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श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता प्रथम (सृष्टि) खण्ड प्रथम अध्याय

                                                       ॥ ॐ नमः शिवाय ॥


                                                           श्री शिव महापुराण


                                               रुद्रसंहिता प्रथम (सृष्टि) खण्ड



                                                                प्रथम अध्याय


                    महर्षि शौनकादि का सूतजी से शंकरजी की महिमा सुनाने का आग्रह करना


पुरातन काल की कथा है कि भगवान श्री वेदव्यास जी महाराज के शिष्य एवं परम पौराणिक श्री सूतजी महाराज श्री गंगाजी और कालिन्दी के संगम स्थल पर श्रीशंकर भगवान की नगरी में त्रिभुवनपति श्री शिवजी की घोर तपस्या में लीन थे। उसी समय वहाँ पर महर्षि शौनकजी अपने साथ अनेक ऋषियों सहित पधारे। वे श्री सूतजी महाराज को शिव की उपासना में मग्न देखकर अपने हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर श्री सूतजी से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु! दीनानाथ! आप हमारी भव-बाधा दूर करो। हमारे अज्ञान का नाश करते हुए ज्ञान के चक्षुओं को खोलो। हमारा हृदय बड़े संशय से घिर गया है। हे ज्ञानेश! आगे कलियुग आ रहा है, जो घोर संकट का समय है। इस कलयुगरूपी अज्ञान से हमें मुक्ति का मार्ग बतलाइये। हम सभी ऋषिगण आपके चरणों के दर्शन करने के लिये आये हैं। सौभाग्यवश आपके दर्शनों को प्राप्त कर हम सुख का अनुभव करते हैं। हे मुनिश्वर! इस समय अत्यन्त भयंकर पापयुक्त समय आ गया है और आगे भी इससे अधिक भयंकर समय आने वाला है। हमें ऐसा जान पड़ता है कि कलिकाल में जीव घोर पापी हो जायेगा। जीव अपने सत्य सनातन धर्म को छोड़कर अधर्म करने लगेगा। वैदिक धर्मानुसार न चलकर निंदित कार्य करके निन्दा का पात्र बन जायेगा। प्राणी असत्यवादी, धन के लोलुप, सत्कर्म रहित, पाप कर्मों को करने लगेगा और कलियुग के प्रभाववश आदमी जाति कर्मों को छोड़कर एवं जप, तप, तीर्थ इत्यादि को भुलाकर केवल पाखण्ड को करने लगेगा। उनसे यम, नियम तथा संयम कुछ भी न हो सकेगा। आज्ञानुसार होकर, इन्द्रियों के दास बनकर, व्यभिचार आदि कुकर्मों में पड़कर पापमय जीवन व्यतीत करने लगेगा, सत्य को त्यागकर, धर्म को छोड़कर असत्य को ग्रहण करेंगे। सारी वर्ण व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जावेगी। ब्राह्मण अपने कर्मों को छोड़कर क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के कर्मों को करने लगेंगे, इसी प्रकार क्षत्रिय वैश्य भी अपने जातीय कर्मों को छोड़कर अपने जाति कर्तव्य को भुला देंगे। ब्राह्मण-वैश्य, क्षत्रिय-ब्राह्मण, शूद्र-वैश्य, वैश्य-क्षत्रिय बनने का दावा करेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी वर्ण अपने जातीय कर्मों से विमुख होकर अधर्म आचरण को अपना लेंगे और घोर पाप कमाने लगेंगे। देव, गुरु, काम, क्रोध और अहंकार में फंसकर इस पापरूपी अथाह सागर में शूद्र यज्ञोपवीत धारण करेंगे और ब्राह्मण कहलायेंगे। इस प्रकार पाप-ताप से पीड़ित होकर अपनी आयु को कम कर लेंगे। शूद्र मन्दिरों में घुसने का प्रयत्न करेंगे। ब्राह्मण, वैश्य मांस मदिरा का पान करने लगेंगे। क्षत्रिय वैश्यगामी, कुसंगी और भ्रष्टाचारी होंगे। स्त्रियाँ अपने पुरुषों को छोड़कर परपुरुष तथा पुरुष अपनी स्त्री को छोड़कर अन्य स्त्री पर कामान्धवश पाप के भागी होंगे। वैश्यायें सत्यवती नारी बनने का दावा करेंगी तथा सती स्त्री लांछनयुक्त हो जावेंगी। पिता-पुत्र, माँ-बेटी, गुरु-शिष्य का निरादर करने लगेंगे। जप, तप, शील बिल्कुल नष्ट हो जायेगा। पुरुष स्त्रियों को अपने भोग विलास की वस्तु समझकर उसका भोग करेंगे। ब्राह्मण केवल यज्ञोपवीत से माने जायेंगे। चतुर व्यक्ति अपने दम्भ तथा चालाकी से पूजे जावेंगे। सिंगार केवल कलि पूजा की तीन सामग्री (कंघा, शीशा, सुरमेदानी) बालों को संवारना ही होगा। पाप कर्म करके अपने परिवार का पालन करने वाला ही व्यक्ति धनवान तथा बुद्धिमान समझा जावेगा। तीर्थ यात्रा करना पाप समझा जावेगा। इस कलिकाल में आसुरी प्रभाववश सज्जन पुरुष चिराग तले मिलना भी कठिन होगा। दुष्ट सज्जन, सज्जन दुष्ट समझा जायेगा। इस कारण हे प्रभु! कलियुग में प्राणी मात्र सद्गति को किस प्रकार प्राप्त होंगे इसलिये आप हमको अपने ज्ञान द्वारा हमारा मार्ग दर्शन करिये। जिससे हमारा तथा


