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श्री शिवमहापुराण उमासंहिता (आठवाँ खण्ड) प्रथम अध्याय

                                                         ॥ ॐ नमः शिवाय ॥


                                      श्री शिवमहापुराण उमासंहिता (आठवाँ खण्ड)


         प्रथम अध्याय


तारकासुर द्वारा देवताओं पर चढ़ाई ब्रह्माजी बोले- नारद! तारकासुर वरदान पाकर अपने घर लौट आया और अपनी स्त्री से सारा वृतान्त सुनाया। इसके पश्चात् श्री शुक्राचार्य ने मेरी आज्ञा से उसे दैत्यों का राजा बना दिया। उसने असुरों की सेना एकत्र की। उस सेना में करोड़ों बलवान असुर थे, जिनके नाम कुम्भक, महेश, कुञ्जर, कालनेमि, कृष्ण, जट्टर, प्रजाभुल्क, शुम्भ और कलाकेतु थे। असुर सेना के सबसे बड़े सेनापति का नाम ग्रसन था, वह असुर अपने बल के सामने तीनों लोकों को तुच्छ समझते थे। हे नारद! उस बलवान सेना को साथ लेकर उसने सबसे पहले इन्द्र पर चढ़ाई की। इन्द्र ने उससे डरकर एरावत हाथी और अपना खजाना, श्वेत रंग के नौ घोड़े उसको दे दिये। ऋषियों-महर्षियों ने भी डर के मारे कामधेनु तथा सूर्य ने उच्चेश्रवा नामक घोड़ा एवं अन्य देवताओं ने अपनी सभी प्रिय वस्तुयें उनको दे दी। इसके पश्चात् तारकासुर ने त्रिलोकी में से ढूँढ-ढूँढ कर समस्त बहुमूल्य वस्तुयें अपने अधिकार में कर लीं।




समुद्र ने उससे डर कर उसको नाना प्रकार के रत्न दिये। तारकासुर ने देवताओं के स्थान पर दैत्यों को नियुक्त कर दिया। जो देवता तारकासुर से डर कर जहाँ तहाँ छिप गये थे। उनके पास जाकर भगवान श्री विष्णु ने कहा- शिव की कृपा के कारण तारकासुर में महान बल है, अतएव तुम लोग उसको जीत नहीं सकते। आप लोगों को चाहिये कि अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए नट का भेष बनाकर उनके पास जाओ और उसको प्रसन्न करो।


हे नारद! श्री विष्णु की बात सुनकर वह छिपे हुए देवता नट का रूप धारण करके उसके पास गये और उससे इस ढंग से बातचीत की कि वह प्रसन्न होकर कहने लगा- तुम लोगों की जो भी इच्छा हो वह मुझसे माँग सकते हो। माँगो तुम लोगों की जो भी इच्छा होगी, उसे अवश्य दूँगा। उस समय देवताओं ने उससे सम्मिलित रूप से प्रार्थना की कि आप सब देवताओं को बन्दीघर से मुक्त करके उनके पद दे दीजिये।


तारकासुर ने देवताओं की इस बात को मान लिया और देवताओं को बन्दीघर से निकालकर दोबारा उनके पदों पर नियुक्त कर दिया, परन्तु इस पर भी देवता लोग प्रसन्न न थे। तारक के राज्य में देवताओं को छोड़कर सभी सुखी थे। परंतु देवताओं के दुःख का कोई वार-पार न था, वह अत्यन्त दुखी थे।


     दूसरा अध्याय


                              तारकासुर से रक्षा हेतु देवताओं द्वारा ब्रह्माजी से प्रार्थना करना


हे नारद! जब देवता तारकासुर के कारण अत्यन्त कष्ट भोगने लगे तब वह सब एकत्र होकर मेरे (ब्रह्मा जी के पास आये और मेरी स्तुति की। मैंने उनसे पूछा- हे देवराज! तुम्हारे इस प्रकार दुखी होने का क्या कारण है? देवराज इन्द्र के मुख पर तेज दिखाई नहीं देता था। संसार में ऐसा कौन बलवान है जिसने कि तुमको दुःखी कर दिया है। उसका बखान मुझसे करो। तब देवताओं ने कहा- प्रभु सदाशिवजी महाराज के वरदान के फलस्वरूप तारकासुर त्रिलोकी को जीत कर हम सबको स्वर्ग से निकालकर स्वयं इन्द्रासन पर बैठ गया है। उसके भय से सूर्य देव भी ठण्डे और गर्म होते हैं। समस्त कलाएँ उसकी सेवा में रहती हैं। 


