॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिव महापुराण कैलाशसंहिता (नौवाँ खण्ड )
प्रथम अध्याय
महाराज हिमाचल द्वारा ऋषियों से राजा अनरण्य की कथा पूछना
हे नारद! यह सुनकर महाराज हिमाचल ने सप्त ऋषियों से राजा अनरण्य की कथा पूछी- -तब महर्षि वशिष्ठ जी बोले- हे शैलराज! वेदचन्द्र नामक चौदहवें मनु की सोलहवीं पीढ़ी में अनरण्य नामक एक राजा थे। वह भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के अनन्य भक्त थे। सातों द्वीपों पर उनका राज्य था। उन्होंने सर्वप्रथम महर्षि भृगु को अपना आचार्य बनाकर सौ यज्ञ किये थे। उनकी पांच रानियां थीं। सौ पुत्र थे और अति सुन्दर एक पद्मा नामक कन्या थी। वह कन्या माता-पिता को अति प्यारी थी। एक बार देवताओं ने कहा- आप इन्द्रासन पर आसीन होकर स्वर्ग पर राज्य कीजिये। किन्तु उन्होंने इनकार कर दिया। जब राजा की कन्या पद्मा विवाह के योग्य हुई तो उन्होंने चारों ओर उस के लिये योग्य वर ढूँढने के लिये पत्र भेजे। उन्हीं दिनों महर्षि पिप्लाद जब तप करके वन में से अपने आश्रम को वापिस लौट रहे थे, मार्ग में एक गन्धर्व को अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करते देखा। तब महर्षि पिप्लाद भी कामवश होकर स्त्री की तलाश करने लगे और इसी विचार में अपने आश्रम में पहुँचे। इसके बाद एक दिन जब वह पुष्पभद्रा नदी पर स्नान करने के लिये गये तो वहाँ पर महाराज अनरण्य की परम सुन्दरी कन्या पदमा भी स्नान करने के लिये आई हुई थी। महर्षि पदमा की सुन्दरता देखकर मोहित हो गए। उन्होंने लोगों से पूछा कि यह किसकी कन्या है। लोगों ने उनको बताया कि यह राजा अनरण्य की पुत्री है। यदि आप इस पर मोहित हो गए हैं, तो आप इसको राजा के पास जाकर माँग सकते हैं। महर्षि पिप्लाद उस समय तो चुप रहे लेकिन विष्णु जी का पूजन करने के पश्चात वह राजा अनरण्य के पास जा पहुँचे और उनसे अपने मन की बात कही यानी कन्या देने के लिये कहा।
महर्षि वशिष्ठ ने कहा- हे राजा हिमाचल! राजा अनरण्य ऋषि की बात सुनकर चुप हो गये। उस समय महर्षि ने क्रोध में भर कहा- हे राजन! तू हमारे मनोरथ को पूर्ण न करके जो चुपचाप हो गया है, सो तुझे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पास वह विद्या है कि जिसके द्वारा हम तुम्हें भस्म कर देंगे और तेरे वंश को भी। महर्षि पिप्लाद की बात सुनकर महाराज अनरण्य दुखी होकर रोने लग गये। उनके साथ ही रानियां तथा नौकर-चाकर भी रोने लग गये कि बूढ़े महर्षि को राजकन्या किस प्रकार दी जा सकती है,
उस समय राज्य गुरु ने महाराज अनरण्य को समझाया कि आपको एक दिन पद्मा का विवाह तो करना ही है तो फिर महर्षि पिप्लाद के साथ ही क्यों न कर दिया जाये जिससे कि आपके कुल की भी रक्षा हो। तब महाराज अनरण्य ने अपनी कन्या महर्षि पिप्लाद को दे डाली और अपने वंश को नष्ट होने से बचा लिया। महर्षि वशिष्ठ ने कहा- 'हे हिमाचल! ठीक उसी प्रकार तुम्हारे लिये भी यही उचित है कि तुम पार्वती का विवाह भगवान श्री सदाशिव महाराज के साथ कर दो। विवाह के शुभ मुहूर्त में अब केवल सात दिन ही रह गये हैं।' महाराज अनरण्य की कथा सुनकर मैं अतीव प्रसन्न हुआ हूँ। अब कृपा करके मुझे ऋषि पिप्लादि की कथा भी सुनाये।
दूसरा अध्याय
धर्मराज द्वारा महर्षि पिप्लाद की पत्नी पद्मा की परीक्षा लेना