सभी मनुष्यों का कल्याण होगा। हे भगवन्! दयालु गुरु! अपने शिष्यों से गूढ़ से गूढ़ भी भेद नहीं छिपाते हैं। फिर आपके समान इस संसार में कोई दूसरों का उद्धार करने वाला है भी नहीं। आप भगवान श्री वेदव्यासजी महाराज के प्रिय शिष्य हैं। आपने उनसे सभी वेद पुराणों के सार को ग्रहण किया है। सो हे ज्ञानेश! हमारे इस अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करके इस आने वाले कलिकाल में पापमय समय से बचने के उपाय को समझाकर हमें मुक्ति के समार्ग को बतायें जिससे हम सभी जीवों का कल्याण होवे। हे प्रभु! हमारे इस संशय को दूर करो।


ऋषियों की बात सुनकर परम पौराणिक श्रीसूतजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और थोड़ी देर तक भगवान श्री शंकरजी के चरणों का ध्यान धरकर शौनिकादिक ऋषियों से कहने लगे- हे वत्स शौनक तथा अन्य ऋषिगण! आप धन्य हैं जो कि आप लोगों ने त्रिलोक जीव हितकारी अति उत्तम प्रश्न मुझसे किया है। सुनो मैं आप सबके सन्मुख भगवान श्री शंकरजी की वह कथा कहूंगा जिसके श्रवण करने मात्र से ही कलिकाल के वे सभी पाप नष्ट हो जावेंगे। भगवान श्री शिव का यह चरित्र, परमार्थकारक, वेदान्तसार है। भगवान श्री शंकरजी के चरणों में प्रीति रखने वाला कलिकाल के सभी पापों से मोक्ष पा जाता है। मस्तक पर भस्म का लेप करके भगवान श्रीशंकर जी के शिवलोक को प्राप्त होता है। इनको नमस्कार करने वाला व्यक्ति पुत्र-पौत्रों के सुख का भागी होता है। हे ऋषिगणों! आप सब ध्यानपूर्वक सुनो! मैं आपके सन्मुख त्रिलोकपति भगवान श्रीशंकरजी की वह कथा कहता हूँ, जिसके श्रवण मात्र से ही कलिकाल की सारी व्याधा ऐसे नष्ट हो जाती है जैसे गरम तवे पर पानी की बूंद नष्ट हो जाती है। भगवान शंकरजी का यह चरित्र कलिकाल के सभी पापों का नाश करने वाला है। भगवान शिवजी के चरणों में प्रेम करने वाला इस भूमण्डल के अनेकों पायों से मुक्ति पाकर मोक्ष पा जाता है। उनका यशगान करके लाखों मनुष्यों को परमपद की प्राप्ति होती है। भगवान शंकर के भक्त ब्रह्मघात, हिंसा, मदिरापान और व्रत तोड़ने इत्यादि के पापों से विमुक्त हो जाते हैं। अतः प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि इस संसार को दुःख का रूप जानकर भगवान श्री शंकरजी का ध्यान करें। कमल के पत्ते पर जल के समान शिव भक्तों के पास पाप फटकने भी नहीं पाते। शौनक इत्यादि ऋषिगण परम पौराणिक श्रीसूत जी महाराज के ऐसे वचन सुनकर हाथ जोड़कर बैठ गये और ऋषिगणों की ओर से शौनक जी ने प्रश्न किया- हे भगवन्! श्री शिवजी महाराज निर्गुण रूप कैसे हैं? वह आप हमको समझाइए कि भगवान श्री शंकरजी ने इस संसार चक्र की रचना क्यों की तथा वे स्वयं कैसे उत्पन्न हुए? क्या संहार अथवा प्रलय के समय भगवान शिवजी कैसे अवतार धारण करके अवतरित होते हैं, क्या कार्य करते हैं तथा वे अपने भक्तों के वश में होकर कैसे भक्तों का कल्याण करते हैं ?