हे पितामह ! वह श्री सदाशिवजी महाराज का पूजन करता है। उसके बाग में वायु इसलिये नहीं चलती कि कहीं पुष्प टूट कर धरती पर न गिर पड़े। सभी ऋतुयें उसके अधीन हैं। जिन वृक्षों की पत्तियों को देवपत्नियाँ तोड़ती थीं, उन वृक्षों को असुर जड़ से तोड़ फेंकते हैं। वासुकि नाग स्वयं दीपक बने हुए अपने मस्तक की मुक्ता मणियों से उसके महल में प्रकाश करते हैं और देवराज इन्द्र हर समय उसकी सेवा में हाजिर रहते हैं। विश्राम के समय देव पत्नियाँ उसकी स्तुति करती हैं और उनके नेत्रों से हर समय अश्रुधारा बहती रहती हैं। तारकासुर के साथियों ने पर्वतों की शिखायें काटकर वहाँ अपने लिये विशाल भवन बना रखे हैं। देवता अपने नेत्रों से नहीं देख सकते हैं। असुर यज्ञ आदि के भाग को स्वयं ही ले लेते हैं। इन्द्र आदि देवताओं की कुछ पूछ ही नहीं रही। जिस प्रकार सन्निपात हो जाने पर कोई औषधि काम नहीं करती, उसी प्रकार हमारी बुद्धि इस समय कुछ भी काम नहीं कर रही है।


हे ब्राह्मण! हमें भगवान विष्णु के चक्र पर बड़ा भारी भरोसा था, परन्तु तारकासुर के सामने वह भी वेकार हो गया। अतः आप हमें कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे कि हमारी मनोकामनायें पूर्ण हों।


हे नारद! देवताओं की बात सुनकर मैं ( श्री | ब्रह्माजी) ने उनसे कहा कि तारक ने सदाशिव जी 'महाराज से वरदान प्राप्त किया हुआ है, उसे भगवान सदाशिव जी महाराज के अतिरिक्त और कोई नहीं मार सकता है। एक उपाय है यदि भगवान श्रीसदाशिव के वीर्य से कोई पुत्र पैदा हो तो वही तारकासुर को मार सकता है। भगवान श्री सदाशिव जी महाराज इस समय हिमाचल प्रदेश में आत्मचिंतन कर रहे हैं और गिरिजा जी अपनी सखियों सहित उनकी सेवा में लगी हुई हैं।



अतएव तुम कोई ऐसा उपाय करो जिससे कि भगवान श्री सदाशिव गिरिजा जी से विवाह कर लें। गिरिजा के अतिरिक्त यह कार्य किसी से नहीं हो सकेगा, अब तुम लोगों के लिये यही उचित है कि तुम कामदेव को भगवान श्री सदाशिव के पास भेजो। हे नारद! मेरी बात सुनकर सब देवता अपने-अपने स्थान को वापिस लौट गये। देवराज इन्द्र ने फिर कामदेव का ध्यान किया। उसी समय कामदेव ने अपनी पत्नी रति के साथ इन्द्र की सेवा में उपस्थित होकर कहा- हे राजेन्द्र ! आपने मुझे किसलिये याद किया है वह आप मुझसे कहिये।


