॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिव महापुराण वायवीयसंहिता (उत्तरखण्ड)
प्रथम अध्याय
कार्तिकेय के जन्म की कथा
नारद जी ने कहा- हे पितामह! अब आप मुझे यह सुनाइये कि लोकहित कल्याण को प्राप्त करने वाले श्रीशिवजी ने पार्वती के साथ क्या किया। उनके पुत्र कैसे हुआ तथा तारकासुर वध कैसे किया। यह सब कथा आप मुझसे कहिये। श्री सूतजी कहते हैं कि जब नारद ने ब्रह्माजी से इस प्रकार पूछा तो ब्रह्माजी अपने हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी ने नारद से कहा कि मैं तुमको तारकासुर वध तथा स्वामी कार्तिकेय के जन्म की कथा कहता हूँ। ध्यान से सुनो-जब भगवान पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर आए तो उनकी अत्यन्त शोभा हुई। उन्होंने वहाँ पर रहकर देवताओं का कार्य पूरा करने का विचार किया। इसलिये वे पार्वती के साथ विहार करने लगे। भगवान शंकर के गणों ने विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाए। इधर देवता भी खुशी मनाते हुए अपने-अपने धामों को चले गये। उसके बाद कल्याण कारक श्रीशंकरजी गिरजा को लेकर एक अत्यन्त सुन्दर सजीव निर्जन स्थान पर चले गये और वहाँ रहकर गिरजा के साथ विहार करने लगे तथा उनको विहार करते हुए हजारों वर्ष व्यतीत हो गये।
परन्तु उनके कोई सन्तान न हुई। ऐसा चरित्र देखकर सभी देवता अत्यन्त दुखी हुए और सब देवता मुझे (ब्रह्मा को) अग्रणी बनाकर भगवान श्री विष्णु के पास पहुँचे और उनकी विनती करके अपनी दुःख की कथा कह सुनाई। तब भगवान सभी देवताओं की कातर वाणी को सुनकर इस प्रकार बोले कि हे देवताओ! जो दुखीजन प्रसन्नता के साथ भगवान शंकर की शरण में चले जाते हैं, उनके दुःखों का अन्त हो जाता है। तुम कहते हो कि भगवान विरत नहीं होते हैं सो मेरा कहना है कि जब कोई किसी को विरत कराता है तो उसको भी नारी बिछोह सहना पड़ता है। हजार साल बाद वे स्वयं ही विरत हो जावेंगे। मुनि दुर्वासा ने इन्द्र और रम्भा को वियोग कराया तो दुर्वासा को भी नारी बिछोह सहना पड़ा। बृहस्पति जी ने कामदेव का घृताची से वियोग कराया तो चन्द्रमा ने उनकी स्त्री का हरण कर लिया। इस प्रकार विरत के अनेकों उदाहरण हैं। इसलिए तुम्हारा शिवजी के पास हजार साल बाद ही जाना उचित है, तब उस समय ऐसा उपाय करना कि उनका वीर्य पृथ्वी पर गिर पडे। उससे स्कन्द नाम का पुत्र प्राप्त होगा। अभी तुम अपने स्थान को जाओ। कमलकान्त विष्णु ऐसा कहकर अपने अन्तःपुर में चले गये। देवता भी अपने स्थान पर चले गये। शिव को पार्वती के साथ विहार करते दो युग बीत गये।
भगवान शंकर के विहार से भाराक्रान्त पृथ्वी काँप उठी, तीनों भुवनों में भय व्याप्त हो गया। तब सब देवता फिर विष्णु की सेवा में पहुँचे। श्रीविष्णु सब देवताओं सहित शिव के पास पहुँचे। वहाँ पर त्रिपुरारी उपस्थित न थे, तब वे शिव स्थान पर पहुँच कर शिवजी की स्तुति करने लगे। विष्णु जी ने शंकर भगवान की स्तुति करने के पश्चात् अपना प्रयोजन उनको बतलाया तथा तारकासुर वध के लिये प्रार्थना की। तब भगवान शंकर ने सभी देवताओं तथा विष्णु को आशा के साथ विदा किया। यद्यपि शंकर जी योग ज्ञान में प्रवीण, काम रहित हैं लेकिन फिर भी उन्हें सम्भोग त्यागते नहीं