महर्षि वशिष्ठ बोले- 'हे शैलराज! महर्षि पिप्लाद अत्यन्त वृद्ध थे। काँपता हुआ शरीर, चेहरे पर अनगिनित झुरियाँ पद्मा साक्षात लक्ष्मी के समान उनकी सेवा करती। एक दिन जब पद्मा नदी पर स्नान करने गई तो स्वयं धर्मराज एक राजकुमार के वेश में उसकी परीक्षा लेने के लिये वहाँ आये और नदी के मार्ग पर उसे घेर कर कहने लगे- 'सुन्दरी तुम बूढ़े के योग्य नहीं हो। यह रूप यह योवन बड़े पुण्य से मिलता है। इसको यो चरचराती हुई हड्डियों की भेंट चढ़ाकर बेकार मत खोओ। मैं युवा हूँ तथा सुन्दर हूँ। अतएव तुम मेरे साथ चली चलो। मैं तुम्हें सभी प्रकार से सुख पहुँचाने की चेष्ठा करूंगा। मैं रति प्रवीण हूँ। तुम मुझे अपना दास समझो।' ऐसा कहकर राजकुमार बने हुए धर्मराज रथ से नीचे उतर आये। पद्मा को पकड़ने के लिये आगे बढ़े। उनको अपनी ओर आता देख पद्मा चिल्लाई ।
'ओ पापी राजकुमार! मुझे छूने की चेष्टा न कर नहीं तो तू शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। लंपट! पापी! दुराचारी ! क्या कहता है कि अपने परम पूज्य घोर तपस्वी पति को त्यागकर तेरे साथ चल दूँ। मुझे बुरे भाव से देखने वाले दुष्ट! देख तू शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा।' शाप सुनकर धर्मराज काँप उठे और अपना वास्तविक रूप धारण करते हुए बोले- 'हे माता! मैं धर्म हूँ! जो कि सदा पराई स्त्री को अपनी माता के समान समझता हूँ। मैंने इस समय जो कुछ किया है केवल आपके पतिव्रत धर्म की परीक्षार्थ किया है। मैं ऐसा केवल परमेश्वर की आज्ञा से किया करता हूँ।
मैं धर्मराज हूँ और धर्मात्माओं के धर्म की परीक्षा करना मेरा काम है। तुम अपनी परीक्षा में पूरी उतरी हो लेकिन तुमने जो मुझको शाप दिया है उसका अब क्या होगा? धर्मराज को अपने वास्तविक रूप में अपने सामने देखकर पतिव्रता पद्मा चकित रह गई। उसने कहा- 'हे धर्मराज! मेरा भला इसमें क्या दोष है? मैं तो अब तुमको शाप दे चुकी हूँ जो कभी खाली नहीं जा सकता। परन्तु इसके साथ ही साथ मैं यह भी सोच रही हूँ कि यदि तुम्हारा नाश हो गया तो फिर सत्य कहाँ रहेगा? यह तो बड़ा अनर्थ हो गया। अब क्या हे सकत है? तुम्हारे चार पाद हैं- सतयुग में वह चार ही रहेंगे, त्रेता में तीन पाद होंगे, द्वापर में दो और कलियुग में एक भी पाद न रहेगा। सतियुग लगने पर फिर पहले की तरह पाद हो जावेंगे। पद्मा की बात सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गये। उसने पद्मा से कहा- देवी! तुम धन्य हो! तुम्हारा पति -प्रेम सदा बना रहेगा। तुम्हारे पति फिर से युवावस्था को प्राप्त हो जायेंगे और तुम्हारे यहाँ गुणवान तथा दीर्घायु दस पुत्र होंगे।
श्री धर्मराज से यह वर प्राप्त करके पद्मा संहर्ष अपने घर लौट आई। धर्मराज के दिये हुए वरदान के अनुसार महर्षि पिप्लादि फिर से जवान हो गये और कुछ समय के बाद उसके यहाँ दस पुत्र हुये। महर्षि वशिष्ठ से यह कथा सुनकर महाराज हिमाचल ने अपनी पत्नी से कहा- देवी अब देर का कोई काम नहीं है। तुम शीघ्रातिशीघ्र अपनी पुत्री गिरजा को भगवान श्री सदाशिवजी को अर्पण कर दो।
तीसरा अध्याय
वशिष्ठ के समझाने पर हिमाचल द्वारा गिरिजा का विवाह शिवजी से करने को सहमत होना