हे भगवान! आप गुरु कृपा से भूत, भविष्य तथा वर्तमान तीनों काल के विषय में पूर्ण ज्ञानी हैं। हमारे माता-पिता व गुरु आप ही हैं। इस संसार में आपके समान कोई दूसरा संयम आदि नियमों का पालन करने वाला नहीं है। आपने भगवान से सभी कुछ श्रवण किया है। सौभाग्यवश आपसे हमारी भेंट हो गयी है। बिना सौभाग्य के आपके दर्शन दुर्लभ हैं। हे प्रभु! आप कलिकाल के पापों को नष्ट करने वाली भगवान श्री शंकरजी की परम पावन कल्याणकारी कथा सुनाकर हमारे इस जीवन को सार्थक कीजिये। हे पापमोचन! हे जगतपिता! हमारा इस संकट से उद्धार कीजिये।



                                                       दूसरा अध्याय


       नारद जी का तप करना इन्द्र द्वारा कामदेव को भेजना कामदेव का असफल होकर लौटना


ऋषिगणों के ऐसे वचनों को सुनकर परम पौराणिक सूतजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले-हे ऋषिगणों! जो प्रश्न इस समय मुझसे आपने किया है। यही प्रश्न  एक समय देवर्षि नारदजी ने अपने पितामह ब्रह्माजी के सन्मुख किया था। देवर्षि नारदजी को जो कुछ ब्रह्माजी ने बताया था, वही सब अब मैं आपके सामने कहता हूँ। आप सभी ऋषिगण ध्यानपूर्वक श्रवण करें।

हे ब्राह्मण देवताओं! बहुत समय पहले एक दिन की बात है कि देवर्षि नारदजी तप करने के लिये हिमालय पर्वत जा पहुँचे और गंगाजी के तट पर एक सुन्दर स्वच्छ स्थान देखकर दीर्घ तप करने के लिए अपना आसन लगाया। जब बहुत समय तप करते हो गया, तब उस समय इन्द्रलोक के स्वामी श्री इन्द्रदेव बहुत चिन्तातुर हो अपने मन में विचार करने लगे कि देवर्षि शायद मेरे सिंहासन के लिये दीर्घ तप करने लगे हैं। इसलिये मुझको अपने सिंहासन की रक्षा के लिए कोई विचार कर कदम उठाना चाहिये, अन्यथा मेरा यह सिंहासन देवर्षि छीन लेंगे। इन्द्रदेव ने उसी समय कामदेव से सहायता का वचन लिया। उन्होंने कहा कि हे कामदेव! मैं तुम्हारी सहायता से आज तक कितनों के अहंकार को नष्ट कर चुका हूँ। इस समय भी मुझे एक कार्य के लिए तुम्हारी आवश्यकता है। देवर्षि नारद इस समय हिमाचल के अंचल में दीर्घ तप में लीन हैं। वे मेरे राज्य को छीन लेने का प्रयास कर रहे है। अतः तुम मेरे लिये हिमालय पर्वत पर जाकर देवर्षि नारद के दीर्घ तप में विघ्न पैदा कर विनष्ट करो जिससे उनका दीर्घ तप पूरा न हो सके। 

देवराज इन्द्र की बात सुनकर कामदेव ने अपनी सेना को तैयार किया सेना सहित कामदेवजी देवर्षि नारदजी के स्थान को प्रस्थान करने लगे। जब कामदेव नारदजी के पास पहुँचे तो उन्होंने नारदजी को उग्र तप में लीन देखा। तब तो कामदेव ने अपनी सेना तथा सहायक, साजो समान से वहाँ पर एक बहुत ही सुन्दर उपवन का निर्माण किया, जिसमें शीतल सुगन्ध समीर बहने लगा। पक्षी मीठी-मीठी वाणी में बोलने लगे। फिर काम कला में अत्यन्त प्रवीण अप्सरा कामवर्द्धक हाव-भाव प्रदर्शित करने लगी और कामोत्तोजक गीत का गायन करने लगी। परन्तु देवर्षि श्री नारदजी की समाधि में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ा, वे पूर्ववतः की भाँति ही अपनी तपस्या में लीन ही रहे। इसमें श्री देवर्षि नारदजी की भी कोई महिमा नहीं थी क्योंकि उक्त स्थान वही स्थान था, जहाँ पर भगवान शंकरजी के तप को भंग करने के लिये पहले एक बार कामदेव आये थे तथा क्रोध में आकर शंकर जी ने कामदेव को भस्म ही कर दिया था। फिर रति वियोग के कारण कामदेव को पुनः जीवित कर दिया था तथा कहा था कि भविष्य में इस निर्मल स्थान पर कामदेव का कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं चल पायेगा। यहाँ से हमेशा असफल होकर ही रहेगा। अतः देवर्षि नारदजी भगवान शंकरजी की कृपा के कारण तप में पड़ने वाले विघ्न से बच गये। 