बना। वे द्वार पर आ विष्णु सहित सबको देख अत्यन्त प्रसन्न हुये थे। देवताओं से उन्होंने बताया कि मेरे वीर्य को धारण करने की किसमें शक्ति है। ऐसा कहकर उन्होंने अपने वीर्य को नीचे पृथ्वी की ओर गिरा दिया। तब देवताओं ने अग्निदेव से कहा कि तुम इस वीर्य का भक्षण करो। तब उस वीर्य का भक्षण अग्निदेव ने कर लिया। उसी समय पार्वती जी वहाँ पर आ गई तथा यह चरित्र देखकर वह अपने मन में अत्यन्त क्रुद्ध हो अग्निदेव को शाप दिया कि तुम सर्वभक्षी होओ क्योंकि तुम सब देवताओं ने अपने स्वार्थ वश ऐसा कृत्य किया है तथा हमारे विहार में विघ्न डाला है। अतः तुम भी विरत हो विरह की यातना को प्राप्त होओगे।
ऐसा कहकर गिरजा अपने स्थान को चली गई। इधर अग्नि देव वीर्य अन्न इत्यादि भक्षण करने के कारण उनके गर्भ स्थित हो गया तथा शिव इच्छा में सब देवताओं की मति मलीन होने लगी। इससे दुखित होकर देवतागण विष्णु को लेकर शिवजी के पास आये और उनकी स्तुति करने लगे। गर्भाधान से युक्त अपना कष्ट कहा। इस वीर्य के ताप से हम जलते हैं। देवताओं के वचनों को सुनकर शिवजी ने कहा- यद्यपि तुमने बड़ा ही अनर्थ किया है परन्तु तुम शरण में आ गये हो इसलिये तुम इस दुख से मुक्ति पा जाओगे।
शिवजी बोले कि इस वीर्य को किसी स्त्री के गर्भ में स्थित कर दो। तब अग्निदेव ने कहा हे भगवान! इसमें इतना ताप है किसी स्त्री को यह ताप सहन न हो सकेगा। उसी समय वहाँ नारद जी पधारे। उन्होंने देवताओं की उलझन का उपाय बतलाते हुए कहा कि गंगा तट पर माघ मास में पूर्णिमा के दिन ब्रह्म मुहूर्त में सप्तऋषियों की स्त्रियाँ स्नान करने आयेंगी। तब तुम इस वीर्य को उनके गर्भाशय में प्रविष्ट कर देना। नारद जी के उपाय को सुनकर देवता प्रसन्न हुए। ब्रह्म मुहूर्त में पूर्णिमा के दिन सप्तऋषियों की स्त्रियाँ गंगा तट पर आकर नहाने लगीं। नहाने के पश्चात उनमें से छः स्त्रियों को शीत लगा, तब वे अग्नि के पास जा तापने लगीं। उसी समय अग्निदेव में से वह वीर्य कणों में विभक्त होकर किरणों द्वारा उनके गर्भाशय में प्रवेश कर गया तथा अग्नि का दाह ताप कम हो गया था। इधर उन स्त्रियों के गर्भ रह जाने के कारण वे अपने पतियों द्वारा त्याग दी गई। तब वे हिमालय पर जा तप करने लगी। जब उनसे उस वीर्य का माप सहन न हुआ तो वे उसको हिमालय पर छोड़ कर आ गई।
हिमालय भी उसके तेज को बर्दाश्त न कर सका। तब उसने उसे गंगा को दे दिया। गंगा भी उसके ताप को सहन न कर सकी। गंगा ने उसे एक वन में छोड़ दिया। वहाँ पर उस वीर्य से एक बालक का जन्म हुआ। इस बालक के जन्म होते ही शिव पार्वती अपने मन में बड़े आनन्दित हुए। पार्वती के स्तनों से दूध आने लगा। सभी देवता प्रसन्न होकर बालक के ऊपर पुष्प वर्षा करने लगे असुरों को नाना प्रकार के अपगुन होने लगे। उस वीर बालक का तेज देखते ही बनता था, वह दूज के चन्द्रमा के समान ही बढ़ रहा था।
>दूसरा अध्याय
विश्वामित्र द्वारा कार्तिकेय का जाति संस्कार करना