इन्द्र ने कहा- हे कामदेव! तारक नामक एक असुर है। श्री सदाशिव जी महाराज से वरदान पाकर वह निर्भय हो गया है। उसे कोई मार नहीं सकता। वह सारे संसार को दुखी किये हुए है। उसकी मृत्यु भगवान रुद्र के द्वारा होगी। ऐसा ब्रह्माजी ने कहा है अतः उनके यहाँ पुत्र तभी होगा जबकि वह गिरिजा के साथ विवाह करेंगे। भगवान श्री सदाशिव को मोहित करना केवल तुम्हारा काम है, तभी भगवान सदाशिव गिरिजा जी से प्रेम करने लगेंगे। गिरिजा जी उनकी सेवा व पूजन के लिये नित्यप्रति उनके पास जाती है। 


यदि उन दोनों का विवाह हो जाये तो देवताओं का कार्य हो सकता है। देवराज इन्द्र की बात सुनकर कामदेव ने कहा-राजेन्द्र! मैं अवश्य ही इस काम को करूंगा। इसके पश्चात् सदाशिव जी माया से मोहित हुये कामदेव बसंत आदि अपनी सेना को साथ लेकर उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर कि भगवान श्री सदाशिव महाराज आत्मचिंतन कर रहे थे।


      तीसरा अध्याय


                       कामदेव द्वारा शंकरजी को मोहित करने की कोशिश करना


ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जिस स्थान पर बैठे हुए सदाशिवजी महाराज आत्मचिंतन कर रहे थे, वहाँ उसने बसन्त ऋतु फैला दी, जिससे चहुँ और पुष्प व पौधे उत्पन्न हो गये और नाना प्रकार के पक्षी मधुर गान करने लगे। वह देवता जो अपने आपको इन्द्रिय दमनकर्त्ता कहते, वह भी कामदेव की माया से मोहित होकर इन्द्रियों के दास बन गये और कामी मनुष्य तो बिल्कुल चलायमान हो गये। संसार में उस समय कोई भी ऐसा न रहा जिसको कि कामदेव ने घायल न किया हो। सब देवता, योगी, ऋषि, महर्षि, साधु आदि शुद्ध मार्ग को त्याग कर काम के अधीन हो गये, वन में ऋषियों-महर्षियों के मन डिगने लगे। इस प्रकार के काम साधनों को देखकर भगवान श्री सदाशिव आश्चर्य में पड़े गये और वह पहिले से अधिक कठिन तपस्या करने लगे, लेकिन कामदेव निराश न हुआ। उसने एक के बाद एक करके अपने पाँच बाण भगवान श्रीसदाशिव के बांये पहलू में छोड़े। लेकिन वह अपनी चेष्टा में असफल रहा। भगवान शिव पर उसके बाणों का कोई प्रभाव न पड़ा, भला किसमें इतना साहस था, जो भगवान सदाशिव को मोहित कर सकता।


उसी समय गिरिजा जी हाथ में पुष्पों की थाली लेकर व पूजन की अन्य सामग्री लेकर श्री सदाशिव जी महाराज के पूजन के लिये आईं। उनके साथ बहुत सी सखियाँ भी थीं और संयोगवश भगवान सदाशिव उस समय ध्यान से मुक्त भी थे। कामदेव ने इस अवसर को सुअवसर समझा और कानों तक बाण खींच कर उन पर छोड़ दिया और इसके पश्चात् वह उन पर बाण छोड़ने लगा, यहाँ तक कि भगवान शंकरजी को मोह प्राप्त हो गया। अब वह सोचने लगे कि गिरिजा के शरीर को देखकर जो इस प्रकार आनन्द की प्राप्ति हो रही है। यदि मैं इन्हें आलिंगन कर लूँ तो न जाने कितने बड़े आनन्द की प्राप्ति हो। अब वह आगे बढ़कर गिरिजा जी का हाथ पकड़ने की इच्छा करने लगे।


ठीक उसी समय गिरिजा जी नारी स्वभाव के अनुसार तनिक लज्जित सी होकर कुछ पीछे हट गईं। उनके पीछे हटने के साथ ही भगवान श्री शंकर जी को ज्ञान हो आया तब वह विचार करने लगे- अरे यह क्या! मैं निर्विकार होकर भी काम से विकार पाकर मोहित हो गया हूँ। यदि मैं ईश्वर होकर काम से मोहित हो गया तो फिर भला शेष संसारियों की क्या गति होगी। हो न हो यह कामदेव की करतूत मालूम होती है।