कामदेव उनके दीर्घ तप को भंग न कर सका। जब इन्द्र की सभा में जाकर कामदेव ने अपने असफल होने की बात बतायी तो इन्द्रदेव बड़े निराश हुए। वे भगवान शंकरजी के प्रताप को न समझ कर देवर्षि नारदजी की अखण्ड तपस्या पर अपना महान आश्चर्य प्रकट करने लगे तथा उनकी प्रशंसा करने लगे, इधर नारदजी जब अपनी तपस्या को पूर्ण कर चुके तो कामदेव पर विजय पाने के कारण उनको महान गर्व उत्पन्न हुआ। नारदजी अपने अभिमान के सहित भगवान शंकरजी के पास पहुँचे और अपनी कामदेव पर विजय पाने की बात को बड़े अभिमान के साथ बताया।

भगवान श्री शंकरजी देवर्षि नारदजी की बात को सुनकर मन ही मन मुस्कराने लगे। फिर उन्होंने श्री नारदजी से कहा कि ऋषिराज! आप धन्य हैं कि जो आपने कामदेव पर विजय पाई है। परन्तु आप अपनी इस विजयश्री को किसी से कहियेगा नहीं, विशेषतः श्री विष्णुजी से उनके द्वारा पूछने पर भी न सुनाइयेगा।

श्री सूतजी महाराज बोले-हे ब्राह्मण देवताओ! भगवान श्री शंकरजी के ऐसे वचन देवर्षि नारद को कर्णप्रिय न हुए जबकि श्री शंकर भगवान ने श्री नारदजी के कल्याण हेतु ही ऐसी सीख दी थी लेकिन श्री नारदजी उसको गलत समझ बैठे। देवर्षि नारद श्री

शंकरजी के पास से सृष्टि रचयिता श्री ब्रह्माजी के पास पहुँचे तथा वहाँ पर भी बड़े अभिमान के साथ कामदेव पर विजय पाने की सफलता का बखान किया। तब तो सही जानकारी के लिए चतुर्मुखी ब्रह्मा जी ने तीनों लोकों के स्वामी कैलाशपति का स्मरण किया तथा असल मामले को समझा। ब्रह्माजी ने भी देवर्षि नारदजी को उनके कल्याण के लिए यह वृतान्त किसी को न बताने के लिए कहा तथा भगवान विष्णु से न कहने के लिए आग्रह किया। परंतु श्रीनारदजी के मन में तो अहंकार उत्पन्न हो चुका था। उनको इस समय अपने भले की बात भी समझ में न आ रही थी। नारदजी ने समझा ये मेरी सफलता को ईर्ष्यावश देखकर किसी को न बताने के लिए मना कर रहे हैं। इसलिये मैं अवश्य ही भगवान विष्णु के पास जाऊँगा तथा उनको अपनी इस सफलता का समाचार बताऊँगा।

नारदजी ब्रह्माजी के पास से चलकर क्षीर सागर में पहुँचे, जहाँ लक्ष्मीजी के साथ भगवान विष्णु शयन कर रहे थे तथा अपनी कामदेव पर सफलता प्राप्त करने के समाचार को गर्व सहित बतलाया। देवर्षि नारदजी के समाचार को सुनकर भगवान विष्णु अपने मन ही मन मुस्कराते हुए विचार करने लगे कि देवर्षि नारदजी को अहंकार उत्पन्न हो गया है। भगवान शंकरजी ने अपनी योगमाया के वशीभूत करके देवर्षि नारद का अहंकार दूर करने के लिए मेरे पास भेज दिया है। इसलिये इनके अहंकार का निवारण करना चाहिये। भगवान विष्णु ने नारद मुनि से कहा- हे मुनिराज आप तो ब्रह्मचारी हैं, ज्ञानी हैं, भला कामदेव आपका क्या अहित कर सकता है।


श्री विष्णु भगवान की बात को सुनकर नारदजी बोले- प्रभु! यह सब आपकी ही कृपा का प्रसाद है। इतना कहकर श्री मुनिराज नारदजी वहाँ से प्रस्थान करने लगे। उसी समय भगवान विष्णु जी ने अपनी योगमाया द्वारा मुनि नारद के मार्ग में एक सुन्दर नगर की रचना की, उस नगर के राजा का नाम शीलनिधि था। उसकी एक पुत्री थी, वह बहुत सुन्दर थी, जिसका नाम विश्वमोहिनी था, जो कि अपने रूप और गुणों की उसके सामने कोई अन्य सानी नहीं रखती थी। इधर-उधर अपनी इच्छा सहित घूमने वाले श्रीनारद जी जब उस महानगरी में पहुँचे तो उनको ज्ञात हुआ कि यहाँ के राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री विश्वमोहिनी के स्वयंवर की रचना कर रक्खी है और वहाँ पर उस दिन संसार के कोने-कोने से अनेक देशों के राजा-महाराजा स्वयंवर में भाग लेने के लिये आये हुये हैं। उस नगर के ऐसे समाचार को सुनकर नारद जी राजा शीलनिधि के महल में जा पहुँचे। वहाँ राजा ने देवर्षि नारद को बहुत दिया। 

