॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता (सातवाँ खण्ड)
प्रथम अध्याय
नारदजी द्वारा ब्रह्मा जी से सतीजी के शरीर त्याग के बाद की कथा सुनाना
नारद जी ने पूछा- 'हे पितामह ! जब सती ने अपना शरीर त्याग दिया तब उन्होंने हिमालय पुत्री बनकर किस प्रकार तप करके भगवान श्री सदाशिव जी को प्राप्त किया, अब मैं यह कथा सुनना चाहता हूँ।
श्री ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! जब सती जी ने अपना शरीर त्याग दिया तब उनके शरीर से एक तेजमयी ज्वाला उत्पन्न हुई, जिसका नाम ज्वाला भवानी हुआ, जो सबको सुख देने वाली है। उनका पूजन करने से मनचाहा फल मिलता है। कल्प भेद से सती के और भाग भी प्रकट हुए। नारद जी बोले- 'प्रभु! आप सब कल्प भेद के अनुसार सती चरित्रों का वर्णन कीजिये और बताइये कि और कौन-कौन सी शक्तियाँ उत्पन्न हुई।' ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! सती देवी जब शरीर त्याग करने जाने लगीं तो उन्होंने सब देवताओं को सम्बोधित करके कहा-मैं अब शरीर त्याग करने जा रही हूँ। मेरे पिता सहित सब ऋषियों को कष्ट उठाना पड़ेगा, कोई भी बिना दण्ड पाये न रह सकेगा। इसके पश्चात् भगवान सदाशिव जी महाराज मेरे वियोग के कारण दुखी होकर समस्त लोकों का भ्रमण करेंगे। यह कहकर जब सती देवी वहाँ से जाने लगीं तो उनकी माता और बहनों ने उनको रोकना चाहा, मगर वह अन्तर्ध्यान हो गई और गंगा तट पर जाकर स्नान करके, पवित्र वस्त्र पहन कर श्री सदाशिव का पूजन करके, साँस को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर, अपने शरीर को भस्म कर दिया, उससे इतना भयंकर शब्द हुआ कि सहस्त्रों मकान गिर गये। यह देखक. सती के साथ जाने वाले गणों ने उत्पात मचाना आरम्भ कर दिया। किन्तु महर्षि भृगु ने मन्त्र बल से शिवगणों को भगा दिया। फिर शिवगणों ने जाकर श्री सदाशिव जी महाराज को सारा समाचार सुनाया और उन्होंने वीरभद्र को भेजकर यज्ञ नष्ट करवा दिया।
यज्ञ के नष्ट होने पर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज का क्रोध कुछ शान्त हुआ। मगर उनको सती जी का वियोग बड़ा दुखी कर रहा था। सदाशिव जी महाराज अत्यन्त दुखी होकर उस स्थान पर गये जहाँ पर कि सती देवी ने प्राण त्यागे थे। सतीजी का शरीर भस्म हो चुका था परन्तु सदाशिवजी ने उनका दिव्य शरीर वहाँ पड़ा देखा और उसको देखने के साथ वह बेहोश हो गये। अतएव सदाशिवजी महाराज परब्रह्म, अविनाशी और माया से रहित हैं, मगर सांसारिक कर्म के अनुसार उन्होंने यह लीला की। जब वह होश में आये तो वह एक साधारण मनुष्य की तरह सती का नाम ले लेकर और गुणों का वर्णन करके रोने लगे और सती के शरीर को उठाकर जंगलों, वनों, पर्वतों और समस्त लोकों में घूमते हुए फिरने लगे। जब वह भारत खण्ड के सप्त शांगि पर्वत की चोटी पर आये, तब वहाँ एक एकान्त स्थान पर आकर एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर उच्च स्वर से हा-हाकार करने लगे। उनकी अश्रुधारा से वहाँ पर एक पवित्र सरोवर दो योजन लम्बा चौड़ा उत्पन्न हुआ, जिसमें स्नान करना बड़ा उत्तम फल देने वाला है और सब ईच्छाओं को पूर्ण करने वाला है। जहाँ-जहाँ भी सती का कोई अंग गिरा था, वहाँ-वहाँ ही एक पवित्र तीर्थ बन गया और उन तीर्थों पर स्नान करने से मनुष्य को मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। सती जी के शेष अंगों का क्रिया-कर्म करके हड्डियों की माला बनाकर सदाशिवजी महाराज ने गले में पहल ली और प्राणेश्वरी! भवानी! जगदम्बा! आदि नाम ले-लेकर विलाप करने लगे। अब सती जी के अंगों में से जो पीठ उत्पन्न हुए उनकी कथा सुनो।