नारद जी बोले- हे तात! इसके पश्चात क्या हुआ सो मुझे कृपा कर बतलाइये। श्री ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! उसी समय विश्वामित्र जी शिव इच्छा से उधर आ निकले। उस बालक को देखकर बहुत ही प्रभातिव हुए। तब उस बालक ने कहा कि हे विश्वामित्र जी! मेरा संस्कार करो। तब उन्होंने कहा कि मैं क्षत्रिय हूँ। बालक बोला कि मैं तुमको वरदान देता हूँ कि तुम आज से ब्रह्मर्षि हो जाओ, वशिष्ठ आदि ऋषि तुम्हारा सम्मान करेंगे। तब विश्वामित्र जी ने प्रसन्न होकर उस बालक का जाति संस्कार किया। इधर एक ऋषि ने प्रेम से उस बालक को आलिंगित किया और वस्त्राभूषण आदि से युक्त कर दिया। वह बालक एक दिन एक अस्त्र लेकर विशाल पहाड़ों को खोदकर ढहाने लगा। इसको देखकर राजा इन्द्र वहाँ पर आये, उन्होंने अपने बाण से उस पर प्रहार किया तो उस बालक से घोर पराक्रमी राक्षस उत्पन्न हो गया। इस प्रकार वहाँ पर चार बार आक्रमण में चार राक्षस उत्पन्न हो गये। जो चार स्कन्द के नाम से विख्यात हुए। तब उस बालक के कर्तव्यों को देखकर उस बालक को वे स्वर्ग में ले गये। वहाँ पर उसे बहुत से दुर्लभ अस्त्र शस्त्र प्रदान किये। एक दिन एक तालाब में छः स्त्रियाँ वहाँ पर स्नान कर रही थीं। वे दौड़ती आई और उस बालक को स्तन पान करने लिये कहा। तब उस बालक ने छः मुखों से स्तन पान किया। वे अपने मन में बहुत ही हर्षित हुई। एक दिन उस बालक ने वहाँ पर एक अद्भुत चरित्र किया कि एक आगन्तुक ने उसका परिचय पूछा। तब वह बालक वहाँ से गुप्त हो गया।
ब्रह्माजी इस प्रकार कहने लगे। हे नारद! एक दिन पार्वती जी ने शिवजी से इस प्रकार पूछा कि हे नाथ! कृपा करके मुझको आप बड़ी तपस्या के बाद मिले हो आपकी कृपा हुई तभी मैंने आपको पाया है। परन्तु आप मुझे कृपा करके बतलावे उस वीर्य का क्या हुआ जो आपने पृथ्वी पर गिरा दिया, मेरे मन में उसको जानने की बड़ी लालसा है। तब शिवजी ने सभी सभासदों तथा देव ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा कि मेरे वीर्य का क्या हुआ? वह नष्ट हो गया या किसी बालक ने उससे जन्म लिया है। भगवान के वचनों को सुनकर सब लोग भय से काँपने लगे और एक दूसरे का मुख देखने लगे। तब विष्णु जी ने बतलाया कि हे ईश्वर! मैं आपको बतलाता हूँ। आपके वीर्य से एक बालक उत्पन्न हो गया है तथा उस वीर्य को किसने ग्रहण किया तथा उसका पालन जो कृतिकाओं द्वारा हुआ है वह सब कथा कह सुनाई। कार्तिकेय के जन्म की बात मालूम होने के साथ शिवजी पार्वती जी आनन्द में मग्न हो गये। फिर उन्होंने कार्तिकेय को स्वर्ग से बुलाने के लिये अपने गणों को हुक्म दे दिया। शिव गणों को लेकर जिनकी संख्या कई लाख थी, स्वर्ग में कृतिकाओं के यहाँ पहुँचकर उनका घर घेर लिया। कृतिकाएं एक बड़ी भारी सेना को देखकर कार्तिकेय जी से कहने लगीं बेटा! यह सब क्या है? तब कार्तिकेय ने बाहर निकल कर उनसे पूछा कि तुम सब कौन हो तथा यहाँ पर आने का क्या कारण है? तब शिवगणों ने कहा-हे भाई! हम संहारकर्ता शिवगण हैं तथा हम तुमको लेने के लिये आये हैं। तुम हमारे साथ चलो। तुमको यह कृतिका क्या पालेगी।
