिवालय प्रकाश से जगमगा उठे। राजा अरिन्दम ने अपने न्याय से प्रजा को प्रसन्न किया। दीर्घकाल तक वह राज्य का सुख भोगकर शिवलोक को गया। हे नारद! शिवजी की थोड़ी सी सेवा भी बहुत फलदायक प्रमाणित हुई। यज्ञदत्त के पुत्र गुणनिधि का यह चरित्र जो सुनेगा, उसकी समस्त कामनायें पूर्ण होंगी और उसको बड़ा सन्तोष प्राप्त होगा। अब तुम मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य का हाल सुनो। मेरे पहले पदम कल्प में, मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ था। जिसके यहाँ एक वेश्रवण नाम का पुत्र हुआ था। 


जिसने भगवान श्री सदाशिव का उग्र तप किया। उसके उग्र तप को देखकर भगवान शंकर ने प्रकट होकर उसको साक्षात दर्शन दिए। भगवान श्री शंकर को देखकर वेश्रवण ने कहा-प्रभु आपके अपरमित तेज को देखकर मेरे नेत्र अपने आप बन्द होते जा रहे हैं। अतः मुझको इतनी सामर्थ्य दीजिये जिससे कि मैं आपके चरणों के दर्शन कर सकूँ। यह वेश्रवण यज्ञदत्त का पुत्र गुणनिधि ही था भगवान सदाशिव ने गुणनिधि की भक्तिपूर्ण बात सुनकर उसके मस्तक पर हाथ फेरा । प्रभु की कृपा भरा हाथ फेरने के साथ ही गुणनिधि में दिव्य तेज का अवलोकन करने की शक्ति आ गई। उसने भगवान श्री सदाशिव के साथ शिवा को देखा तो वह सोचने लगा कि यह गुणवती तथा रूपवती स्त्री कौन है? जो अकारण ही गुण के मन को मोहित करती है। यह बड़ी सौभाग्यवती है जो भगवान के इतनी निकट रहती है, इसके माता पिता भी धन्य हैं, जिन्होंने कि ऐसी रूपवती कन्या को जन्म दिया है। इस प्रकार बार-बार विचार करते हुए राजा वेश्रवण ने भगवती शिवा को कुदृष्टि से देखा। पार्वतीजी को क्रूर दृष्टि से देखते ही उसका बायाँ नेत्र फूट गया। भगवती शिवा ने भगवान श्री सदाशिव से कहा-यह कैसा तपस्वी और भक्त है जो कि मुझको पापदृष्टि से देखता है?


भगवती शिवा की बात सुनकर भगवान श्री सदाशिव ने कहा- देवी इस तपस्वी ने बड़ा उग्र तप किया है, इसलिये इसका अविश्वास करना ठीक नहीं। यह तुम्हारा पुत्र है, अतः यह तुम्हें पाप दृष्टि से नहीं देख सकता। अपितु यह तो तुम्हारी तपस्या की सहारना कर रहा था, अतः मैं इसे निधियों का स्वामी बनाऊँगा, यह वसुओं का ईश्वर होगा।


इतना कहकर भगवान श्रीसदाशिव ने वेश्रवण से कहा-वत्स! तुम क्या चाहते हो? जो इच्छा हो सो वर माँगो। मेरे आशीर्वाद से तुम वसुओं के स्वामी होंगे। इसके पश्चात हम तुम दोनों मित्र रूप से कैलाश पर जाकर निवास करेंगे। अब तुम भगवती शिवा के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा की याचना करो, यह तुम पर दया करके मानसिक पाप से मुक्त कर देंगी। इसके पश्चात इन्होंने भगवती शिवा से कहा- देवेशि ! तपस्विनी! इस अपने अंगज पुत्र पर प्रसन्न होओ।


भगवान सदाशिव की बात सुनकर शिवा ने अपना क्रोध शान्त किया और कहा-पुत्र! अब तुम मेरे पुत्र हुए। शिव की भाँति मैं भी तुम पर दयालु हूँ। अब से तुम्हारा नाम कुबेर होगा। तुम्हारा स्थापित किया हुआ यह शिवलिंग सिद्धियों को देने वाला होगा और पूजन करने से पापों को नष्ट करके मोक्ष का देने वाला होगा फिर भगवान श्री सदाशिवजी ने वैश्वेश्वर नामक स्थान में गुणनिधि या वेश्रवण को कुबेर बनाकर प्रवेश करा दिया और स्वयं उसकी अलकापुरी नामक महानगरी के समीप ही अपना कैलाश नामक स्थान नियुक्त किया।


वेश्रवण को वरदान प्रदान करके भगवती शिवा के साथ भगवान श्री सदाशिव अन्तर्ध्यान हो गये। भगवान सदाशिव की कृपा से वह अनन्त धन रत्नों के स्वामी हुए और अलकापुरी का राज्य प्राप्त करके शिव मित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे नारद! गुणनिधि की कथा मैंने तुमको विस्तार पूर्वक सुनाई है। जो सदा आनन्द की देने वाली है और तनिक चेष्टा से महान आनन्द देने वाली है। गुणनिधि के समान पापी भी बिना इच्छा से भूखा रहने पर शिवरात्रि का व्रत करने वाला समझा गया। भगवान श्री सदाशिव के बराबर भला और कौन दयालु होगा?





               श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता तीसरा (पार्वती) खण्ड प्रथम अध्याय





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