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श्री शिव महापुराण वायवीयसंहिता (पूर्व खण्ड) प्रथम अध्याय

                                                    


                                    ॥ ॐ नमः शिवाय ॥


  श्री शिव महापुराण वायवीयसंहिता (पूर्व खण्ड)


       प्रथम अध्याय

  हिमाचल द्वारा बारातियों की सेवा करना


 हे नारद! महाराज हिमाचल ने बारात की सेवा के ने लिये ठहरने के स्थान पर दास दासियाँ तथा समस्त आवश्यक सामग्री भिजवा दी। ठीक उसी समय पार्वती ने भगवान श्रीशंकरजी का ध्यान करके सिद्ध को प्रकट किया, जिससे वहाँ पर किसी वस्तु की कमी न रही। मैं विष्णु और अन्य सब देवता इसके लिये महाराज हिमाचल की प्रशंसा करने लगे, लेकिन भगवान श्रीशंकरजी के अतिरिक्त यह भेद किसी और ने न जाना कि यह सब पार्वती जी की महिमा है। इसके पश्चात तुमने ( देवर्षि नारद ) महाराज हिमाचल के पास जाकर कहा कि लग्न का समय हो गया है अतएव अब किसी प्रकार की देरी न करें। तुम्हारी बात सुनकर महाराज हिमाचल ने प्रसन्न होकर पुरोहित को बुलाकर और उसको हम लोगों को बुलाने के लिये जनवासे में हमारे पास भेजा। महाराज हिमाचल के पुरोहित भगवान श्री सदाशिव जी के पास आकर प्रार्थना की प्रभु! अब हमारे यहाँ पधारने की कृपा कीजिए। 



पुरोहित की बात सुनकर सभी देवता प्रसन्न हो गये उसके बाद भगवान श्री सदाशिव महाराज ने लोक रीति के अनुसार उबटन आदि लगाकर स्नान किया। फिर सुन्दर वस्त्र आभूषण आदि धारण करके वृषभ पर सवार हो विवाह मण्डप में पहुंचे। राजा हिमाचल में से कहकर पार्वती जी को विवाह मण्डप में आते देखा तो मन ही मन उनको प्रणाम किया। इसके पश्चात् बारात को ५६ प्रकार के भोजन करवाये गये। राजा हिमाचल ने प्रसन्नता के साथ भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के चरण धोए उस समय वह प्रेम में मग्न होकर सोचने लगे कि भगवान श्री सदाशिव जी के यही पवित्र चरण कमल हैं कि जिनका ध्यान भगवान श्री विष्णु जी एवं ब्रह्माजी करते हैं। महाराज हिमाचल ने चरण धोने के पश्चात् भगवान सदाशिवजी को सोने की चौकी पर बिठाकर भोजन करवाया। भोजन करते समय स्त्रियाँ बारातियों के नाम ले-लेकर गालियाँ देती थी और हम सब उन गालियों को सुनकर प्रसन्न होते थे। भोजन करने के पश्चात् बारात अपने निवास स्थान को लौट गई।



   दूसरा अध्याय

  हिमाचल द्वारा पार्वती का कन्यादान करना


श्री ब्रह्मा जी बोले हे नारद! इसके पश्चात जब विवाह के लग्न का समय आया तो उस समय राजा हिमाचल ने अपने पुत्र को भगवान श्री शंकर जी को लिवा लाने के लिये भेजा। तब भगवान श्री शंकरजी देवताओं तथा ऋषियों महर्षियों के साथ तुरन्त विवाह मण्डप को रवाना हो गये। उस समय अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। वह आनन्द करोड़ों जिह्वाओं से भी वर्णन नहीं किया जा सका।


हम सब यह सोचकर प्रसन्न हो रहे थे कि हम भगवान सदाशिवजी महाराज का विवाह अपनी आँखों से देखेंगे। भगवान श्री सदाशिवजी महाराज के उस समय के सौन्दर्य को देखकर मैं और विष्णु जी चकित रह गये। भगवान श्री सदाशिवजी ने देवताओं एवं ऋषियों महर्षियों के साथ महल के भीतर प्रवेश किया फिर मण्डप के चारों तरफ की पृथ्वी चार प्रकार से पवित्र की गई। भगवान सदाशिव जी महाराज सिंहासन पर विराजमान हुए। उस समय श्री पार्वती भी सोलह शृंगार किये उस स्थान पर पधारी पार्वती जी की महिमा कौन वर्णन कर सकता है? भगवान श्री विष्णु जी ने, मैंने तथा अन्य सब देवताओं ने भगवती पार्वती को देखकर प्रणाम किया। ऋषियों महर्षियों ने शुभ आशीर्वाद दिया। दोनों पक्षों के पुरोहितों ने सबसे पहले गणेश तथा गौरी जी का पूजन करवाया। फिर अन्य रानियों से सम्पूर्ण प्रकार से पूजा की गई।


ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! पांच देवता अनादि हैं। उन पांचों को समान जानकर पूजा करनी चाहिये। जिस प्रकार वेद में विवाह की रीति बताई है, उसी के अनुसार सारा कार्य सम्पूर्ण किया गया। मेनका ने चार अत्यन्त बहुमूल्य वस्त्र भगवान श्री सदाशिवजी को दिये और उसी प्रकार के दो वस्त्र पार्वती को दिये। दो स्वयं पहने। पार्वती महाराज हिमाचल की दांई ओर बैठी। उस समय भगवान सदाशिवजी महाराज पार्वती के सन्मुख बैठे हुए थे। ऋषि-महर्षि उच्च स्वर से वेद मन्त्रों का उच्चारण करने लगे। तब मेनका कन्यादान करने लगी।


उस समय भगवान श्री सदाशिवजी से महाराज हिमाचल ने उनका गोत्र पूछा। यह सुनकर भगवान श्री सदाशिवजी तो विचार में पड़ गये और उनको चुप देखकर ऋषि महर्षि हंसने लगे। इस पर तुम भगवान श्री सदाशिव की प्रेरणा से वीणा बजाने लगे। तुमने हिमाचल से कहा-राजेश्वर यह आप क्या मूर्खता कर रहे हैं, जो कि भगवान श्री सदाशिवजी से गोत्र पूछ रहे हैं। सुनिए गोत्र पूछने में इनका अपमान है, उनका गोत्र तो विष्णु, ब्रह्मा आदि भी नहीं जान सकते। यह तो अपनी इच्छा से अनेकों लीलायें धारण किया करते हैं। वह अनादि और अनन्त हैं, अतएव इनका गोत्र कुल तो नदियाँ ही है। भगवान श्री सदाशिवजी नादमय हैं और नादमय स्वयं शिव हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं है। हे नारद! तुमसे यह बात सुनकर महाराज हिमाचल आश्चर्य में पड़ गये। देवता और ऋषि महर्षि जय-जयकार करने लगे। तुमने कहा-राजेश्वर! भगवान श्री सदाशिवजी आज पार्वती के तप के कारण तुम्हारे पुत्र समान हो गये हैं। इनकी भक्ति के बिना कोई नहीं जान सकता, अतः यह विचार कर तुम शीघ्रतापूर्वक कन्यादान दो क्योंकि लग्न का मुहूर्त बीता जा रहा है।


हे नारद! तुम्हारे इन वचनों को सुनकर महाराज हिमाचल ने कुछ और जल लेकर कन्यादान कर दिया और पार्वती का हाथ भगवान श्री सदाशिवजी के हाथ में अर्पण कर दिया। भगवान श्री शंकर जी महाराज ने पार्वती जी का हाथ जो पकड़ा सो उसी दिन से विवाह की रीति तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गयी। उसी समय चारों ओर महाराज हिमाचल की प्रशंसा होने लगी।


विवाह की लौकिक रीति समाप्त होने के साथ ही गन्धवर्जन गीत गाने लगे। अप्सरायें नृत्य करने लगीं। विष्णु इन्द्र तथा अन्य सभी देवता अति प्रसन्न हुए। इसके पश्चात महाराज हिमाचल ने भगवान सदाशिव जी को अनेकों वस्तुयें प्रदान की। एक लाख दूध देने वाली गाय और सजे सजाये सौ सुन्दर घोड़े, एक लाख दासियाँ, एक करोड़ हाथी, सोने व जवाहरातों से जड़े हुए रथ दहेज में दिये और हाथ जोड़कर भगवान श्री सदाशिव जी की स्तुति की।


