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श्री शिवमहापुराण शतरुद्रसंहिता (छठवाँ खण्ड) प्रथम अध्याय

 



                                                              ॥ ॐ नमः शिवाय ॥


                          श्री शिवमहापुराण शतरुद्रसंहिता (छठवाँ खण्ड)


                                                                    प्रथम अध्याय


शंकरजी व सती का दण्डक वन में जाना सती का सीता का रूप धारण करके राम के सम्मुख जाना


ब्रह्माजी बोले-नारद! एक समय भगवान सदा शिवजी महाराज सती जी को साथ लेकर पृथ्वी पर घूम रहे थे कि उन्होंने देखा कि दण्डक वन में भगवान श्री रामचन्द्रजी महाराज भगवती सीता के वियोग में दुखी फिर रहे थे और लताओं तथा वृक्षों से उनका पता पूछ रहे थे। श्रीरामचन्द्रजी महाराज यह नर-लीला भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज के आदेशानुसार ही कर रहे थे, उनको देखकर भगवान श्रीशंकर जी ने नत मस्तक होकर प्रणाम किया किया और मुख से केवल 'जय' शब्द कहकर आगे बढ़ गये। लेकिन वह अपनी आंखों से बहते प्रेम जल को न रोक सके। भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज को ऐसा करते देखकर सती देवी को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा-स्वामिन! आप तो ब्रह्मा और विष्णु के उत्पन्न करने वाले हैं। फिर वन में विचरते हुए इन दोनों मनुष्यों ( भगवान श्रीराम चन्द्रजी और लक्ष्मण जी) में से आपने जो श्याम वर्ण वाला मनुष्य है, उसको प्रणाम क्यों किया है? और वह दोनों मनुष्य कौन हैं?


भगवान श्री सदाशिव जी महाराज ने उत्तर दिया-देवी! यह दोनों भाई महाराज दशरथ के पुत्र हैं। राम बड़े हैं और लक्ष्मण छोटे छोटे भाई लक्ष्मण श्री शेष नाग का अवतारी है। बड़े भाई साक्षात भगवान विष्णु जी का अवतार है। राम ने साधुजनों के कल्याण, भक्तों की रक्षा और राक्षसों के मारने के लिये ही अवतार धारण किया है। इतना कहकर श्रीसदाशिव तो चुप हो गये, मगर माया से मोहित हुई, सतीजी की शंका पूर्ववत ही बनी रही। यह देखकर भगवान श्रीसदाशिव बोले-देवी! यदि तुमको मेरी बात का विश्वास नहीं है तो तुम स्वयं जाकर राम की परीक्षा कर सकती हो। प्रिये ! जिस प्रकार भी तुम्हारा जी चाहे तुम राम की परीक्षा कर सकती हो। जब तक तुम वापस न लौटोगी, मैं उस सामने वाले वट वृक्ष के नीचे बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। तुम उनको देखकर शीघ्र ही लौट आना। फिर क्या था भगवान श्री सदाशिव की आज्ञा पाकर सतीजी श्री सीताजी का रूप बनाकर राम के मार्ग में विचरने लगी। सोचा कि यदि राम वास्तव में विष्णु का अवतार होंगे तो मुझे पहचान लेंगे अन्यथा नहीं। वह भगवान श्रीरामचन्द्रजी के पास पहुँची।


तो लक्ष्मणजी उनको देखकर तथा सीता समझकर आश्चर्य में पड़ गये। मगर भगवान श्रीरामचन्द्रजी मुस्कराते हुए श्री सतीजी को हाथ जोड़कर कहने लगे-हे सती! भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज इस समय कहाँ हैं जो कि तुम इस प्रकार वन में अकेली घूम रही हो। देवी! तुमने अपना असली रूप त्याग कर यह रूप क्यों धारण कर लिया? भगवान श्रीरामचन्द्रजी महाराज की बात सुनकर सती देवी की शंका का समाधान हो गया और शिवजी महाराज के वचन याद करके वह बड़ी लज्जित हुई और लज्जित होने के साथ-साथ वह घबराई भी। अब वह बात बनाकर कहने लगीं-हे राम! अब कृपया यह बतायें कि भगवान श्री सदाशिवजी महाराज जितना आपके इस रूप से प्रेम करते हैं उतना आपके चतुर्भुज रूप से क्यों नहीं करते? क्योंकि आपको देखकर उनकी आँखों से प्रेम के अश्रु बहने लगे थे। यह सुनकर भगवान श्रीरामचन्द्रजी महाराज के नेत्रों से प्रेम अश्रु बहने लगे और मन ही मन उन्होंने भगवान शिवजी की स्तुति करके कहा-हे सती! श्रीसदाशिव को प्रणाम करते देख जो तुम्हें आश्चर्य हुआ, उसका कारण सुनो-?



