॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता तीसरा (पार्वती) खण्ड
प्रथम अध्याय
भगवान शंकर का कुबेर को दिया हुआ वचन पूरा करना
भगवान श्री सदाशिव कुबेर को वरदान देकर जब अपने लोक में वापिस पहुँचे तो विचार करने लगे कि मनुष्यों की भलाई के लिये क्या काम करें? उन्होंने निर्णय किया कि मित्र बनकर उनके पास रहें। किन्तु वहाँ मैं किस रूप में निवास करूँ। यदि मैं अपना ब्रह्ममयी शरीर त्यागकर किसी अन्य शरीर में निवास करूँ तो कुबेर दोनों शरीरों में भेद और द्वेत भाव समझने लगेगा। अतः मुझे अपने इसी नाम और शक्ति से वहाँ जाकर निवास करना चाहिये और कुबेर के कामों में उसकी सहायता करनी चाहिये। मैंने तथा शिवा ने अभी तक कोई अवतार धारण नहीं किया। अब हम दोनों स्वयं वहाँ चलकर योग का साधन करेंगे और अपने भक्तों को मुक्ति और आनन्द प्रदान करेंगे। उसी स्थान से शिवा भी अवतार धारण करेंगी और संसार के नियमानुसार मेरी पत्नी होगी। ऐसा विचार कर वहाँ से चलने का निश्चय करके भगवान सदाशिव ने अपना डमरू बजाया। डमरू के शब्द से तीनों लोकों में झंकार हो उठी, उस शब्द को सुनते ही त्रिलोकीवासी आश्चर्य में पड़कर उस ओर चल पड़े।
भगवान विष्णु गरुड़ पर और मैं हंस पर चढ़कर चला और सनकादि, मुनि, सिद्धि, देवता, वेद, धर्म, साँप इत्यादि चारों तरफ से चल पड़े। श्रीसदाशिव वह गण जो हर समय नशे में धुत्त रहते थे, सभी उसी की ओर चल पड़े। चलने वालों के मन में नाना प्रकार के विचार उठ रहे थे। कोई सोचता था कि श्रीसदाशिव ने डमरू क्यों बजाया है? आज किसका भाग्य उदय होने वाला है? एक तरह से हमारा भी परम सौभाग्य है कि भगवान श्रीसदाशिव के दर्शन होंगे।
इस तरह सोचकर सब लोग भगवान श्री सदाशिव की शरण में पहुँचे और उनको दण्डवत करके हाथ जोड़कर उनके सन्मुख खड़े हो गये। भगवान श्री सदा शिव ने श्रीविष्णु का हाथ पकड़ कर अपने दाईं ओर बिठाया और मुझे (ब्रह्माजी को) बाईं और बिठाया। इसके पश्चात उन्होंने सभी आने वालों को उचित स्थान दिया और सबका कुशल मंगल पूछा और सबका यथायोग्य सम्मान किया। इसके पश्चात् उन्होंने अपनी इच्छा सब प्रकट की और कैलाश पर चलने का विचार प्रकट किया। क्योंकि वह कुबेर से वचन कर आये थे और उन्होंने उसकी आशा को पूर्ण करना था।
यह विचारकर फिर श्री सदाशिव चले तो उनके साथ सब लोग उठ खड़े हुए। नन्द और श्रीविष्णुजी उठ खड़े हुए और तैतीस करोड़ देवताओं के साथ देवराज इन्द्र भी उठ खड़े हुये। ग्यारह रुद्र, बारह सूर्य, आठों विश्व, तेरह देव, सत्ताईस नक्षत्र, बारह भक्ति, चौंसठ योगिन, उन्नचास पवन, दसों दिगपाल, विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, अप्सरा, रिद्धि-सिद्धि, भूत पिचास, बासु की तक्ष, सर्प, नागराज, शेष, जगतमाता, गायत्री, गरुड़, पर्वत, सातों समुद्र, छः ऋतु, काल, यम, यज्ञ, नदियाँ, नद और वनवासी इत्यादि भी चल दिये। हे नारद! अब सेना के विषय में सुनो-कर्ण नामक गण के साथ एक करोड़ सेना, कैके नामक गण के साथ दस करोड़ सेना, विकृत नामक गण के साथ आठ करोड़ सेना, प्रियात्रक के साथ, नौ करोड़, विक्टानन के साथ भी नौ करोड़, जालक के साथ बारह करोड़, दुन्दवी के साथ चौदह करोड़, कुन्दक दस सहस्त्र सेनानायक, कम्पन आठ करोड़ सेना के साथ, विष्टम्ट भी आठ करोड़ के साथ, इनके अतिरिक्त गनपति सनकादि अपनी दस-दस करोड़ सेना के साथ, नन्दीगण बारह करोड़, महाकाल सौ करोड़, काल सौ करोड़, अग्नि सत्रह, रवि, शतक, कूकल, अमोच इत्यादि के साथ एक-एक करोड़, ढीनिंग, पुंग पूर्ण भद्र और नीम के साथ नौ करोड़, चित्रक के साथ सात करोड़, विरूदयास और परमयुग के साथ असंख्य सेना थी, इनके अतिरिक्त और भी बहुत से सेनापति थे।