      चौथा अध्याय

                                  भगवान शंकर का कामदेव को भस्म करना


 हे नारद! भगवान श्री शंकरजी ने जो अपनी बाँई ओर देखा तो धनुष बाण हाथों में लिये हुए कामदेव को खड़े पाया। अब तो शंकर जी के क्रोध का वार-पार न रहा। उनके क्रोध के कारण तीनों लोक बुरी तरह से काँपने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे कि प्रलय आने वाली हो। उसी समय उनके मस्तक का तीसरा नेत्र खुल गया और उसमें से बड़ी तीव्र अग्नि निकल पड़ी बस फिर क्या था, उसी अग्नि से कामदेव जलकर भस्म हो गया। उसी समय तीनों लोकों में हा-हाकर मच गया। देवता दुःखी और दैत्य प्रसन्न हो गये। गिरिजा जी तो कामदेव के भस्म होने के साथ ही अपनी सखियों को साथ लेकर अपने घर वापस लौट गई।


कामदेव की स्त्री रति तो दुखी होकर बेहोश हो गयी और कटी हुई लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी, जब होश में आई तो बुरी तरह से विलाप करने लगी। वह अपने भस्म हुए पति से कहने लगी- हे स्वामी! आप मुझसे बिना कहे क्यों शिवलोक को चले गये। अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? इन्द्रलोक में जो तुमने अहंकार पूर्ण बातें की थीं, यह उसको ही फल मिला है। हाँ देवताओं ने मेरे साथ बुरा किया है, जो मेरे पति को यहाँ भेजकर भस्म करवा दिया है।


रति को इस प्रकार रोते देखकर इन्द्र आदि देवता उसको धैर्य देते हुए समझाने लगे और कहने लगे कि यह संसार सुख व दुःख दोनों की ही खान है। यहाँ पर न कोई किसी को दुःख देता है और न कोई पाता है सब अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं। अब तुम धैर्य धारण करो और अपने पति की भस्म को संभल कर रख लो। भगवान श्री शंकरजी महाराज की कृपा से तुम्हारा पति पुनः जीवित हो जायेगा। इस प्रकार रति को धैर्य देकर सब देवता भगवान श्री शंकर जी के पास पहुँचे, उन्हें प्रणाम किया, फिर उनकी स्तुति की और इस प्रकार उनको प्रसन्न करके बोले- प्रभु ! हम सब लोग शोक सागर में डूबे हुए हैं, आप हमें पार लगावें। हे प्रभो! हम आपके ही दास हैं। हमें कृपा दान दें।


देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान श्री शंकर जी ने कहा- हे देवताओं! तुम्हारी स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। अब जो तुम्हारी इच्छा हो वह हमसे माँग लो। यह सुनकर देवताओं ने भगवान श्री शंकर जी महाराज से कहा-प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं। हम लोगों की जो इच्छा है, वह आप भली भाँति जानते हैं। अब आप कृपा करके हमारा मनोरथ पूर्ण करें। भगवान श्रीसदाशिव जी महाराज ने कहा- हे देवताओं! हमने जो कुछ किया है, वह ब्रह्मा के शाप के अनुसार किया है। इस समय जो होना था सो हो चुका। 


जब भगवान विष्णु का कृष्ण अवतार होगा, तक कामदेव उनका पुत्र होगा। उनका नाम उस समय पर प्रद्युम्न होगा। शाम्बर नामक एक राक्षस उसे उठाकर समुद्र में डाल देगा। यह रति उस शाम्बर के नगर में निवास कर रही होगी। समुद्र में फेंका हुआ उसका पति वहीं आकर इसको मिल जायेगा। फिर वह शाम्बर को मारकर रति को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज के पास आ जावेगा। हे नारद! इतना कहकर भगवान श्रीसदाशिव जी महाराज अन्तर्ध्यान हो गये और देवताओं ने रति को समझा बुझाकर देवराज इन्द्र के निवास स्थान पर भेज दिया।