                                                                    दूसरा अध्याय

                                                      राम का अपना परिचय देना


 भगवान श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे भवानी! बात बड़ी पुरानी है। एक समय भगवान श्रीसदाशिवजी ने अपने शिवलोक में एक विशाल गौशाला विश्वकर्मा से कहकर बनवाई। फिर उस धेनुशाला में एक विशाल भवन का निर्माण करवाया और उस भवन के मध्य में एक रत्नजड़ित सिंहासन बनवाया। इसके पश्चात उन्होंने उस भवन में एक महोत्सव किया, जिसमें कि उन्होंने सभी देवताओं, शास्त्र-पुत्रों सहित श्रीब्रह्माजी, ऋषि मण्डल, देवियों और अप्सराओं को आमन्त्रित किया। वीणा तथा मृदंग आदि बाजे बजने लगे। सदा शिवजी ने तीर्थों के जल से भरे हुए पाँच घड़े भी मंगवाये और शिवगणों को भेजकर अन्यान्य दिव्य सामग्रियाँ श्री मंगवाई। जब इस प्रकार राज्याभिषेक की सारी सामग्री एकत्रित हो गई तो शंकरजी स्वयं मेरे लोक (विष्णु लोक) में आकर मुझे (विष्णु जी को) अपने साथ उस महोत्सव में ले गए, इसके पश्चात उन्होंने घोर शब्द वाला शंख बजाया। फिर एक उत्तम मुहुर्त देखकर उन्होंने मुझे भक्तिपूर्वक ज्योतिमान रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाया। मुझे बहुत से आभूषण पहनाये। रत्नजड़ित मुकुट मेरे सिर पर रक्खा और इस प्रकार अभिषेक किया और मुझे अपना अखण्ड ऐश्वर्य दिया और श्रद्धा व प्रेम के साथ मेरी स्तुति की फिर तीनों शक्तियों तथा तीनों लोकों का राज्य दिया। देवताओं सहित ब्रह्मा से कहा कि इन्हें प्रणाम करो क्योंकि आज से यह भगवान श्री विष्णुजी सबके स्वामी हैं। 


वेदों में जिस प्रकार तुमने मेरा वर्णन किया है, उसी प्रकार इनका भी करो। सदाशिवजी का आदेश पाकर ब्रह्माजी बोले और समस्त देवताओं ने प्रेमपूर्वक मेरी वन्दना की। ब्रह्माजी और देवमंडल की स्तुति के पश्चात् श्री शंकरजी ने मुझे अनेकों वर दिये। उन्होंने मुझे तीनों लोकों का कर्ता-धर्ता और सहर्ता भी बनाया। धर्म, अर्थ और शासन कर्ता बनाया। मुझे विश्व विजयी बनाया। उन्होंने कहा- हम तुम्हारे भक्तों को मुक्ति प्रदान करेंगे। त्रिभुवन में स्वतन्त्र रूप से लीलायें करने की आज्ञा दी। अनेकों अवतार लेकर संसार के पालन करने का आदेश दिया। अपनी सारी माया मुझे प्रदान की। विष्णुजी! हम आपकी नर-लीला देखेंगे और आपको अपना स्वामी मानेंगे।


हे देवि! इतना कहकर भगवान श्रीसदाशिव उमा सहित कैलाश पर्वत पर लौट गये। यह मेरा राम अवतार है। हम चार भाई हैं। राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न । हे देवि! मैं पिता की आज्ञा से लक्ष्मण और सीता सहित वन  में आया हुआ हूँ, कोई राक्षस मेरी पत्नी को चुरा ले गया है। अतः मैं अब उसको ढूँढ रहा हूँ। माताजी! यदि आपकी कृपा हुई तो मैं अवश्य ही सीता को ढूँढ लूँगा, प्रणाम के सम्बन्ध में निवेदन है कि भगवान सदाशिव ने मुझे अपना स्वामी बनाया था, इसलिए उन्होंने मुझे प्रणाम किया है। यह कहते-कहते भगवान श्रीरामचन्द्रजी के नेत्र श्रीशंकरजी के प्रेम में आर्द्र हो गये और वह सीता जी से आज्ञा लेकर पूर्ववत् वन में विचरने लगे।