शिवगणों में तालकेतु, श्रोदन, पंचदूत भयानक लंकेश संवर तक और भृंगी इत्यादि अपने साथ एक-एक हजार भूत लिये हुए थे और दस करोड़ भूत और भी थे। लाकान्त, दैत्यान्त दीप और आसन देवताओं के परम प्रिय एक ही रूप वाले चौंसठ हजार थे, भगरुद्र के असंख्य गण थे। उनके ललाट पर चन्द्रमा, शिर पर जटा विराजमान थी। गौर वर्ण विशाल नेत्र सर्वांग भस्म लपेटे सब भूषणों से भूषित सुन्दर मस्तक पर त्रिपुण्ड लगाये हुए थे। उनके शरीर का प्रकाश करोड़ सूर्यों के समान था। उनको देखकर मैं और श्रीविष्णु भी आश्चर्य में पड़ गये। भगवान सदाशिव की विशाल सेना देखकर चारों तरफ जय-जयकार होने लगी। तब भगवान शिव नन्दी पर सवार हो गये, उनके दायें और बायीं ओर मैं और श्री विष्णुजी अपनी-अपनी सवारियों पर सवार होकर चले, ऐरावत हाथी पर सवार होकर इन्द्र तथा अन्य देवगण भी अपनी-अपनी सवारियों पर चढ़कर उनके साथ चले। चारों ओर आनन्द ही आनन्द था।
भगवान शंकर जी का ध्यान रखते हुए चलने लगे। मार्ग में सब स्थानों पर श्रीशिवजी का पूजन होता था और उन्हें तरह-तरह की भेंट मिलती थीं। चलते-चलते जब सब लोग अलकापुरी के समीप पहुँचे तो श्री कुबेरजी साज-बाज सहित भगवान श्रीशिव का स्वागत करने के लिये और यथाविधि अथितियों का सत्कार करने तथा भोजन की व्यवस्था करने के लिये अपनी पुरी को गये और यथायोग्य प्रबन्ध करके वापिस आये। भोजन इत्यादि करवाने के पश्चात उनका यथाविधि पूजन किया और उनके चरणों में गिर गये। भगवान श्रीसदाशिव ने उनको उठाकर अपने कण्ठ से लगाया, उनका हाथ पकड़ा और वहाँ से आगे चले।
दूसरा अध्याय
शंकरजी के कहने पर विश्वकर्मा द्वारा शंकरजी तथा उनके भक्तों के लिए भवन बनाना
कुबेर जी के साथ-साथ भगवान शंकर जी तथा श्रीविष्णु मैं और अन्य सब लोग अलकापुरी में पहुँचे, नगर में पहुँचकर कुबेरजी ने सबका सत्कार किया। फिर भगवान सदाशिव ने विश्वकर्मा को बुलाकर कैलाश पर्वत पर अपने भक्तों और अनुचरों के लिये स्थान बनाने की आज्ञा दी। विश्वकर्मा ने अनेकों प्रकार के स्थान बना दिये। विश्वकर्मा ने भगवान शंकरजी के लिये जो स्थान बनाया वह हर प्रकार के रत्नों तथा मणियों से परिपूर्ण था।
वहाँ की भूमि नीलमणि से बनी हुई थी और मूँगे के खम्बे लगाये थे। दीवारें सुन्दर थीं और शुद्ध सुवर्ण की बनी हुई थी जो कुन्दन के समान दमक रही थी। उसके दरवाजे संगमरमर के बने हुये थे। भवन के मध्य में भगवान श्रीसदाशिव के बैठने के लिए जो स्थान बनाया गया था, वह रत्नों से सजाया गया था।
जब भवन बनकर तैयार हो गया तो विश्वकर्मा ने भगवान शंकर जी के पास जाकर कहा-भगवान! आपकी आज्ञा के अनुसार स्थान तैयार हो गया है। अब मुझे क्या आज्ञा है? यह सुनकर भगवान श्री सदाशिव वहाँ जाने के लिये तैयार हो गये। मुझे तथा श्रीविष्णुजी को साथ लेकर भगवान श्रीसदाशिव वहाँ पर गये। जब हम सब वहाँ पहुँचे तो महात्मा कुबेर ने भगवान सदाशिव से कहा- प्रभु! हम सब लोगों की इच्छा है कि यहाँ पर आपका यथाविधि तिलक करें। कृपालु भगवान ने श्री कुबेरजी की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया जिससे हम सबको बड़ा सुख प्राप्त हुआ। श्री ज्योतिष मुनि ने मुहूर्त का निश्चय कर श्रीविष्णु से कहा- "तिलक का समय निकट है अतएव आप शीघ्रतापूर्वक काम कीजिये।