देवपुर नामक पर्वत के ऊपर श्री सती के दोनों चरण गिरे। वहाँ पर महाभाग देवी उत्पन्न हुई। वह स्थान पीठ है। वहाँ पर शिवलिंग भी है। उसके प्रकट होते ही मैंने तथा श्रीविष्णु ने उनका पूजन किया और मनवांछित फल पाया। उटयानी नामक देश में सती के • नितम्बों द्वारा उत्पन्न कल्याणी सिद्ध पीठ का निर्माण हुआ, वहां पर भी शिवलिंग है। इस सिद्ध पीठ की भी मैंने तथा श्री विष्णु ने विधिवत पूजा की।
कामशील परयोनि के गिरने से काम्याख्या नामक सिद्ध पीठ उत्पन्न हुआ। उन काम्याख्या देवी का भी मैंने तथा श्री विष्णु ने पूजन किया। जालन्धर पर्वत पर सती देवी के कुछ गिरे और वहाँ पर चण्डी नामक सिद्ध पीठ शिवलिंग सहित प्रकट हुआ। गंगा तट पर महामाया का एक अंग गिरा उससे वागेश्वरी नामक सती अंगों के बहुत से सिद्ध उत्पन्न हुए। वहाँ पर शिवलिंग भी स्थापित हुए। हम सब देवताओं ने उन सबको प्रणाम किया। उनकी पूजा करने वालों के मनोरथ अवश्य पूरे होते हैं। श्री सदाशिवजी महाराज ने मनुष्यों के हितार्थ ही यह लीला की क्योंकि वह ही इस जगत के माता-पिता हैं। लोक व परलोक में सुख देने वाले हैं। इसके पश्चात् सती जी का जन्म मैनाक पर्वत के यहाँ हुआ। सती जी ने वहाँ बाललीला समाप्त कर उनको धन्य किया। इसके पश्चात् घोर तप करके भगवान श्री सदाशिवजी को प्राप्त किया। नारद जी बोले-'प्रभु आप सती देवी के दूसरे अवतार की कथा मुझे सुनाइये। श्री ब्रह्माजी बोले- 'हे नारद! जब सती भस्म होने जा रही थीं तो उन्होंने श्री सदाशिव जी महाराज से वर माँगा था कि हे प्रभु! यद्यपि मैं अपना यह शरीर त्याग कर रही हूँ, मगर आप सदा मुझ पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखना और मेरा प्रेम भी सदा आपके चरणों में बना रहे।
अब तुम सती जी के दूसरे जन्म की कथा सुनो उत्तर दिशा में हिमालय नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जिन दिनों की मैं कथा कह रहा हूँ, उन दिनों वहाँ पर हिमालय नाम का राजा राज करता था। हिमालय बड़ा ही तेजस्वी, सर्वांग, सुन्दर, विष्णु का रूप और संतों का प्रिय था। एक बार सब देवताओं ने पितरों से प्रार्थना की कि वह अपनी रूप व गुणों की खान पुत्री मेनका का विवाह हिमालय के साथ कर दें। इसी में सबकी भलाई है। पितरों ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्होंने अपनी मंगल रूपिणी कन्या का विवाह हिमराज हिमालय के साथ कर दिया, उस विवाह में बड़ा उत्सव हुआ और भगवान श्री विष्णु जी सहित सभी देवता उसमें सम्मिलित हुए।
दूसरा अध्याय
मेनका के जन्म की कथा
नारदजी बोले-प्रभु! आपने मेनका के जन्म की कथा नहीं सुनाई। ब्रह्मा बोले-सुनो, वह भी कहता हूँ। मेरे पुत्र दक्ष के यहाँ कई सन्तानें हुई थीं, किन्तु वह सबकी सब तुम्हारे उपदेश के कारण वैरागी हो गई थीं। इससे उसको सन्तोष न हुआ। अतएव फिर उनके यहाँ साठ कन्यायें उत्पन्न हुई। जिनका विवाह उसने कश्यप आदि ऋषियों के साथ कर दिया था। उन साठ कन्याओं में से स्वधा नामक कन्या उसने पितरों को दी थी। स्वधा के यहाँ तीन कन्यायें उत्पन्न हुई-मेनका, धान्य और कमलावती, यह तीनों कन्या साथ ही धर्मस्वरूप भी थी।