                                                                       तीसरा अध्याय

                                                 सती का दुखी होकर शंकरजी के पास लौटना

 सती जी धीरे-धीरे चलती हुई शंकर जी की ओर बढ़ रही और अपने मन में डर रही थी। वह सोच रही थी कि मैंने जो भगवान श्रीरामचन्द्रजी की परीक्षा शंकरजी के समझाने पर भी ली है, इसके सम्बन्ध में जब वह पूछेंगे तो मैं उनको क्या उत्तर दूँगी? जब वह शंकरजी के पास पहुँची तो उन्होंने उनसे पूछा कहो सती तुमने किस प्रकार उनकी परीक्षा ली?


शोक से व्याकुल तथा क्षीण मुख वाली सती ने भगवान सदाशिवजी महाराज की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और वह सिर झुकाकर चुपचाप खड़ी रही। उनको दुखी देखकर भगवान सदाशिव ने ध्यान किया और सतीजी ने जो कुछ भी किया था, सब जान लिया। शंकरजी ने अपने मन में विचार किया कि सती ने सीताजी का रूप बनाया है, अतः अब इनसे प्रेम करना बुरी बात होगी। अब यदि मैं इनसे पूर्ववत स्नेह करूंगा तो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो जायेगी, ऐसा सोचकर शंकरजी सतीजी को साथ लेकर आगे बढ़े। ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई 'भगवान सदाशिव को धन्य है। प्रभु! आपके सिवा तीन लोकों में ऐसा प्रणपालक और कोई भी नहीं है। यह आकाशवाणी सुनकर सती जी अपने मन में डरी और उन्होंने भगवान सदाशिव महाराज से पूछा-'प्रभु! आपने कौन सी ऐसी प्रतिज्ञा की है? लेकिन भगवान विष्णु तथा मेरे (ब्रह्माजी) के आगे की हुई अपनी पूर्व प्रतिज्ञा को भगवान सदाशिव महाराज ने सती जी को न बतलाया और बात को टाल गये। सती जी ने अब भगवान सदाशिव जी महाराज का ध्यान किया और सारी बात जान ली। सब कुछ जानकर सती जी असीम दुखी हो गई। मगर अब क्या हो सकता था? और क्या किया जा सकता था? कैलाश पर्वत पर पहुँचकर भगवान सदाशिवजी महाराज अपने स्वरूप का ध्यान करने लगे और भगवती सती दुखी होकर अपनी करनी के लिये पश्चाताप करने लगीं।

उन्नीस सहस्त्र वर्षों के पश्चात् भगवान सदाशिव जी महाराज ने समाधि खोली। उनके मुख से "ॐ, ॐ" मन्त्र उच्चारण हो रहा था। सतीजी उनके सामने जाकर खड़ी हो गई। भगवान श्रीसदाशिवजी महाराज।


                                                                चौथा अध्याय


                दक्ष का यज्ञ करना तथा शंकरजी व सती को क्रोध के कारण नहीं बुलाना


ब्रह्माजी बोले-हे नारद! दक्ष को बड़ा भारी अहंकार हो गया था। वह अब भगवान सदाशिवजी महाराज को नीचा दिखाना चाहता था। उनको यज्ञ में भाग न देने के विचार से उसने कनखल नामक तीर्थ पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। उस यज्ञ में दक्ष ने ऋषियों, महर्षियों, गंधर्वो विद्याधरों, सिद्धगणों, यज्ञों आदित्य समूहों को और सभी नागों को आमन्त्रित किया। भगवान श्री विष्णुजी महाराज तथा अन्य सभी देवता यज्ञ में पधारे। मैं भी सपरिवार उस यज्ञ में सम्मिलित हुआ। ऋषियों में से महर्षि अगसत्य, महर्षि कश्यप, अत्रि, कामदेव, महर्षि भृगु, दधिचि, भगव्यास, महर्षि भारद्वाज, महर्षि भार्गव, सुमन्त, त्रिक तथा कंक और वैशम्पायन सब के सब दक्ष के यज्ञ में पधारे परन्तु दुरात्मा और इर्षालु दक्ष ने न तो भगवान सदा शिवजी महाराज को और न अपनी पुत्री सतीजी को आमन्त्रित किया। भगवान सदाशिवजी महाराज को यज्ञ में न आया देखकर भगवान शंकर के अनन्य भक्त श्री दधीचि ने देवमण्डल तथा ऋषि मण्डल से पूछा कि भगवान श्री शंकर जी यज्ञ में क्यों नहीं पधारे?