राजा ने अपने सिंहासन से उतरकर नारदजी को नतमस्तक होकर प्रणाम किया तथा अपने सिंहासन पर उनको आदर सहित बिठाया। राजकुमारी को बुलवाकर नारद के चरणों में शीश झुकवाया। देवर्षि नारद राजकुमारी विश्वमोहिनी के रूप लावण्य को देखकर तथा भगवान विष्णुजी की योगमाया द्वारा वशीभूत होने के कारण राजकुमारी पर मोहित हो गये। नारदजी ने राजकुमारी के लक्षणों को देखकर विचार किया कि इसका पति इस संसार में अजर-अमर तथा अविनाशी होगा।


ऋषि नारदजी पिता पुत्री को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये तथा अपने मन में विचार करने लगे मैं इस कन्या को वर लूं तो कितना अच्छा रहेगा। अतः ऐसा विचार कर नारदजी ने उस समय भगवान विष्णु का ध्यान किया तो विष्णु भगवान वहाँ प्रकट हो गये तथा देवर्षि नारद के मन्तव्य को समझ को बोले- हे ऋषिवर! मैं आपके हृदय की बात को भली भांति जानता हूँ। आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। आप स्वयंवर में पधारें जिस प्रकार एक उत्तम वैद्य रोगी के रोग को देखकर उसका निदान करता है। ऐसा ही मैं करूँगा, जिससे आपका हित हो। इतना कहकर भगवान विष्णु अन्तर्ध्यान हो गए। भगवान विष्णु की बात का सार समझने में नारद जी असमर्थ रहे। भगवद् इच्छा के वशीभूत श्रीनारद जी का समस्त शरीर तो भगवान विष्णु के स्वरूप जैसा बन गया। 

परन्तु श्रीमुख बन्दर का बन गया। देवर्षि नारदजी इस भेद से अनभिज्ञ रहे। तब नारद जी स्वयंवर के स्थान पर पहुँचकर वहाँ बैठ समस्त महाराजाओं के मध्य में आकर बैठ गये। नारद जी को अपने मन में पूर्ण विश्वास था कि मेरा स्वरूप विष्णु स्वरूप होने के कारण विश्वमोहिनी मेरे ही गले में वरमाला आरोहण करेगी। अब भगवान विष्णु जी को देखिये कि उन्होंने नारदजी को बानर का रूप दे दिया था, उसे केवल राजकुमारी ही देख सकती थी। बाकी सब लोगों को उनका वास्तविक स्वरूप ही दिखाई देता था। जिस समय विश्वमोहिनी ने जयमाला लिये हुए पण्डाल में प्रवेश किया तो वे राजकुमारी को देखकर बार-बार उठकर राजकुमारी को अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा कर रहे थे। उनके ऐसे कृत्य को देखकर वहाँ पर उपस्थित दो शिवदूत उन पर हँसने लगे। परन्तु नारदजी ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया था, क्योंकि वे उस समय काम के वशीभूत थे।

उसी समय राजकुमारी जब नारदजी के समीप होकर जाने लगी तो नारद की कुचेष्टा तथा उनका बन्दर का चेहरा देखकर राजकुमारी घृणा से भर गयी और आगे जाने लगी। उसी समय भगवान विष्णु वहाँ पर आये और राजकन्या ने भगवान विष्णु को जयमाला पहना दी। इस दृश्य को देखकर नारदजी अपने हृदय में अत्यन्त दुःख का अनुभव करने लगे। शिव के गण कहने लगे कि वाह! वाह ! राजकन्या इनको वरमाला पहनायेगी। पहले दर्पण में जाकर अपना श्रीमुख तो देखो।


                                                               तीसरा अध्याय


                          नारद जी का अपना वानर का रूप देखकर क्रोधित होना


शिवदूतों के ऐसे वचन सुनकर नारदजी ने समीप ही जल में अपना प्रतिबिम्ब निहारा तो हैरान रह गये, अपना बानर का रूप देखकर क्रोध के वशीभूत हो गये। तब तो नारदजी ने सबसे पहले समीप खड़े दोनों शिव दूतों को शाप दिया कि तुमने ब्राह्मण रूप होकर मेरी हँसी उड़ाई है, इसी वजह से तुम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर घोर राक्षस हो जाओ। शाप सुनकर दोनों शिव दूत वापिस चले गये। नारदजी अपने असली स्वरूप को प्राप्त करके तो कुछ न पूछो कि कितने क्रुध हुए। उनके क्रोध का कोई ठिकाना न था। उन्होंने अपने हृदय में निश्चय किया कि आज तो मैं विष्णु को शाप दे दूँगा या फिर अपने शरीर को त्याग दूँगा ऐसा दृढ़ निश्चय करके जब नारदजी विष्णुलोक में भगवान

विष्णु के पास पहुँचे तो उन्होंने भगवान को विश्वमोहिनी के पास बैठा देखा। नारदजी को आते हुए देखकर विष्णु जी ने नारदजी से कहा कि कहिये ऋषिराज! आज तो आप बहुत दुःखी प्रतीत हो रहे हैं।