एक बार यह तीनों बहनें क्षीर समुद्र में भगवान श्री विष्णु जी महाराज के दर्शनों, सेवा तथा पूजा के लिये गई। संयोगवश ठीक उसी समय मेरे "पुत्र सनकादिक वहाँ पहुँचे। भगवान विष्णु ने समस्त देवमंडल के साथ उठकर उनका स्वागत किया। लेकिन यह तीनों बहिनें भगवान श्री सदाशिवजी की माया से मोहित होकर वहाँ चुपचाप बैठी रहीं। इस पर वह मेरे पुत्र सनकादिक भी भगवान की माया से मोहित होकर क्रोध में भर गये और उन्होंने इन तीन बहनों को दण्डित करना चाहा और योगेश्वर सन्त कुमार ने इन बहनों को शाप दे दिया। श्री सन्त कुमार ने कहा तुम तीनों बहनें श्रुति को नहीं जानती हो, तुम स्वर्ग रहने के योग्य नहीं हो, अतएव तुम मनुष्य लोक में चली जाओ। उन्होंने चकित होकर श्री सन्तकुमार से हाथ जोड़कर कहा-ऋषिराज! आपका अनादर करने का शाप तो हमें मिल गया, अपितु आपके दर्शनों का जो वरदान हमें मिलना था, वह अभी तक प्राप्त नहीं हुआ।
अतः कृपया हमें इस शाप से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय बताइये। आप कृपा कर हमारे लिये कुछ ऐसा उपाय सोचिये जिससे हम पुनः स्वर्ग को प्राप्त कर सकें। उन तीनों बहनों की प्रार्थना सुनकर श्री सन्त कुमार ने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा अब हम तुमको वर भी देंगे। ध्यानपूर्वक सुनो। तुममें से जो ज्येष्ठा है, वह राजा हिमालय से ब्याही जायेगी और अपने गर्भ से जगत जननी पार्वती को जन्म देगी जो भगवान श्री सदाशिवजी महाराज को अपना पति बनायेगी तथा अपने कुल के पापों को नष्ट कर देगी। दूसरी कन्या ध न्या राजयोगी जनक की पत्नी होगी, जिसके यहाँ महालक्ष्मी सीता होकर उत्पन्न होगी, तीसरी बहन कलावती द्वापर में महाराज वृक्षभान को प्राप्त होकर श्री राधिका जी को जन्म देगी जो कि आनन्द कन्द ब्रजराज भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज की प्रिय होगी।
तीसरा अध्याय
हिमाचल के साथ मेनका के विवाह की कथा
जब महाराज हिमाचल मेनका को ब्याहकर अपनी राजधानी को वापस लौटे तो सभी देवता और ऋषि महर्षि उनके पास आये। महाराज ने उन सबका यथायोग्य आदर सत्कार किया। देवताओं ने फिर हिमालय से कहा- 'हे रागेश्वर! अब देवताओं का कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होगा। सती के शरीर त्यागने के सम्बन्ध में तुमको सब ज्ञात है। अतएव अब तुमको ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे वह तुम्हारे यहाँ अवतरित हो। यह तभी हो सकता है, जबकि तुम उनकी प्राप्ति के लिए तपस्या करो।
हिमाचल ने देवताओं के आदेशानुसार तप करना आरम्भ कर दिया। मैं और श्री विष्णु सहित देवताओं को साथ लेकर जग जननी जगदम्बे के पास गये और उनसे कहने लगे-'जग जननी! जगत माता! आप सर्वश्रेष्ठ और महान हैं। आपकी महिमा अपार है, हम सब लोग आपकी शरण में आये हैं। अब आप दोबारा अवतार लेकर हम सबके मनोरथ पूरे करो। तभी सनकादि के वचन भी पूरे होंगे।' हम लोगों की प्रार्थना सुनकर भगवती ने प्रसन्न होकर अत्यन्त कोमल तथा मधुर स्वर में कहा- तुम लोगों की इच्छा अवश्य पूरी होगी। महाराज हिमाचल और महारानी मेनका भी इसी उद्देश्य से तपस्या कर रहे हैं और इसके साथ ही साथ भगवान सदाशिव की भी यही इच्छा है। ऐसा कहकर भगवती अन्तर्ध्यान हो गई और देवता प्रसन्नचित हो अपने धाम को वापिस लौट आये।
चौथा अध्याय
हिमाचल तथा मेनका का भगवती जगदम्बा का अपने यहाँ जन्म लेने के लिए पूजा करना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! देवताओं का आदेश मानकर हिमाचल और मेनका दोनों भगवती जगदम्बा सहित पूजन करने लगे। वह लोग अष्टमी का व्रत रखकर भगवान सदाशिव का पूजन करते थे। फिर नवमी के दिन धूप, दीप आदि से भगवती का पूजन करते। कभी आहार के साथ और कभी निराहार रहकर जगदम्बा का पूजन करते। वह सत्ताईस वर्ष तक इसी तरह से तप करते रहे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उनको