इस पर दक्ष ने व्यंगपूर्ण हँसी हँसते हुए कहा- "इस महायज्ञ में जब देवताओं के मूल भगवान विष्णु जी महाराज आ गये हैं तो शिव के आने की भला क्या आवश्यकता है? श्री ब्रह्माजी के कहने पर मैंने उसको अपनी कन्या दे दी है, वरना उस कुलहीन माता-पिता से रहित, भूत-प्रेतों के स्वामी आत्म अभिमानी, मूर्ख, स्तब्ध मौनी और ईर्ष्या करने वाले का कहीं निर्वाह हो सकता है? मैं उसको इस यज्ञ में आने के योग्य नहीं समझता और इसी विचार से मैंने उसको आज यहाँ आमन्त्रित नहीं किया। मेरे यज्ञ को अब सब लोग मिल कर सफल बनाइये।


दक्ष की यह बात सुनकर यज्ञ में जो भी शंकर भक्त बैठे थे, सबके चेहरे मारे क्रोध के तमतमा उठे। दधीचि अपने स्थान पर खड़ा हो गया। उसने कहा-दक्ष! तुम चाहे जो कहो भगवान श्री सदाशिव जी महाराज के बिना यह यज्ञ कभी भी सम्पूर्ण न हो सकेगा और तुम नष्ट हो जाओगे। हे नारद! इतना कहकर दधीचि उस महामण्डप से निकलकर अपने आश्रम की ओर रवाना हो गये। उनके साथ ही जितने शिव भक्त वहाँ पर उपस्थित थे, वह भी वहाँ से उठकर चले गये। उनके जाने के बाद जितने देवता तथा ऋषि यज्ञ में बैठे थे, सबने भगवान सदाशिव की माया से मोहित होकर यज्ञ की कार्यवाही शुरू कर दी।


जिस समय सब गन्धर्व तथा देवता यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये जा रहे थे तो उस समय श्री सती जी अपनी सखियों के साथ गन्धामादन पर्वत पर घूम रही थी। उन्होंने जब देवता तथा ऋषिगणों को दक्ष के यज्ञ की ओर जाते हुए देखा तो अपनी विजया नामक सखी को चन्द्रमा के पास यह पूछने के लिये भेजा कि यह सब लोग कहाँ जा रहे हैं?


विजया के इस प्रकार पूछने पर रोहिणी ने कहा सतीजी पिता जी दक्ष प्रजापति के यहाँ इस समय एक बड़ा सारी यज्ञ हो रहा है। हम सब उसी में सम्मिलित होने के लिये जा रहे हैं। क्या दक्ष ने अपनी पुत्री सती को आमन्त्रित नहीं किया, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। रोहिणी ने जो विजया से कहा था, उसने आकर वह सब सती जी से कह दिया। जिसको सुनकर सती देवीजी के आश्चर्य की कोई सीमा न रही और बार-बार अपने पिता के भगवान सदाशिव को यज्ञ में आमन्त्रित न करने के सम्बन्ध में विचार करने लगी। इसके पश्चात वह भगवान सदाशिव जी महाराज के पास गई और कहने लगी- “नाथ! मैंने सुना है कि इस समय मेरे पिता के यहाँ यज्ञ हो रहा है। जिसमें कि सब मुक्ति और देवता पधारे हैं क्या आपको मेरे पिता के यज्ञ में सम्मिलित होना नहीं सुहाता? आप सब काम छोड़कर इस समय मुझे साथ लेकर मेरे पिता के यज्ञ में चलिये। सम्बन्धियों का यही धर्म है कि आवश्यकता के समय प्रेम बढ़ाने के लिये उनके पास जावें।"