  तीसरा अध्याय

  शिव विवाह उपरांत देव पत्नियों का दूल्हे शिवजी के साथ उपहास करना


श्री ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! मेरी आज्ञा पाकर फिर ब्राह्मणों द्वारा अग्नि स्थापना कराई गई, फिर ऋग, यजु, सामवेद से मन्त्र द्वारा भगवान श्री सदाशिव जी महाराज से हवन कराया गया। उस समय फिर पार्वती के भ्राता मेनाक ने आकर उनको खीलें दी। फिर लोक मर्यादा के अनुभाँवरें पड़ीं यानी फेरे हुये। फिर उसके बाद भगवान श्री सदाशिवजी महाराज और भगवती पार्वती के सिर पर अभिषेक, ध्रुव दिखाया, हृदय छूना, स्वस्ति पाठ, भगवान शंकर जी द्वारा माँ भगवती की मांग में सिंदूर भरना, भगवान व भगवती को एक स्थान पर बिठाकर सवस्त्र आसन, पूर्णपात्र तथा गौदान, आचार्य कर्तव्यता, सौ ब्राह्मणों को स्वर्णदान इत्यादि करवाया गया। उस समय मण्डप के मुख्य द्वार पर अनेकों बाजे बज रहे थे और स्त्रियाँ मंगल गीत गान कर रही थीं। 



इसके पश्चात भगवान शिव और भगवती दोनों को पुर नारियाँ कुहवर स्थान में ले गई और लोकोपचार रीतियाँ करवाकर वासालय में ले आई। वहाँ फिर ग्रन्थ चिमोचन आदि लौकिक रीतियाँ करवाई गई। उस समय भगवान श्री सदाशिवजी महाराज और भगवती पार्वती की शोभा देखते ही बनती थीं। उसके पश्चात वहाँ सरस्वती, लक्ष्मी, मेरी पत्नी सावित्री, जान्हवी, आदिती शर्चि, लोपा मुद्रा, अरुन्धती, अहिल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, वसुन्धरा, शतरूपा, संज्ञा आदि सोहल दिव्य नारियाँ बारी-बारी से आकर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज से परिहास करने लगीं।


श्री सरस्वती ने कहा- हे आदिदेव! अब आप अपनी झिझक को दूर करके अपनी प्यारी पार्वती को कण्ठ से लगा लीजिये। इनके बिना आपका जीवन बड़ा दुःखी था। सावित्री ने कहा- हे सदाशिव! आप भोजन करके अपनी प्यारी पार्वती को भी भोजन करवायें और उनको पान खिला कर प्रसन्न कीजिए। जान्हवी ने कहा- हे योगेश्वर! आप बड़े कामी हैं। बाजार में से कंघी लाकर अपनी प्यारी के बालों को स्वयं संवारिये क्योंकि इससे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है। लक्ष्मी ने कहा- हे देव! आप गिरजा को बड़े आनन्द और प्यार से रखिये और उनका दुख दूर कीजिये। 'अब लज्जा काहे की है' सुन्दर पार्वती को हृदय से लगाईये। इसी के बिरह में आप कष्ट पा रहे हैं। अब प्रियतमा के मिल जाने पर लज्जा कैसी? शुचि ने कहा-हे शंकर जी ! आप कामदेव से भली प्रकार पूर्ण हैं। अति सुन्दर होने पर भी जो आप अपने शरीर पर भस्म लगाये हुये थे, सो उनका कारण हम जान गई हैं कि आप बिना पत्नी के अपना अमंगल वेष बनाए हुए थे। अब आपकी इच्छा पूर्ण हो गई है और अपना मनचाहा कार्य कीजिये । हे सदाशिव! आप उत्तम प्रकार के भोजन करके पान खाइए और पार्वती को अपने साथ महल ले जाकर विहार कीजिये। मेनका को तो यह बात पसन्द न थीं, लेकिन हमने आपको पार्वती से मिला दिया है। अहिल्या बोली-हे शंकर जी! आपने वृद्धावस्था का त्याग कर दोबारा जवानी को अपनाया है। आपकी युक्ति आज पूर्ण हो गई है। आप भली-भाँति पार्वती से प्यार कीजिये। तुलसी ने कहा- हे शिवजी! आप तो कामदेव को भस्म करके बड़े त्यागी बन गये थे। फिर आपने अरुन्धती को हमारे पास यह कहकर क्यों भेजा था कि पार्वती का मेरे साथ विवाह करवा दो।