भगवान विष्णु जी के ऐसे वचनों ने नारदजी की क्रोधग्नि में घी का कार्य किया। नारदजी क्रोध कर अहंकार सहित बोले-नारायण! आप बड़े छलिया हो। अमृत बाँटते समय मोहिनी रूप धरकर दैत्यों के साथ छल करके मदिरा का पान कराया और उनसे अमृत कलश छीन लिया। जालन्धर के साथ छल करके उसकी स्त्री के सतीत्व को डिगा दिया तथा भोलेशंकर को विष पान कराया। स्वयं मणि तथा लक्ष्मी को ले लिया। भगवान श्री शिवजी ने तुमको सबसे बड़ा बताकर अत्यन्त भूल की है। तुमने सर्वश्रेष्ठ होने के अहंकारवश ये सब अनर्थ किये हैं। तुम हर तरह से स्वतन्त्र हो तथा यह भी जानते हो कि आपको दण्ड देने वाला कोई नहीं है। आज मैं तुमको घोर शाप देता हूँ जो कि कदापि असत्य न होगा। तुमने मनुष्य रूप होकर मुझे अपमानित किया है। इसी रूप में तुम राजा होओगे तथा स्त्री वियोग में मेरी ही भाँति विरह पीड़ा भुगतोगे। तुमने बानर रूप में मेरी हँसी उड़वाई है। ये ही बानर उस समय तुम्हारी सहायता करेंगे, इस प्रकार नारदजी ने विष्णु भगवान को शाप देकर अपना क्रोध शान्त किया।


नारदजी का शाप सुनकर भगवान मन्द-मन्द मुस्कराते रहे। भगवान शिव की ऐसी इच्छा जानकर उन्होंने शाप को ग्रहण कर लिया। अपनी माया से उसी समय नारदजी को मुक्त किया। माया से रहित होते ही मायारूपी विश्वमोहिनी वहाँ से अदृश्य हो गई। तब तो नारद जी को अन्तरात्मा द्वारा ज्ञान हुआ तो वे अपने मन में बहुत पछताने लगे कि ये मैंने क्या किया? मैंने काम के वशीभूत होकर त्रिलोकपति को शाप दे डाला। अहंकारवश अपना खुद ही यश गान किया। फिर तो नारदजी हरि के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे। हे प्रभु! मुझे क्षमा करो। मैंने भगवान त्रिलोचन की माया के वशीभूत होकर यह अनर्थ किया है। मुझे इस पाप से मुक्ति का कोई उपाय बताकर इस दास पर कृपा दृष्टि कीजिये।


नारदजी के द्वारा क्षमा याचना के ऐसे वचन सुनकर भगवान विष्णु ने अपने चरणों में पड़े श्रीनारदजी को उठाकर बड़े प्रेम से अपने गले लगाया और मधुर वाणी द्वारा कहने लगे-हे नारदजी! तुमने भगवान शंकर का कहा नहीं माना, यह सब उसी का परिणाम है। वह पारब्रह्म सच्चिदानन्द, सत्व, रज, दूर है, निर्गुण तम निर्विकार है। उन्हीं के वरदान से मैं सर्वश्रेष्ठ बना हूँ। इसलिए हे नारद! तुम भगवान श्री शिव का ध्यान करो मेरा उनसे अनन्य प्रेम है। शिव भक्त मेरा अत्यन्त प्रिय होता है। 

शिवद्रोही मुझे सपने में भी नहीं पा सकता है। इसलिये तुम भगवान शंकर जी को अपने हृदय में स्थान देकर उनकी नगरी काशीपुरी चले जाओ वहाँ जाकर समस्त संशय का त्याग करके श्री शिव की उपासना करो। उन्हीं के गुणानुवाद का बखान करो। शिव नाम के स्त्रोत का प्रेम पाठ करो। तुम्हारे समस्त पाप नष्ट होंगे। काशीपुरी में त्रिनेत्री भगवान शंकरजी के दर्शन करने के पश्चात् अपने पितामह ब्रह्माजी के निकट जाकर भगवान शंकर के नाम की महिमा को जानो क्योंकि चतुर्मुखी ब्रह्माजी भगवान शंकर जी के अनन्य भक्त हैं।


श्री सूतजी बोले- ऐसा कहकर भगवान श्री विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये। तब श्रीनारद जी वहाँ से काशीपुरी को प्रस्थान कर गये। मार्ग में उन्हें उनके द्वारा शापित वे दोनों शिवदूत भी मिले। उन्होनें नारदजी के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी। उनकी प्रार्थना को सुनकर नारदजी बोले-हे रुद्रगणों! श्री शंकरजी की योगमाया से भ्रमित होकर मैंने ऐसा अनर्थ किया है। लेकिन मेरा वचन कभी खाली नहीं जाता है। तुम्हें शाप तो भोगना पड़ेगा। तुम दोनों मुनि वीर्य द्वारा एक राक्षसी के द्वारा जन्म पाओगे। तुम भगवान शंकर के परम भक्त और प्रतापी होंगे। समस्त सृष्टि पर तुम्हारा अधिकार होगा। अनेकों साल सुख भोगने के पश्चात भगवान विष्णु अपने दूसरे रूप में आकर तुम्हें मुक्ति प्रदान करेंगे। ऐसा कहकर नारदजी श्री ब्रह्माजी के पास जाकर प्रार्थना करने लगे हे 