इस पर राजा हिमाचल ने महर्षि वशिष्ठ से कहा-ऋषिराज! आपकी कृपा से अब मेरा संसय मिट गया है, मैं अब भगवान श्री सदाशिव को भली-भाँति समझ गया हूँ। मेरा सब कुछ भगवान श्री सदाशिव जी का है। मैं अब अपनी पुत्री गिरजा का विवाह भगवान श्री सदाशिव जी महाराज से करने के लिये पूर्ण रूपेण तैयार हूँ। सप्त-ऋषि शैलराज की बात सुनकर गद्गद् हो गए। उन्होंने कहा-शैलराज! तुम धन्य हो! हम तो यही कहेंगे कि तुम दाता हो और भगवान सदाशिव जी महाराज भिखारी हैं और यदि तुम दाता हो तो उनको गिरजा की भीख अवश्य दो। इतना कहकर महर्षि वशिष्ठ ने गिरजा जी के सिर पर हाथ फेरा और कहा- 'पुत्री! तुम्हारा मंगल हो।' उधर अरुन्धती ने भी भगवान सदाशिव के गुण गाकर मेनका को मोहित कर लिया। फिर ऋषियों ने लोक रीति के अनुसार हल्दी, रोरी आदि से पत्थर पूजन मार्जन आदि करवाकर चार दिन के बाद लग्न भी धरवा दिया और लग्न पत्रिका लेकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के पास कैलाश पर पहुँच गए।
ब्रह्माजी बोले- 'हे नारद! सप्त ऋषियों ने कैलाश पर्वत पर जाकर जब भगवान श्री सदाशिव जी महाराज को शुभ वृतांत सुनाया तब उन्होंने अतीव प्रसन्न होकर कहा-'हे ऋषिगणों! तुम लोगों ने यह अति उत्तम कार्य किया है। तुम वेदों के ज्ञाता, ध र्मात्मा और लोकों का हित चाहने वाले हो। तुम लोगों को अब शिष्यों सहित हमारी बारात में अवश्य चलना है। यह कहकर भगवान श्री सदाशिव जी ने सप्त ऋषियों को विदा कर दिया। हे नारद! इसके पश्चात भगवान श्री सदाशिवजी ने तुम्हारा स्मरण किया और तुम अपनी वीणा बजाते हरिगुण गाते 'नारायण- नारायण' करते हुए उनके पास पहुँचे और हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए बोले- 'प्रभु! मेरे लिये क्या आज्ञा है? उस समय भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने संसार की प्रथा के अनुसार कहा- हे नारद! पार्वती ने हमारी प्राप्ति के लिये उग्र तप किया है, इसलिये मैंने उनको अपने साथ विवाह करने का वरदान प्रदान किया है।
अब तुम्हें चाहिये कि समस्त देवताओं को हमारी बारात में सम्मिलित होने के लिए निमन्त्रण दे आओ। जो भी देवता हमारी बारात में सम्मिलित नहीं होगा वह हमें कभी प्रिय नहीं होगा।' अब उधर की बात सुनो। जब राजा हिमाचल सप्त ऋषियों द्वारा लग्न पत्रिका भगवान सदाशिव जी महाराज को भिजवा चुके तो फिर उन्होंने अपने दूर-दूर रहने वाले भाई बन्धुओं को आमन्त्रित किया। इसके पश्चात वह वस्त्र, आभूषण विविध प्रकार के रत्न आदि वस्तुओं को संग्रह करने लगे। तरह-तरह की मिठाइयां और अनेकों प्रकार के पकवान बनाने के लिये पचासों हलवाई जुट गये। राजधानी के घर-घर में मंगल गीत गाये जाने लगे। हिमाचल ने अपने जिन सगे-सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया था, वह सबके सब परिवार समेत हिमाचल के घर पहुँच गये।
हिमाचल ने अपने मन्दिर को इत्यादि से उत्तम रीति से सजवाया। राजा हिमाचल का निमन्त्रण पाकर सभी पर्वत अलंकृत होकर उनके यहाँ पहुँच गए। महाराज हिमाचल ने हर्ष विभोर होकर उनका सत्कार किया तथा सुन्दर-सुन्दर विशाल महलों में उनके ठहरने का प्रबन्ध किया। स्त्री और पुरुष हर तरह से आनन्द मनाने लगे। उस समय स्त्रियों ने मंगल गीत गाते हुए पार्वती जी को स्नान करवाया और अनेकों प्रकार के वस्त्र तथा आभूषण आदि उसे पहनाए। समस्त देवताओं का पूजन करने के पश्चात सारी प्रथा पूर्ण करवाई गई।
चौथा अध्याय
शिवजी तथा गिरजा के विवाह की तैयारियाँ होना