        पाँचवाँ अध्याय


                                        विष्णु का ब्राह्मण बनकर दधीचि के पास जाना


हे नारद! कामदेव के भस्म हो जाने के पश्चात् सब देवताओं ने मेरे पास आकर कामदेव के भस्म हो जाने का कारण मुझे बताया, कारण जानने के बाद मैं भगवान सदाशिवजी के पास पहुँचा। लेकिन वहाँ जाकर देखा तो पता चला कि शंकर जी की क्रोध अग्नि बुरी से भड़क रही है। मैं उस अग्नि को समुद्र के पास मुझे देखकर समुद्र मनुष्य का रूप धारण करके मेरे सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसने कहा-प्रभु! कहिए आपने किसलिए कष्ट किया है। मेरे लिए कोई सेवा हो तो बताइये। इस पर मैंने कहा- भगवान सदाशिवजी ने अपने तीसरे नेत्र की तेज अग्नि द्वारा कामदेव को भस्म कर दिया है। 


वह अग्नि अब त्रिलोकी को भी जलाकर भस्म कर देगी। इसलिये मैं उसको ऐसा करने से रोक कर तुम्हारे पास लाया हूँ। सागर ने कहा- मेरे लिये क्या आज्ञा है? मैंने कहा तुम इसे प्रलयकाल तक धारण किये रहो जिस समय मैं यहाँ आकर निवास करूँ तुम इस का त्याग कर देना। तब तक तुम्हें इसके खान-पान का प्रबन्ध करना होगा। हे नारद जी! मेरे इस प्रकार कहने पर समुद्र ने मेरी बात स्वीकार कर ली और बड़े-बड़े लपलपाते हुए शोले निकालती हुई वह अग्नि समुद्र में प्रवेश कर गई, इसके बाद सागर देव मुझको प्रणाम करके वापिस लौट गया और मैं भी अपने धाम को चला आया।



            छठवाँ अध्याय


             गिरिजा जी द्वारा सदाशिव को प्राप्त करने हेतु नारद जी से युक्ति पूछना


श्री ब्रह्माजी बोले हे नारद! कामदेव के भस्म होने के पश्चात् गिरिजा जी ने घर पहुॅचकर जो अद्भुत घटना देखी थी, वह अपने माता-पिता को कह सुनाई, उनके माता-पिता ने उनको हर प्रकार से तसल्ली दी। मगर उनकी बेचैनी दूर न हुई। वह अब चलते फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय भगवान श्री सदाशिव के चरित्रों को याद किया करती और व्याकुल रहा करती। उस समय तीनों लोकों में घूमते फिरते एक दिन तुम (देवऋषि नारद ) वहाँ पहुँच गये। 


तुम्हें देखकर गिरिजा ने कहा- प्रभु! मुझको कोई ऐसी युक्ति बताइये जिससे कि मैं भगवान श्री सदाशिवजी को प्राप्त कर सकूँ। तुमने गिरिजा से कहा- यदि तुम भगवान श्री सदाशिव को प्राप्त करना चाहती हो तो तुम तपस्या करो, क्योंकि भगवान श्री सदाशिव जी तपस्या के आधीन होकर प्रसन्न हुआ करते हैं। अतएव तुम बहुत समय तक तप एवं आराधना करो जिससे कि प्रसन्न होकर भगवान तुम्हें स्वीकार कर लें।


इस पर गिरिजा ने कहा- महामुनि! आप मुझे अपनी शिष्या बना लें और भगवान श्री सदाशिव जी की अराधना के लिये मुझे मन्त्र प्रदान करें क्योंकि गुरु की दीक्षा के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं हुआ करता। इस पर तुमने कहा-हे देवी! मैं पंचाक्षर मन्त्र कहता हूँ। तुम उसका जप करो और वह मन्त्र यह है- ॐ नमः शिवाय। यह मन्त्र सब मन्त्रों का राजा है। तुम इसका विधिवत व नियमपूर्वक जाप करो। इसके विधिपूर्वक जप से तुम्हें भगवान श्री सदाशिवजी के साक्षात दर्शन होंगे और वह तुम पर प्रसन्न भी होंगे।













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