प्रभु! भगवान श्री विष्णु की कथा तो आपने मुझे सुना दी। अब मुझे भगवान शंकरजी के अनेक चरित्रों को सुनने की तीव्र लालसा है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि सदाशिव सृष्टि के अतिरिक्त किस रूप में आते हैं, सृष्टि के मध्य में उनकी क्या लीला होती है तथा सृष्टि के अन्त में अर्थात सृष्टि के प्रलयकाल में वह सदाशिव महेश्वर कहाँ पर निवास करते हैं और प्रसन्न होकर अपने भक्तों को क्या देते " हैं तथा भगवान शिव किस प्रकार शीघ्र प्रसन्न होते हैं तथा सभी चरित्रों का विस्तृत वर्णन मुझको सुनाइये, जिससे मेरा इस भवसागर से कल्याण हो जाये।


                                                     चौथा अध्याय


           ब्रह्मा जी का श्रीनारद के कहने पर भगवान सदाशिव के निर्गुण चरित्रों का वर्णन करना


महर्षि सूतजी ऋषिगणों को इतनी कथा सुनाकर कहने लगे कि श्री नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। भगवान शिवजी का नाम सुनकर ब्रह्माजी को रोमांच हो आया। अश्रुपात होने लगा। उन्होंने कहा-नारद! तू धन्य है, तूने मेरे कुल का नाम उज्जवल कर दिया है। क्योंकि तुम भगवान शिवजी के भक्त बने हो। मैं अब अपनी बुद्धि के अनुसार पहले भगवान सदाशिव के निर्गुण चरित्रों को कहूँगा, उसके पश्चात् मैं उनके सगुण चरित्रों का वर्णन करूंगा।


सबसे पहले यहाँ सृष्टि का कोई चिन्ह न था। तब सर्वव्यापक, सत्चित्त, आनन्दस्वरूप केवल शिव ही थे, क्योंकि वह सच्चिदानन्द स्वरूप हैं। उनका मन वाणी के आधीन है। न ही वह सूक्ष्म हैं और न ही स्थूल हैं, न ही वह छोटे हैं और न ही बड़े हैं, न ही वह नीचे हैं और न ही ऊँचे। वह माया से रहित तथा पापों से परे हैं, वह जन्म-मरन से मुक्त हैं। निराकार अजन्मा और अनादि हैं। सारी सृष्टि के मालिक तथा सबसे बड़े हैं। कर्मों का फल देने वाले, सर्वव्यापाक, आदि अन्त से रहित ऐसे भगवान शिव की उपासना विष्णु भी करते हैं और मैं भी करता हूँ। उनकी कृपा के बिना कोई कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। भले ही योगी ध्यानावस्था में उन्हें देख ले लेकिन उनके आदि और अन्त को बिल्कुल नहीं जानते। उन सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप और सत्य स्वरूप सदाशिव को वेद 'नेति-नेति' कहकर पुकारते हैं। मूर्ख मनुष्य भला उन्हें क्या जान सकते हैं? वह निगुर्ण हैं बिना आँख के देखते हैं, कान के बिना सुनते हैं, बिना नाक के सूँघते हैं, बिना मुख के सब कुछ खाते हैं, बिना जिह्वा के बोलते हैं। बिना हाथों के सारे काम करते है और बिना पैरों के चलते हैं, जिस महापुरुष के ऐसे विलक्षण काम हों उनकी स्तुति भला कौन कर सकता है? उन्होंने इच्छा की कि मैं एक होऊँ और इस इच्छा के उत्पन्न होने के साथ ही वह एक हो गये। इस प्रकार निर्गुण व सगुण स्वरूप में कोई भेद नहीं, प्रभु सदाशिव के सगुण स्वरूप का केवल ध्यान करना ही समस्त फलों को प्रदान करने वाला है। वही भगवान सदाशिव ब्रह्मा और विष्णु के उत्पन्न करने वाले हैं। सब कर्मों के साक्षी और विराट स्वरूप हैं।