पार्वती ने भी आपको बुलाया है। तब कार्तिकेय जी ने कहा कि पार्वती जी ने मुझको पालित नहीं किया है परन्तु वे मेरी धर्म की माता हैं। इनको भी मैं विस्मृत नहीं कर सकता हूँ। फिर भी मैं धर्म मातेश्वरी के पास अवश्य ही चलूँगा। इतना कहकर कार्तिकेय जी शिवजी के पास पहुँचने के लिये शिवगणों के साथ चलने लगे। पार्वती जी ने कार्तिकेय को लाने के लिये एक अद्भुत रथ भेजा था जो कि विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था। जिसमें १०० पहिये लगे थे वह बड़ा ही सुन्दर तथा तीव्रगामी था। पार्षद उसे चारों ओर से घेरे हुये थे। उस रथ पर कार्तिकेय जी सवार हो गये। कृतिकायें वहाँ पर अपने बाल बिखेर आ गई और कहने लगीं कि हम तुम्हारी मातायें हैं। हमने तुमको प्यार किया है। हम अब क्या करें। इस प्रकार वह पुत्र वियोग से मूर्छित हो गई। कार्तिकेय जी उनको आध्यात्मिक तथा सुखदायक ज्ञान देकर उनको मांगलिक असर पर साथ लेकर नन्दिकेश्वर के साथ कैलाश पर्वत पर अक्षय मूल के पास लाये। देवताओं ने उनके आगमन का समाचार 'शिवजी को दिया। विष्णु आदि देवताओं ने महर्षियों को साथ ले शिव, गंगा पुत्र कुमार को देखने आये। उस समय शंखभेरी आदि बाजे बजने लगे। उस समय पति-पुत्र वाली लक्ष्मी तीस सुहागिन स्त्रियों को सम्मुख कर उनको देखने के लिये आई।
उस समय त्रैलोक्य कुमार का तेज अद्वितीय था फिर कुमार शिव गणों सहित शिव मन्दिर आये। शिवजी ने उन्हें अपनी गोद में प्रेम से बिठाकर सुशोभित किया। कुमार शिव गले का हार राजा वासुकि को पकड़कर ताड़ित करते हुये खेलने लगे। तब इस दृश्य को शिवजी ने पार्वती को दिखलाया। कुमार की लीला से शिव अपने मन में बहुत प्रसन्न हुये। तब शंकर भगवान ने उनको एक रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाकर सब तीर्थों के जल तथा मन्त्रों उनको स्नान कराया। फिर विष्णु ने उनको अनेकों प्रकार के रत्नयुक्त आभूषण किरीट, मुकुट, बालचन्द्र आदि पहनाये और शास्त्रों से सुसज्जित किया तथा परम विद्या प्रदान की। सूर्य ने कवच दिया, इन्द्र ने ऐरावत तथा बज्र प्रदान किया। कुबेर ने गदा दी तथा सभी देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र दिये। तब कुमार को इस प्रकार पदार्थ देते हुए देखकर रुद्र भगवान देवताओं को वर देने के लिए कहने लगे, तब देवताओं ने कहा कि यह सब आपको तारकासुर वध के लिये है। अतः हम सब कुमार को अग्रणी बनाकर ले जाने की अनुमति चाहते हैं। तब शंकर भगवान ने सहर्ष ही कुमार को साथ जाने की आज्ञा दे दी। तब एक राजमहल कुमार को दिया गया, उसमें कुमार के लिये सभी दुर्लभ वस्तुयें तक उपलब्ध थीं। तब कुमार ने उन सबका स्वामित्व ग्रहण किया।
तीसरा अध्याय
कार्तिकेय तथा तारकासुर का युद्ध
ब्रह्मा जी ने कहा-हे नारद! अब हरि आदि देवताओं पर इसका और भी प्रभाव पड़ा और वे ताल ठोककर सिंहनाद करने लगे। सभी देवता राजकुमार को अग्रणी बनाकर तारकासुर वध के लिये प्रस्थान करने लगे। इध र असुर तारकासुर भी देवताओं से युद्ध करने के लिये तैयार हो रणक्षेत्र की ओर चल पड़ा। तारकासुर की सेना को देखकर देव सेना में सिंहनाद का घोर शब्द हुआ। उस समय शिव की आकाशवाणी हुई कि हे देवताओं! तुमने कुमार को अग्रणी बनाकर इस असुर से युद्ध किया तो अवश्य ही तुम्हारी जीत होगी। फिर तो देवताओं ने कुमार को अग्रणी बनाकर युद्ध का विगुल बजा दिया। देवता निर्भय हो गये। इन्द्र ने अपने ऐरावत को बुलाकर उस पर कुमार को बैठा दिया तथा तारकासुर और देवों में घोर युद्ध होने लगा। उस घोर युद्ध की आवाज से पृथ्वी कम्पायमान होने लगी। फिर कुमार इन्द्र के ऐरावत को