श्री पर्वतराज महाराज हिमाचल के सेवक राजधानी के गली मुहल्लों को अति उत्तम रीति से सजाने लगे। महाराज हिमाचल ने विश्वकर्मा को बुलाकर उसे विवाह के लिये एक अतीव सुन्दर मण्डप रचने को कहा। विश्वकर्मा ने पर्वतराज की आज्ञा पाने के साथ ही एक अतीव सुन्दर मण्डप जो कि दस हजार योजन लम्बा और दस हजार योजन चौड़ा क्षण भर मैं तैयार कर दिया। मण्डप क्या था मानो विश्वकर्मा की शिल्प विद्या का सबसे बढ़िया नमूना था। उसमें उन्होंने ऐसी सुन्दर-सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया था कि बस दर्शक देखते का देखता ही रह जाता था। दरवाजों पर हाथों में धनुष बाण लिए सुन्दर वस्त्र पहने हुये द्वारपाल खड़े थे।
मंडप के मुख्य द्वार पर श्री लक्ष्मी जी की मूर्ति बनाई गई थी। हाथी, घोड़े, रथ आदि साक्षात् चलते हुए दिखाई देते थे। महल के सबसे प्रधान द्वार पर नन्दी की एक बहुत बड़ी मूर्ति बनाई गयी थी। इस प्रकार विश्वकर्मा ने गन्धर्व, लोकपालों, देवताओं तथा ऋषियों-महर्षियों की मनोहर मूर्तियां रच दी। भगवान विष्णु और देवराज इन्द्र की ऐसी मूर्तियाँ निर्माण की कि देखते ही बनता था। इसके अतिरिक्त विश्वकर्मा ने देवताओं के बैठने के लिये भी उत्तम स्थान रच दिये।
हे नारद! भगवान श्री सदाशिव जी की आज्ञा पा कर तुम देवताओं को आमन्त्रित करने के लिये चल पड़े। सर्वप्रथम तुम भगवान श्री विष्णु के पास पहुँचे और उनको भगवान श्री सदाशिव जी और गिरजाजी के विवाह का सारा वृतान्त सुनाया। उसके बाद तुम सनकादिक, भृगु आदि ऋषियों महर्षियों तथा इन्द्रलोक, ध्रुवलोक, मृत्युलोक, सूर्यलोक, चन्द्रलोक, भूलोक सप्तऋषियों सबके पास गये और उन सबको भगवान श्री सदाशिवजी के विवाह का निमन्त्रण दे आये। उस निमन्त्रण को सब लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
इसके पश्चात तुमने भगवान श्री सदाशिव जी से कहा- प्रभु आपकी आज्ञा के अनुसार सबको आमन्त्रित कर आया हूँ और सबने निमन्त्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया है। इसके पश्चात उन्होंने तुमको अपने पास-ठहरने का आदेश दिया और फिर मैं ( श्री ब्रह्माजी) भगवान श्री विष्णु, सनकादिक, लोकपाल, इन्द्रादिक, गनपति, अग्नि, धर्मराज, वरुण, कुबेर, पवन, दिग्पत, सूर्य, चन्द्रमा, ज्वालामुखी, देवी, देवता, ऋषि, महर्षि इत्यादि सब अपने परिवार व अन्य सामान सहित कैलाश पर्वत पर भगवान सदाशिव जी के पास आकर जमा हो गये, जब सब लोग जमा हो गये तो फिर अप्सरायें नाचने लगीं। और देव नारियाँ मंगल गीत गाने लगीं। वहाँ पर एक महान उत्सव आरम्भ हो गया। उसके पश्चात लोकाचार की रीतियां करने के पश्चात भगवान सदाशिवजी महाराज की आज्ञा से सब देवता बारात सजाने व चढ़ाने की तैयारी करने लगे।
सब लोग अपने-अपने वाहनों को सजाने लगे। मैंने तथा भगवान श्री विष्णु ने उत्तम रीति से बारात सजाई। देव पत्नियों ने मोतियों से चौक पूजे और मंगल गीत गाये। उस समय की शोभा का र्णन नहीं किया जा सकता। भगवान श्री सदाशिव जी का स्वरूप उस समय परम सुन्दर था। हाथी, घोड़ों के झुण्ड सजाये गये और शुभ मुहूर्त में हम लोग भगवान श्री सदाशिवजी की बारात लेकर चल दिये। बारात के चलने के समय विघ्न निवारणार्थ देवताओं का पूजन करवाया गया और भी लौकिक वैदिक विधि के अनुसार सभी मंगल कार्य करवाए गये, आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी फिर भगवान श्री सदा शिवजी ने ब्राह्मणों को नमस्कार करके अपना डमरू बजा दिया। अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे और भगवान सदाशिव जी की बारात ने सज-धज के साथ हिमाचल नगर को प्रस्थान किया।
॥ ॐ नमो शिवायः ॥
श्री शिव महापुराण कैलाशसंहिता (नौवाँ खण्ड ) पाँचवाँ अध्याय
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