उनके नाम शिव, शंकर, हर, महेश, परम देव, जगदीश, अमीश, विदुध, परमात्मा, ब्रह्म, ग्रीश, शम्भू, सदाशिव, परमेश्वर, पार्वती पति, त्रिशूलधारी, चक्करी ईश्वर, सुखदाता इत्यादि असंख्य नाम हैं। वही भगवान सदाशिव परमेश्वर सृष्टि के कर्त्ता धर्ता और आनन्द के देने वाले हैं। उमापति भगवान शंकर गुणों से युक्त सृष्टि, ब्रह्मा व विष्णु को उत्पन्न करने वाले हैं। ऐसे प्रभु श्री • सदाशिव सबके स्वामी को वैष्णव विष्णु के नाम से शक्ति-शक्ति के नाम से सूर्य उपासक रवि के नाम से और गणेशजी उन्हें विनायक के नाम से जानते हैं। वह भगवान सदाशिव सगुण स्वरूप कैसे हैं? मस्तक पर जटा तथा गंगा भाल में चन्द्रमा और त्रिपुण्ड, कानों में कुण्डल सूर्य चन्द्र और अग्नि के समान तेजवान, तीन नेत्र, शुक्र की भांति नशा, बिम्बा फल के समान होंठ, अत्यन्त पवित्र तथा तेजवान सुन्दर पाँच मुख हैं। जिनमें से एक पूर्व की ओर वाला प्रातः के सूर्य समान प्रभाव वाला, दूसरा दक्षिण की ओर तीन नेत्रों वाला अत्यन्त भयानक, तीसरा मुख पश्चिम की ओर मस्तक पर अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाला, चौथा मुख उत्तर की ओर मूंगे के वरण वाला है, जिसमें लम्बे-लम्बे केश लटकते हैं। पाँचवां मुख नीचे की ओर है जिससे कि वह अपने भक्तों के हृदय में आनन्द उत्पन्न करते हैं, उस मुख पर कमल के समान सुन्दर आँखे हैं। उसका रंग सुन्दर और तेजवान है, इस प्रकार भगवान शिव पंचानन के नाम से प्रसिद्ध है। उनके कंठ में तीन-तीन रेखायें हैं। हाथ में शूल और कंठ में मुण्डमाल धारण किये हुए हैं। उन्हें कोई चतुर्भुज, कोई पंचभुज और कोई दस भुज भी कहते है। उनके हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र विद्यमान है।

अँगुलियाँ अत्यन्त सुन्दर तथा सुडौल है। भगवान सदाशिव का वक्ष बड़ा लम्बा चौड़ा, पेट सुन्दर नाभि गम्भीर कटि अद्भुत जाँघे हरी कदली खम्बों के समान चिकनी गोल और सुडौल तलवे चमकीले चन्द्रमा के समान स्वच्छ सुन्दर श्वेत वरण वाले भगवान शिव मस्तक पर भस्म लगाये हुए पाँचों कलाओं तथा ब्रह्मों से युक्त तीनों शक्तियों को धारण किये हुए पाँच और छः अक्षरों से बने हुए शरीर वाले भगवान सदाशिव योगियों और महर्षियों के ध्यान में शीघ्र नहीं आते। जिस प्रकार वह अनेकों ध्यान वाले भी है, लेकिन उनको जानने वाला यहाँ कौन है? शंकरजी की महिमा, नाम और ध्यान अनगिनत हैं। 


जिनको वेद पुराण और तपस्वी भी नहीं जान सके। लेकिन उनकी कृपा से मूर्ख से पूर्ख भी उनके दर्शन कर लेते हैं, प्रमाण के लिये गंगा व्याधि आदि के नाम लिए जा सकते हैं। बिना प्रेम के उनको कोई देख नहीं सकता, सगुण रूप में आकर सदाशिव ने अपनी शक्ति को उत्पन्न किया, वह स्वच्छ शरीर वाली कभी नाश न होने वाली शक्ति प्रधान प्रकृति गुणवती माया विकाश से रहित जननी अम्बिका प्रकृति सम्पूर्ण लोकों की ईश्वरी त्रिदेवों की माता नित्या और मूल कारण कहलाई। जिसकी आठ भुजायें हैं और जो विचित्र मुख वाली और शुभा है। भगवान सदाशिव को पारब्रह्म और उमा को शक्ति रूप जानना चाहिए। सदाशिव ने उमा के साथ विहार करने के लिये शिवलोक नामक क्षेत्र की रचना की। उसी उत्तम क्षेत्र को काशी कहते हैं, इसी उत्तम नगरी में भगवान शिव ने एक रत्नमयी सुन्दर भवन बनवाया, उस सुन्दर नगरी को देखकर भगवान शिवजी ने अपनी शक्ति शिवा से कहा यह स्थान बड़ा ही सुन्दर तथा पवित्र है और मुझे बड़ा ही प्रिय है। यहाँ पर नारकीय जीवों को भी किसी प्रकार का कष्ट न मिलेगा। यह कहकर भगवान शिवजी शिवा के साथ वहाँ रहने लगे। भगवान शिव ने सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा करके पार्वती से कहा-'प्रिये! मैं तुमसे एक ऐसी बात कहता हूँ, जो मुझे और तुम्हें दोनों को सुख देने वाली है।'



            श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता प्रथम (सृष्टि) खण्ड पाँचवाँ अध्याय



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