साक्षात् दर्शन दिये। उनके भी अंगों की आभा प्रभात काल सूर्य के समान थी। मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट था। वह उभरे हुए स्तनों और नेत्रों से युक्त थी। उनके मुख पर मुस्कान की छटा छायी हुई थी और हाथों में बरद, अंकुस, पाश एवं अभय मुद्रा शोभा दे रही थी। भगवती ने हिमाचल से कहा- 'वर माँगो', मेनका ने बारम्बार नमस्कार करके, अनेक प्रकार प्रणाम करके और उनके गुणों का बखान करके कहा-मातेश्वरी! मैं तो आपकी शरण में हूँ, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो मुझको सबसे पहला वर यह दें कि मुझे रूपवान, गुणवान, बलवान और विद्वान सौ पुत्र प्राप्त हों, दूसरा वर यह देवें कि आप स्वयं मेरी कन्या के रूप में आकर अवतार लें।
भगवती यह सुन हँस कर बोलीं-इस प्रकार का वर माँगने वाली देवी तुम धन्य हो। तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारे यहाँ सौ पुत्र होंगे और तुम्हारा बड़ा पुत्र अधिक बलवान होगा और जो दूसरा वर तुमने माँगा है। उसके लिये मैं तुम्हारे यहाँ पुत्री के रूप में जन्म लूँगी। दोनों वरदान देकर उमा देवी अन्तर्ध्यान हो गई।
पाँचवाँ अध्याय
भगवान शंकर का सती के वियोग में अवधूत होकर समस्त लोकों में घूमना
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! सतीजी के शरीर त्यागने के पश्चात्, भगवान शिव उनके वियोग में दुखी होकर अवधूत के समान नंग-धडंग होकर फिरने लगे। वह पर्याप्त समय तक इसी अवस्था में समस्त लोकों में घूमते रहे। उसके पश्चात् उन्होंने कैलाश पर आकर समाधि धारण कर ली। बालों के खुलने से उनके मस्तक से पसीना चूकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, जिससे उसी समय एक बालक उत्पन्न हो गया। जिसकी चार भुजायें थी और लाल वर्ण था। वह बालक प्रकट होने के साथ ही रोने लगा। उस बालक को देखकर पृथ्वी ने सोचा कि भगवान सदाशिव इसका पालन-पोषण भला बिना सती के कैसे कर सकेंगे। ऐसा विचारकर पृथ्वी एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण करके वहाँ आई और उसे अपना दूध पिलाकर उसका मुख चूमने लगी तथा उसको लाड़ लड़ाने लगी। अब तो वह बालक हँसने तथा खेलने लगा। अन्तर्यामी भगवान शंकरजी ने यह देखकर पृथ्वी से कहा-पृथ्वी! तुम धन्य हो। तुम इस बालक का पालन पोषण बड़े प्रेम से करो। यह पसीने से पैदा हुआ है। फिर भी इसका नाम तुम्हारे नाम पर 'भौम' होगा। यह तुम्हारे सुख का कारण बनेगा।
इतना कहकर भगवान श्री सदाशिव जी महाराज चुप हो गये। बालक के देखने से भवगान सदाशिव की चिन्ता और वियोग दोनों ही कुछ कम हो गये। पृथ्वी माता उस बालक को उठाकर अपने घर ले आई और बड़े प्रेम से उसका लालन-पालन करने लगी। कुछ दिनों बाद जब भौम कुछ बड़ा हो गया तो वह भगवान सदाशिव जी की तपस्या के लिए मधुवन में चला गया। वहां जाकर उसने उग्र तप किया। वह गर्मियों में चारों तरफ आग जलाकर और सर्दियों में पानी में बैठकर तपस्या करता रहा। इस प्रकार संयम करके उसने भगवान सदाशिवजी महाराज के तीन करोड़ पूजन किये। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सदाशिव ने उसको साक्षात् दर्शन दिये। उसने भगवान सदाशिव की स्तुति करते हुए कहा- प्रभु ! आपने मुझे दर्शन देकर मुझ पर असीम कृपा की है।