ज्योतिष मुनि की बात सुनकर मैं और श्रीविष्णु शंकरजी के पास गये और उनसे प्रार्थना की कि प्रभु! तिलक का समय निकट है अतः आप शीघ्रतापूर्वक स्नान कर लीजिये। भगवान श्री सदाशिव ने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसी क्षण समस्त तीर्थों का जल लाया गया मैंने तथा श्री विष्णु जी ने शंकर जी को मल-मल कर स्नान करवाया और वस्त्र भूषणादि पहनाकर रत्न जड़ित सुन्दर सिंहासन पर बैठाया। वेद ध्वनि आरम्भ अप्सरायें नृत्य हुई, घण्टा शंक और दुन्दुभी बजने लगी। करने लगी। सभी आनन्द में मस्त हो गये।
सबने यथाविधि शंकर जी का पूजन किया और उन्हें नाना प्रकार की भेंटे तथा दान दक्षिणा दी गई। सबसे पहले महात्मा कुबेर ने शंकरजी का पूजन किया। उसके पश्चात् विष्णु तथा उनके पार्षदों ने फिर ऋषि मण्डल ने। उस समय चारों तरफ से 'धन्य धन्य' का शब्द किया। कोई नृत्य कर रहा था, कोई गा रहा था, कोई स्तुति कर रहा था।
तीसरा अध्याय
विष्णु तथा अन्य देवताओं द्वारा शंकर की स्तुति करना
सबसे पहले भगवान श्रीविष्णु ने शंकर जी की इस प्रकार स्तुति की भगवान! आप आदि और अन्त से रहित हैं। आपकी स्तुति करने में वेद भी असमर्थ हैं। आपके प्रभाव से मैं भी प्रभावित हूँ। आप घट-घट के वासी और अन्तर्यामी हैं। इसके पश्चात् तमाम मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की और अपना-अपना आनन्द प्रकट किया। देवताओं की स्तुति सुनकर भगवान सदाशिव ने कहा- देवगण! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अपनी इच्छानुसार वर माँगो ?
शंकरजी के वचन सुनकर देवमण्डल ने कहा आपको प्रसन्न देखकर हम सब बड़ा आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हमें केवल आपकी भक्ति की इच्छा है प्रभु! आप सदैव दुष्टों से हमारी रक्षा करते रहे हैं। वेदों ने आपको जगत्माता तथा जगतपिता कहा है। इस प्रकार कहकर देवता शान्त हो गये तब भगवान सदाशिव ने उन सबको हर तरह से तसल्ली देकर विदा किया। केवल मैं और विष्णु वहाँ रह गये। तब भगवान सदाशिव ने कहा- तुम दोनों मेरे ही अंग हो, इसलिये संसार के काम को भली-भांति चलाओ और जब भी तुम्हें कोई संकट हो तो मुझे बताओ और अपनी इच्छानुसार वर माँगो। मैंने और भगवान विष्णु ने भक्ति का वर माँगा। इसके पश्चात शंकरजी ने कुबेर का हाथ पकड़कर कहा- हम तुम्हारे प्रेम के कारण ही यहाँ आये हैं। हमारी और आपकी मित्रता भी संसार में सबको मालूम हो गई है। बस अब तुम भी अपने लोक को जाओ।
महात्मा कुबेर भगवान सदाशिव की बात सुनकर गद्गद् हो गये। प्रेम के कारण उनके नेत्रों से जल बहने लगा। शंकर जी की आज्ञा को पाकर वह अपने लोक को चले गये। कभी-कभी मृत्युलोक में आकर जीवों का निरीक्षण भी कर लिया करते थे और कैलाश पर नाना प्रकार के जप-तप इत्यादि किया करते थे।
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता चौथा (कुमार) खण्ड प्रथम अध्याय
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