भगवान शंकर जी को सती देवी की यह बात बिल्कुल नहीं सुहाई। तो भी उन्होंने क्रोध प्रकट नहीं किया और बड़े ही नम्र शब्दों में कहा-देवि! तुम्हारे पिता मुझसे बैर-भाव रखते है। इसलिये उन्होंने मुझे यज्ञ में आमन्त्रित नहीं किया और जो लोग बिना बुलाये किसी दूसरे के घर जाते हैं, उनको मरण से भी अधिक अपमान सहना पड़ता है। यह सर्वथा सत्य है कि बाणों से छिदने पर भी मनुष्य का हृदय इतना दुखी नहीं होता, जितना कि अपने सम्बन्धियों के आक्षेप से होता है, अतः मुझे और तुमको उस यज्ञ में न जाना चाहिए।


यह सुनकर सती क्रोध में भर गई। उन्होंने कहा- प्रभु मेरे पिता की आपसे क्या शत्रुता है? इस पर भगवान शंकर जी ने पिछले यज्ञ का सारा वृतान्त सतीजी को कह सुनाया। लेकिन सती ने भगवान श्री सदाशिव की एक न मानी और कहने लगी हे शम्भो! बिना आपके गये यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हो सकता। मेरे मूर्ख पिता ने यज्ञ में नहीं बुलाया अतः मैं यह जानना चाहती हूँ कि उसने ऐसा क्यों किया है? अतः मुझे वहाँ जाने की आज्ञा दीजिये। मैं वहाँ जाकर देखूँगी कि आपके बिना भला यह यज्ञ किस प्रकार पूरा होता है। श्रीसती की बात मान भगवान सदाशिवजी महाराज ने उनको यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी और कहा कि तुम नन्दी पर चढ़कर जाओ और साठ हजार गण उनके साथ कर दिये। भगवान की अनुमति पाकर सतीजी वस्त्राभूषण धारण करके अपने पिता के यज्ञ की ओर चल दी और रोद्र गण भी नृत्य व गान करते हुए उनके साथ हो गए।


                                                             पाँचवाँ अध्याय

                    सती का यज्ञ में भाग लेना तथा यज्ञ में उनका अपमानित होना


श्री ब्रह्माजी बोले- हे नारद जी! सती जी यज्ञ में पहुँची लेकिन वहाँ किसी ने उनका आदर नहीं किया किसी ने पूछा तक नहीं। दक्ष के डर से उसके अनुचरों में से भी उसके साथ कोई नहीं बोला। केवल उनकी माता तथा बहिनों ने यथोचित सम्मान किया। यह सब देखकर सतीजी को भगवान सदा शिवजी की बात याद आई कि जो लोग बिना बुलाये दूसरे के घर जाते हैं, वह मरने से भी अधिक अपमान पाते हैं। वह यज्ञ मण्डल में गई। वहाँ पर भगवान सदाशिव महाराज का भाग (स्थान) न देखकर उनके क्रोध का पारावार न रहा। पहले तो उन्होंने सोचा कि अपनी क्रोधाग्नि से अपने पिता को भस्म कर डालूँ। कुछ सोचकर रूक गई। एक बार उन्होंने यज्ञ में बैठे हुए सभी लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखकर अपने पिता दक्ष की ओर सम्बोधित करके कहा- "पिता जी! कहो आपने भगवान श्री शिव को यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया ? जान पड़ता है जैसे कि आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। भगवान सदाशिव जी त्रिलोकी के मालिक और अन्तर्यामी हैं, उनका अपमान करके तुम्हारा यह यज्ञ कभी सफल नहीं होगा। इतना कहकर सती जी ने वहाँ उपस्थित सभी देवताओं को भली भाँति धमकाया। भगवान विष्णु महाराज को तो उन्होंने बहुत लज्जित किया। श्री सतीजी की बात सुनकर दक्ष ने क्रोध में भर कर कहा-'ए लड़की! तू भला इस प्रकार की बातें क्यों कर रही है। मेरा तेरा पुत्री व पिता का सम्बन्ध आज से समाप्त है। यदि चुपचाप यहाँ बैठ सकती है तो बैठ जा, वरना चली जा। तेरा पति भूतों, प्रेतों का राजा है, चिता की भस्म लगाने वाला तथा दम्भी है। वह वेद बहिष्कृत अकुलीत तथा अमंगलित है, इन कारणों से मैंने उसको अपने यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया। मैं तो उसके साथ तेरा विवाह करके अत्यन्त लज्जित हूँ, अतएव तुझको अपना क्रोध त्याग देना चाहिए।'