छोड़कर एक विशाल सुन्दर रथ पर सवार हो गये। उसके ऊपर का छत्र अत्यन्त शोभायमान था। कुमार का तेज अनुपम था। इधर युद्ध में एक दूसरे पर अत्यन्त तीव्र प्रहार कर रुण्ड-मुण्ड बिछाने लगे। रुधिर की नदी बहने लगी। सैंकड़ों हजारों भूत प्रेत आ गये। गीदड़ शोर करने लगे तथा मास भक्षण करने लगे। उसी समय तारकासुर ने एक बहुत बड़ी सेना लेकर देवताओं की एक सेना की टुकड़ी पर आक्रमण कर दिया। रोकने की कोशिश करने के लिये इन्द्र आगे आये परन्तु तारकासुर को रोकने में समर्थ रहे। तब तारकासुर इन्द्र से अकेले ही युद्ध करने लगा। तब तो अन्य देवता भी पृथक-पृथक युद्ध करने लगे। वायु सुवीर से तथा पवमान कुबेर से युद्ध करने लगे। कुम्भ नामक राक्षस चन्द्रमा से युद्ध करने लगा। इस घोर संग्राम में अनेकों सुर-असुर कट-कटकर धराशायी होने लगे। युद्ध भूमि लाशों से पटने लगी।
ब्रह्माजी बोले-कि- हे नारद! आगे युद्ध का हाल इस प्रकार है कि देवता असुरों में जब घोर विनाशकारी युद्ध आरम्भ हुआ तो असुर सम्राट तारक ने देव सम्राट इन्द्र पर एक शक्ति का प्रयोग किया जिससे इन्द्र घायल हो गये। इस प्रकार अपनी अस्त्र चलाने की निपुण शैली के कारण सभी लोकपालों को घायल कर दिया। यह चरित्र देखकर शंकर गण वीरभद्र ने क्रोध करके अपने वीरगणों से वेष्टित हो तारक के निकट जा उस पर भीषण मार करने लगे। सभी दैत्य मिलकर वीरभद्र से भीषण युद्ध करने लगे। त्रिशूल, पाशा, खड्ग, फरसा आदि आयुधों का खुलकर प्रयोग होने लगा। उसी समय तारक ने अपने-अपने त्रिशूल से वीरभद्र को घायल कर दिया।
वीरभद्र क्षणमात्र को मूर्छित हो गिर पड़ा। फिर तो और भी दैत्य उन पर आक्रमण कर मारने लगे। तब वीरभद्र होश में आ घोर युद्ध करने लगा। उसी समय शिवजी पास में आकर कहने लगे-हे वीरभद्र ! तुम तारक के सामने से हट जाओ। तारक तुम्हारे से नहीं मरेगा। परन्तु वीरभद्र बोला- हे प्रभु! मेरे होते हुये स्वामी युद्ध करे, यह शोभा नहीं देता। अभी तारक को मार देता हूँ। फिर वह युद्ध करने लगा। वीरभद्र इस प्रकार युद्ध करने लगा मानो वृषभ से स्वयं शंकर लड़ रहे हों। कुछ ही देर में वीरभद्र की मार से असुर व्याकुल होने लगे। असुर रणक्षेत्र से भागने लगे। तब तो तारक दस हजार भुजायें बनाकर देवों से लड़ने लगा। महाबली तारक ने क्षणमात्र में वीरभद्र को परास्त कर दिया। तब विष्णु अपनी गदा लेकर आगे आये तो उसने उनको भी मार गिराया। विष्णु भगवान ने फिर उठकर अपना चक्र उस पर चला दिया। चक्र से असुर घायल हो गया। परन्तु फिर क्रोध कर विष्णु पर प्रहार करने लगा। विष्णु भी अपनी गदा से तारक पर प्रहार करने लगे। इस प्रकार सभी असुर और देवता आपस में नाना आयुधों से घात-प्रति घात कर लड़ने लगे।
चौथा अध्याय
कुमार कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करना
जब मैंने इस प्रकार देवताओं को लड़ते देखा तो कुमार के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा कि हे कुमार! यह दैत्य विष्णु आदि देवताओं के प्रहार से नहीं मरेगा। यह तो सिवाय आपके इस रणक्षेत्र में किसी के हाथ से नहीं मर सकता है। इस दैत्य को मारने के लिये आप जल्दी ही तैयार हो जाओ। हे महावीर! देवता व्याकुल हो रहे हैं, इनकी रक्षा करो। मेरी वाणी सुनकर कुमार कीर्तिकेय ने हँसते हुये तथास्तु कहा और वे कान्तिमान होकर अपने रथ से उतरकर पैदल ही तारक की ओर चल पड़े। जब कुमार तारक के निकट पहुँचे तो तारक उनको देखकर इस प्रकार कहने लगा-हे डरपोकों अब तुममें कोई बलवान नहीं है, जो इस कुमार को मेरे सामने लड़ने के लिये भेज दिया है।