स्वाहा ने कहा इस प्रकार के स्त्रियों के हँसी परिहास से आप क्रोधित मत हो जाना क्योंकि विवाह काल में स्त्रियाँ हँसी मजाक किया ही करती हैं। संसार की यही रीति है कि दूल्हा से हँसी किये बिना आनन्द नहीं आता। रोहिणी ने कहा-हे शिवजी! आप तो काम शास्त्र के बहुत बड़े जानने वाले हैं। आप अब गिरजा को काम कला की शिक्षा दीजिये और अपना काम पूरा कीजिये। आप इस कामरूपी समुद्र से तैर कर पार हो जाइए। वसुन्दरा ने कहा-हे शंकर जी! आप तो सब कुछ जानने वाले हैं अतएव आप पार्वती जी की इच्छा को पूर्ण रूपेण समझ कर पूर्ण करें ताकि उनका अब तक का वियोग का दुख दूर हो । हे शिवजी! भूख, बिना भोजन करने से दूर नहीं होती, अतएव आप गिरजाजी को रीति प्रदान कर प्रसन्न करो।


शतरूपी बोली-अब शिवजी को पार्वती के साथ ऐसे स्थान पर भेज दो जहाँ कोई न हो और पलंग फूलों से सजा हुआ हो। उस स्थान पर रत्नों का दीपक जल रहा हो और कोई किसी प्रकार का कष्ट देने वाला न हो। श्री ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! स्त्रियों की इस प्रकार की मजाक भरी बातों को सुनकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने उनसे कहा-आप मुझसे इस प्रकर की बातें न कीजिए। आप समस्त संसार की माताओं के समान हैं। मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। पुत्र के सामने माता को इस प्रकार की बातें करना उचित नहीं प्रतीत होता। इस पर सब स्त्रियाँ लज्जित होकर चुप हो गई।


  चौथा अध्याय

 रति की प्रार्थना पर शिवजी द्वारा कामदेव को पुनः जीवित करना


ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! जब स्त्रियाँ शंकर जी के वचन सुनकर लज्जित होकर काठ की पुतलियों के समान चुप होकर स्थिर हो गई तो उस समय भगवान को प्रसन्न जानकर रति ने कहा- प्रभु आपने तो पत्नी को प्राप्त कर लिया लेकिन मेरे पति कामदेव को बेकार ही खत्म कर दिया, इस समय आपके विवाह को देखकर मुझे छोड़कर सबको हर्ष हो रहा है। अतएव आप कृपा करके मेरे पति को जीवित कर दीजिये, यह कहकर रति रोने लगी। रति को रोते देखकर सब लोगों को अति दुःख हुआ। रति ने अपने जले हुये पति की भस्म जो बांधी हुई थी। उस पोटली को उसने भगवान सदाशिवजी के सामने रख दी। भगवान ने रति तथा देव पत्नियों को दुखी जानकर उस भस्म की ओर अमृत दृष्टि से देखा तो कामदेव तुरन्त जीवित होकर उस पोटली में से बाहर निकल आया। यह देखकर रति और अन्य सब स्त्रियां परम आनन्द को प्राप्त हुई। कामदेव हाथ जोड़कर भगवान सदाशिव जी की स्तुति करने लगा। भगवान श्री सदाशिवजी महाराज ने कामदेव से कहा-कामदेव! अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो और बाहर जाकर मेरी बारात में बैठो। भगवान की आज्ञानुसार कामदेव वहां से बाहर निकलकर हमारे पास आया और मुझको तथा भगवान श्री विष्णु को नत मस्तक होकर प्रणाम किया। उस समय हमने कामदेव को आशीर्वाद दिया कि तुम भगवान श्री सदाशिवजी और भगवती पार्वती जी के सदा-सदैव प्रिय रहो, अब तुम्हें किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा। तुम आनन्द पूर्वक हमारे साथ बैठो और कामदेव देवताओं की पंक्ति में बैठ गया।