मैं आपका दास हूँ। आप मेरे लिए जो उचित समझें सो करें। यह सुनकर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज बोले- भक्त राज! मेरी कृपा से आज से मुक्त हुए और आज से तुम पवित्र मंगल ग्रह के • स्वरूप को प्राप्त करोगे और सब तरह से आनन्द प्राप्त करोगे और परमधाम को प्राप्त करोगे। यह कहकर भगवान श्री सदाशिवजी महाराज अन्तर्ध्यान हो गये और भौम अपने लोक में जाकर परिवार के साथ आनन्द भोगने लगा। वह आयु पर्यन्त भगवान शंकर का पूजन करता रहा। उसके पश्चात् उसने शुक्र लोक से भी ऊपर का लोक प्राप्त किया।
छठवाँ अध्याय
हिमाचल की पत्नी मेनका का शिवजी से वरदान प्राप्त करना
श्री ब्रह्मा जी बोले- हे नारद! भगवान सदाशिवजी से वरदान प्राप्त करके हिमाचल की पत्नी मेनका प्रसन्न चित्त होकर लौटी। कुछ दिनों के पश्चात् उसके यहाँ भगवती जगदम्बे के दिये गये वरदान के अनुसार एक सहस्त्र पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम मेनका तथा क्रोच आदि थे। उनके शरीर बड़े लम्बे तथा बलवान थे। इन पुत्रों के जन्म पर हिमाचल नगर में बड़े भारी उत्सव मनाये गये। ब्राह्मणों को बहुत सा धन दान में दिया गया, इसके पश्चात् महाराज हिमाचल का कार्य सिद्ध करने के लिए भगवती सती हिमाचल के हृदय में प्रविष्ट हो गई।
उस तेज को शुभमुहूर्त में मेनका को दान कर दिया। गर्भाधान के पश्चात् मेनका का शरीर बड़ा ही तेजस्वी मालूम होने लगा। उसको देखकर हिमाचल की यह दशा हो गई कि वह बार-बार मेनका के पास आता था। उससे पूछता था कि उसको किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं है। मेनका लज्जित होकर कुछ उत्तर न देती। गर्भावस्था के संस्कारों को हिमाचल ने बड़ी धूमधाम के साथ मनाया। उस समय भगवान श्री विष्णु ने अन्य देवताओं सहित मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर भवानी की स्तुति की। इसके पश्चात् वह अपने स्थान को वापिस लौट आये, नवाँ मास बीत जाने पर दसवाँ मास आरम्भ हुआ, तब पृथ्वी और आकाश में शुभ शकुन होने लगे। किसी को किसी प्रकार का दुःख न रहा, अशुभ ग्रह छुप गये नदियों में कमल के फूल खिलने लगे और तीनों प्रकार की वायु चलने लगी, ऋषियों-महर्षियों को तेज की प्राप्ति हुई। भक्तों के हृदय प्रसन्न हो गये और आकाश में बाजों का शब्द गूंजने लगा। उस समय गन्धर्व, सिद्ध, चारन, किन्नर, अप्सरा और अपनी स्त्रियों के साथ विद्याधर नृत्य करने लगे। इस प्रकार मधुमास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मृगशिरा नक्षत्र में आधी रात के समय सती
मैना देवी के गर्भ से प्रकट हो गई। ऐसा श्री कल्याण पुराण में लिखा है। उस समय मैं श्री विष्णु जी को साथ लेकर सारी सामग्रियों के साथ उस स्थान पर पहुंचा, विविध प्रकार के बाजे बजने लगे और आकाश में पुष्प वर्षा होने लगी। सभी लोगों ने अपनी बुद्धि के अनुसार सती शिवा की स्तुति की। देवताओं ने कहा- मातेश्वरी ! परमेश्वरी ! आप जगत् माता और हमारे कष्टों को हरने वाली हैं। आप हमारी इच्छाओं को जानती हैं। आप आदिशक्ति हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी आपके पुत्र कहे हैं। तीनों गुण आप में व्याप्त हैं।
आप ब्रह्म स्वरूप सर्वव्यापक हैं। वेद आपकी महिमा का वर्णन करते हैं, लेकिन वह भी आपका पार नहीं पाते। नारद, शारद, शुक और सनकादिक अधिक बोलने वाले हैं, लेकिन वह भी आपका संक्षिप्त सा हाल ही वर्णन कर सकते हैं। आपकी कृपा से मूर्ख भी आपकी स्तुति करते हैं। आप अपने भक्तों को मुक्ति प्रदान करती हैं और करोड़ों कलाओं को आप अपने काबू में किए हुए हैं, आप अहंकार को भक्षण करने वाली हैं, आप ही वेद और वेदान्त हैं।
श्री शिवमहापुराण कोटिरुद्रसंहिता (सातवाँ खण्ड) सातवाँ अध्याय
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