दैत्य कुमार से बोला कि कुमार तुम मुझसे क्या लड़ोगे जब कोई देवता मेरे सम्मुख युद्ध में नहीं ठहर सका है, तुम्हारी तो अभी अवस्था ही क्या है। तुम अभी लड़ाई से डरकर भाग जाओगे, इससे तो अच्छा है कि तुम मेरे सामने मत आओ। तारक के ऐसे वचन सुन कार्तिकेय कहने लगे कि दैत्यराज! मैं तुम्हारे लिये ही अवतरित हुआ हूँ। मुझको छोटा जानकर मत आँको। मैं तुम्हारा काल हूँ। विष्णु इन्द्र आदि की निन्दा के कारण तारक का पुण्य क्षीण हो चुका था। कीर्तिकेय भी उससे लड़ने के लिये उद्यत हो गये। तारक भी कार्तिकेय से लड़ने लगा दोनों ओर, ताल, बेताल, भूत, पिशाचों द्वारा घोर युद्ध रोने लगा। दोनों एक दूसरे का वध करने की इच्छा से मन्त्रों द्वारा घात करने लगे। सब देवता, गन्धर्व बैठकर उस अद्वितीय संग्राम को देखने लगे।
तब कुमार ने अपनी एक शक्ति का प्रयोग तारक के ऊपर किया। इधर तारक ने भी अपनी शक्ति चला दी। दोनों शक्ति एक दूसरे की शक्ति से टकरा गई, जिससे इतना घोर तथा भयंकर शब्द हुआ कि हजारों की तादात में सुर-असुरों के कान के परदे फट गये। सैकड़ों केवल डर के कारण अपनी जान को छोड़ बैठे फिर तारक ने अपना अमोघ शस्त्र जिसे वज्र द्वारा कुमार ने गगन में ही नष्ट कर दिया। तब तारक ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया, जिससे कुमार ने शक्ति द्वारा वापस ब्रह्मा के पास भेज दिया। तब तारक ने क्रोध में आकर हजारों की संख्या में अपने वाणों की वर्षा कर दी। जिससे सभी देवता जहाँ के तहाँ कैद में हो गये। हाहाकार होने लगा। देवताओं को दुखी जानकर कुमार तारक ने सारे मायारूपी वाणों को अपने एक वाण से ही चूर-चूर कर दिया। उस समय तारक ने अति क्रोध कर वायु स्तम्भन नामक एक अस्त्र चलाया तो वायु का चलना बन्द हो गया जिससे सभी देवता फिर परेशान हो कांपने लगे। मन में कहने लगे कि इस पापी की माया से कैसे छूटकारा मिले, तब सब देवता कुमार के पास आये और वायु के न चलने के बारे में बतलाया तो कुमार सभी देवताओं को निर्भय कर कहने लगे।
अब मैं अवश्य ही तारक का वध कर दूँगा। तुम सब चिन्ता मत करो। तब कुमार ने अपने माता-पिता शंकर-पार्वती के चरणों में ध्यान लगाकर प्रणाम किया तथा आशीर्वाद लेकर एक बार फिर असुर तारक को मारने के लिये सबसे बड़ी विशाल शक्ति जिस का वार कभी खाली नहीं जाता है, उस शक्ति का प्रयोग किया। जिससे तारक विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर कुमार ने उस पर कोई वार नहीं किया तब असुरराज को गिरा देख बाकी सब असुरों को देवताओं ने मार कर भगा दिया। चारों ओर विजय के बाजे बजने लगे। देवताओं में खुशी की लहर फैल गई, आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। त्रिलोकी में सभी प्राणी आनन्द में छा गये। कुमार को शिवगण कैलाश पर लेकर पहुँचे तो माँ पार्वती उन्हें अपनी गोद में बिठाकर असीम प्यार करने लगीं। शंकर भगवान ने भी प्यार किया। देवताओं और गणों ने मिलकर शंकर जी की स्तुति की। तब सभी देवता प्रणाम कर और आशीर्वाद प्राप्त कर अपने-अपने धामों को चले गये।