  पाँचवाँ अध्याय

 शंकरजी का पार्वती के साथ भोजन करना 


श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद! अब आगे की कथा सुनो। इधर कामदेव तो देवताओं की पंक्ति में हमारे साथ बैठ गया, उधर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने पार्वती को अपनी बांई ओर बिठाकर भोजन करवाया और स्वयं भी भोजन किया। हम तो भोजन करने के पश्चात बारात के निवास स्थान की ओर रवाना हो गये और स्त्रियाँ भगवान सदाशिव को निवास भवन में ले गई। वह घर बेहद सजा हुआ था। सैकड़ो रत्नों के दीपक जगमगा रहे थे एवं रत्न जड़ित कुम्भ तथा पत्रादि स्थापित थे। रत्न जड़ित दर्पण थे। जगह-जगह मणिमुक्ता आदि जड़ित होकर शोभा बढ़ा रहे थे। श्वेत चमर भी ढके हुए थे। स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े चित्र लटक रहे थे, जिसमें कि विविध दृश्य दिखाये हुए थे। यह घर • विश्वकर्मा ने विशेष रूप से अपने हाथों से तैयार किया था। वहाँ भगवान श्री सदाशिवजी और पार्वती ने एक रत्न जड़ित बड़े से पलंग पर बैठकर ताम्बुल सेवन किया। पलंग के चारों तरफ मोतियों की झालरें लटक रही थी। पलंग के पास ही चन्दन अगरबत्ती तथा कस्तूरी के पात्र रक्खे थे। जिनकी सुगन्ध से वह घर महक रहा था। कमरे की सजावट देखकर भगवान अति प्रसन्न हुये। सुन्दर भवन की शोभा देखते-देखते उस रत्न जड़ित पलंग पर सो गये। वह रात्रि इस प्रकार बीत गई। जब भोर हुआ तो नाना प्रकार के बाजे बजने लगे। इधर जनवासे में सब देवता उठे। भगवान श्रीविष्णु ने धर्मराज से कहा कि वह भगवान श्रीसदाशिव को जगाकर ले आवें। तब धर्मराज ने महाराज हिमाचल के महल में जाकर भगवान सदाशिवजी महाराज से प्रार्थना की।


प्रभु! अब आप कृपा करके उठिये जनवासे में चलकर सबको आनन्द प्रदान कीजिए। सब देवता गण आपकी बाट देख रहे हैं और आपके दर्शनों के इच्छुक हैं। धर्मराज की बात सुनकर भगवान शंकर जी बोले- हे धर्मदेव! तुम जाओ मैं अभी आ रहा हूँ। इसके पश्चात् भगवान श्री सदाशिव जी महाराज सबको शीष झुकाते हुए बड़ों से आज्ञा लेकर जनवासे की ओर चल दिये।


 छठवाँ अध्याय

शिव तथा देवताओं द्वारा हिमाचल से विदाई के लिए प्रार्थना करना


श्री ब्रह्माजी कहा- हे नारद! जनवासे में पहुँच कर भगवान श्री सदाशिवजी ने सब देवताओं को पास बुलाया। देवतागण उनके पास पहुँच कर स्तुति करने लगे। उस समय मैं (ब्रह्मा जी) ने और भगवान श्री विष्णु ने तुम्हें ( श्री नारद जी) को तथा सप्त ऋषियों को धन्यवाद देते हुए कहा कि तुम लोगों की कोशिशों से आज यह शिव पार्वती के विवाह का समारोह हम लोगों को देखने को मिल रहा है, उस समय भगवान विष्णु ने खूब दान दिया। इसके पश्चात हम लोगों ने महाराज हिमाचल को बुलाकर उनसे विदा माँगी। उस समय महाराज हिमाचल ने देवतओं से प्रार्थना की- हे देवताओं! आप लोग मुझे छोड़कर मत जाइये मैं आपकी कुछ भी सेवा नहीं कर सका हूँ। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप मेरे छोटेपन को विचार में न लाइयेगा। 



मेरे निवास स्थान पर चलिये और उसको पवित्र कीजिए। हे नारद! महाराज हिमाचल की प्रार्थना को सुन कर भगवान श्री विष्णु एवं अन्य देवताओं ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा- हे राजेश्वर! तुमने जो हमारी इतनी सेवा की है वह किसी प्रकार भी वर्णन नहीं की जा सकती। तुम्हारे घर में जगतमाता ने जन्म लिया है। अतः तुम्हारे बराबर संसार में कोई श्रेष्ठ नहीं है। तुम, तुम्हारा नगर और तुम्हारी माता धन्य है। जहाँ भगवान सदाशिव जी महाराज ने पधार कर सारे संसार और हम लोगों का हित किया है। इसके पश्चात महाराज हिमाचल समस्त बारातियों को अपने महल में ले गये। सब लोग प्रेम से भोजन करने लगे। स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगी। इन गीतों में अधिकतर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज की ही महिमा का वर्णन किया था। इन गीतों को सुनकर भगवान सदाशिवजी महाराज और सभी देवता बहुत ही प्रसन्न हुए।







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