यह सुनकर सती देवी जी क्रोध में भरकर बोली-किसी को भी भगवान शिव की निन्दा कभी न सुननी चाहिए और शिव निन्दक की तो जिव्हा खींच लेनी चाहिए। यदि भगवन श्री सदाशिव जी महाराज की निन्दा सुनने वाला अपने में शिव निन्दक की जिव्हा खींचने की शक्ति न रखता हो तो फिर अपने दोनों कानों में अंगुलियाँ देकर उनको बन्द कर ले या वहाँ से उठकर चला जावे या अपने आपको भस्म कर डाले। वरना उसके लोक परलोक दोनों का सुख नष्ट हो जाता है। भगवान श्रीसदाशिव जी महाराज की निन्दा करने वाला तब तक नरक में वास करेगा, जब तक कि इस संसार में सूर्य व चन्द्रमा स्थित हैं।


                                                           छठवाँ अध्याय


           अपमानित होने पर सती का क्रोधित होना तथा सती का अग्नि में प्रवेश करना


हे नारद! ऐसा कहकर सती देवी सोचने लगी कि मुझे भगवान सदाशिव जी महाराज का कहा मानना चाहिए था और यहाँ नहीं आना चाहिए था। यदि मैं यहाँ न आई होती तो मुझे अपने स्वामी की निन्दा न सुननी पड़ती। वह एक बार फिर क्रोध में भर गई। उन्होंने गरज कर कहा- 'हे सभासदो! तुम जो इस समय भगवान सदाशिव जी महाराज की निन्दा सुनकर हँस रहे हो, इसका फल तुम्हें शीघ्र ही भोगना पड़ेगा। तुमसे से बहुत से मारे जावेंगे और बहुत सो के अंग कट जावेंगे, बहुत से भागकर अपने प्राण बचायेंगे। हे दक्ष! तुम्हें भी अपनी करनी का फल भोगना पड़ेगा। तुम बहुत दुख पाओगे। भगवान सदाशिव जी महाराज सबके हितैषी हैं। उनको न किसी से शत्रुता है, न किसी से मित्रता, ब्रह्मा और विष्णु उनके मित्र हैं। ऐसे शक्तिशाली और ऐश्वर्यशाली सदाशिवजी महाराज के बिना तुम हो क्या वस्तु! और उनके बिना यह यज्ञ वृथा है? वेदों में कहा गया है जो किसी गुणशील में कलंक लगाये वह अधर्म है, किसी के पाप पुण्य का वर्णन करने वाला मध्यम और किसी के पाप छिपाकर उसकी प्रशंसा करने वाला उत्तम है, इन सब में से वह उत्तम हैं जो दूसरों की प्रशंसा करने में लगे रहते हैं और किसी की निन्दा नहीं करते। 


अतएव मैंने जान लिया है कि तुम महानीच हो क्योंकि तुम भगवान सदाशिव महाराज के निन्दक हो। तुम्हारे इस पापी शरीर के संयोग से जो मेरा शरीर बना है, वह अब किसी प्रकार से भी भगवान सदाशिवजी महाराज की सेवा के योग्य नहीं है। अतएव मैं अग्नि में प्रवेश करके अपने शरीर का त्याग कर दूँगी। इतना कहकर सती यज्ञशाला में उत्तर की ओर मुँह करके बैठ गई। भगवान सदाशिव जी महाराज के चरणों में ध्यान लगाया, आचमन किया, नेत्रों को बन्द किया और सबके देखते ही देखते योगाग्नि द्वारा अपना शरीर भस्म कर डाला। बस फिर क्या था चहुँ ओर हा-हाकार मच गया। शिवगण हाथों में विभिन्न आकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हुए और यज्ञ को नष्ट करना आरम्भ कर दिया।



         श्री शिवमहापुराण शतरुद्रसंहिता (छठवाँ खण्ड ) सातवाँ अध्याय












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