पाँचवाँ अध्याय
कार्तिकेय द्वारा वाणासुर तथा प्रलम्बासुर का वध करना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इसी समय वाणासुर नाम के दैत्य से पीड़ित क्रोंच नामक पर्वत ने कुमार के पास आकर उनकी बड़ी स्तुति की और कहा कि हे प्रभो! मुझे वाणासुर बड़ा कष्ट दे रहा है, आप मेरी रक्षा करो। क्रोंच की स्तुति से प्रसन्न होकर स्कन्दजी ने उसे सान्त्वना दी और शिवजी का ध्यान कर वहीं से बैठे-बैठे वाणासुर के लिए एक शक्ति छोड़ी जो उसे भस्म कर शीघ्र ही कुमार के पास लौट आई। कुमार ने क्रोंच से कहा कि अब तुम निर्भय हो अपने घर जाओ। राजा क्रोच कुमार का यह वचन सुनकर उनकी स्तुति करके अपने घर को लौट गया।
वहाँ जाकर उसने शंकर जी के प्रसन्नार्थ उनके तीन लिंगों की स्थापना की। प्रतिज्ञेश्वर, कपालेश्वर कुमारेश्वर। वे तीनों ही लिंग सिद्धिदायक हैं। फिर देवगुरु बृहस्पति को आगे कर सब देवताओं ने कैलाश में जाने की इच्छा की तो वहाँ प्रलम्बासुर नामक दैत्य उपद्रव करने लगा, उससे पीड़ित शेष जी का पुत्र कुमुद कार्तिकेय की शरण में आया और गिरजा पुत्र की स्तुति की। कार्तिकेय ने प्रसन्न हो शक्ति से प्रलम्बासुर का संहार कर दिया। वह असुर अपने अनुचरों सहित मारा गया। शेष-पुत्र कुमुद, शिव पुत्र की स्तुति कर अपने घर चला गया। कार्तिकेय का चरित्र मैंने कहा। जो मनुष्य इस चरित्र को पढ़ता है उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।
छठवाँ अध्याय
कार्तिकेय का असुरों पर विजय प्राप्त कर कैलाश को प्रस्थान करना
ब्रह्माजी बोले- अब विष्णु आदि सब देवता महोत्सव कर कुमार को कैलाश पर चलने की प्रेरणा देने लगे। कार्तिकेय ने हिमालय को आशीर्वचन दे कुमार एक परम दिव्य विमान पर बैठ, अपने साथ देवताओं को बैठा, शिवजी की जय बोलते हुये उनके पास आये। आनन्द ध्वनि करते हुये सब शिवजी के पास पहुँचे। विष्णु आदि ने शिवजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति की। कुमार भी बड़ी नम्रता से विमान से उतर सिंहासन पर बैठे और शिव पार्वती को प्रणाम किया। शंकर जी ने आनन्द में आकर पुत्र का मुख चुम्बन किया। तारक संहारक महाप्रभु ने कुमार पर बड़ा स्नेह किया, पार्वती ने भी कुमार को उठाकर गोद में बैठा लिया और शिर पर हाथ रखकर चुम्बन किया। शिव-पार्वती का उन घर बड़ा प्रेम हुआ। शिव मन्दिर में बड़ा उत्सव मनाया गया। नमस्कार और जय का शब्द हुआ। विष्णु आदि ने स्कन्द जी को आगे कर शिवजी की बड़ी स्तुति की।
शंकर जी प्रसन्न हो हँसने लगे। फिर विष्णु आदि देवताओं से बोले- मैं दुष्टों को मारने वाला शंकर हूँ। मैं सबका कर्त्ता, भर्त्ता, हर्त्ता और विकार रहित हूँ। तुम पर जब दुःख पड़े मुझे स्मरण करो, मैं तुम्हें सुखी करूँगा, यह सुन कुमार सहित सब देवता हर्षित हो अपने स्थान को चले गये। कुमार अपने माता-पिता शिव-पार्वती के पास उसी पर्वत पर निवास करने लगे। हे नारद! यह मैंने तुमसे कुमार के सब चरित्र कहे, अब आगे क्या सुनना चाहते हो? वह कहो।
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