॥ ॐ नमः शिवाय ॥
श्री शिव महापुराण रुद्रसंहिता पाँचवाँ (युद्ध) खण्ड
प्रथम अध्याय
ब्रह्मा जी का भगवती जगदम्बा की स्तुति करना तथा उनसे कहना कि दक्ष के यहाँ उमा नाम से जन्म लेकर शिवजी से विवाह करे
श्री ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब दक्ष तप करने के लिए मंदिराचल पर्वत को चले गये तो मैंने भी कठिन व्रत धारण करके श्री जगदम्बा का ध्यान किया और स्वयं स्तुति निर्माण करके उनको सुनाई, जगदम्बा प्रसन्न होकर प्रगट हो गई। जगदम्बा के श्रीअंगों की कान्ति उदयकाल के सहस्त्रों सूर्यों के समान थी। वह अपने हाथों में खंग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशूण्डि, मस्तक और शंक धारण किए हुए थीं। उनके तीन नेत्र थे। वह समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित थीं। मैंने उनके दर्शन किए। नतमस्तक होकर उनको प्रणाम किया और स्तुति करके उनको प्रसन्न किया। हे ब्राह्मण! तुमने किस उद्देश्य के लिए मेरी स्तुति की है, शीघ्र कहो। इस पर मैंने हाथ जोड़कर कहा-मातेश्वरी! रुद्र नामक भगवान सदाशिव ने मेरा अपमान किया है। मेरी कामना है कि आप सती का रूप धारण करके उनके मद को चूर्ण करें। आप दक्ष की कन्या बनकर भगवान सदाशिव को मोहित करें। भगवती आपको छोड़कर मुझमें, विष्णु में या किसी और में उनको मोहने की शक्ति नहीं है। आपको कन्या रूप में प्राप्त करने के लिए दक्ष मन्दिराचल पर्वत पर उग्र तप कर रहे हैं।
मेरे इस प्रकार कहने पर भगवती आश्चर्य में पड़ गई और चिन्तित भी हो गई। उन्होंने कहा- यह आज तुम कैसी बातें कर रहे हो ब्रह्माजी? भगवान श्री सदाशिव के मोहने का भाव और इसके लिए मुझसे सहायता। जो कुछ तुम कर रहे हो यह भगवान सदाशिव की निन्दा है। यह तुम्हारी भूल है। सभी जानते हैं कि मैं भगवान श्री सदाशिव के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकती। तुम ही बताओ भला निर्विकल्प भगवान शंकर को मोहित करने से तुम्हें क्या लाभ होगा, मैं तो उनकी एक तुच्छ दासी हूँ। उन्होंने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही रुद्र अवतार धारण किया है। भगवान सदाशिव तीनों लोकों के स्वामी हैं। तुम्हारे ( श्रीब्रह्माजी के) और विष्णुजी के स्वामी हैं। योग में भी वह तुम दोनों से बढ़कर हैं। मैं विस्मित हूँ कि यह विमूढ़ता तुममें कहाँ से आ गई? माया के स्वामी को ब्रह्मा मोहना चाहता है, आश्चर्य है।
इतना कहकर देवी ध्यानावस्था में हो गई। उसी अवस्था में उनको भगवान श्रीसदाशिव की ओर से आज्ञा हुई कि मेरी इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। मेरी ही इच्छा से श्रीब्रह्मा और दक्ष तप कर रहे हैं। तुम उनको वरदान देकर दक्ष प्रजापति के यहाँ अवतार धारण करो मैं तुम्हें ग्रहण करूँगा।
भगवान श्रीसदाशिव की आज्ञा पाकर देवी भगवती ने श्री ब्रह्माजी से कहा- अच्छी बात है। मैं इसका प्रयत्न करूँगी कि शिवजी जिससे मोहित होकर स्वयं ही दूसरा विवाह कर लेवें। शंकर जी को मोहने वाली इस | संसार में कोई नहीं है, मैं भी इतनी क्षमता नहीं रखती। उनको मोहित करना मेरी शक्ति से बाहर है फिर भी उनको मोहित करने की चेष्टा करूंगी और अवतार लेकर तुम्हारी मनोकामना पूरी करुँगी। इतना कहकर जगदम्बा अन्तर्ध्यान हो गई।
दूसरा अध्याय
जगदम्बा के द्वारा दक्ष प्रजापति को वर देना नारदजी ने पूछा- प्रभु! फिर क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले- भगवती जिस समय मुझे वर देकर अन्तर्ध्यान हो गई, उस समय दक्ष प्रजापति मन्दिराचल पर्वत पर उग्र तप कर रहे थे। वह पूरे तीन सहस्र वर्षों तक तप करते रहे। वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नि तप कर और शीतकाल में जल में प्रविष्ट होकर तप करते रहे, अपने तप के बीच में उन्होंने प्राणायामों की सिद्धि प्राप्त कर ली। भगवती ने प्रसन्न होकर दक्ष प्रजापति को प्रत्यक्ष दर्शन दिये। भगवती शिवा सब कुछ जानती थी। उन्होंने दक्ष प्रजापति से कहा- मैं तुम्हारी तपस्या से अधिक प्रसन्न हूँ, अतः वर माँगो ।
दक्ष प्रजापति ने हाथ जोड़कर कहा- देवी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे घर में मेरी पुत्री बनकर जन्म लीजिये। दूसरे स्वामी भगवान सदाशिव ने रुद्र नाम से ब्रह्मा के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया है। हे देवी! आपका अभी तक अवतार नहीं हुआ है। अब प्रश्न उठता है कि उनकी पत्नी कौन हो? वह तो आप ही हो सकती हैं। ब्रह्माजी ने इस कार्य के लिए ही मुझे यहाँ मन्दिराचल पर्वत पर तप करने के लिए भेजा था। अब आप ही अपनी मोहिनी माया से सदाशिव को मोहित करके संसार का उपकार कीजिए। इस पर श्री जगदम्बा ने कहा- 'ऐसा ही होगा।' मैं तुम्हारी स्त्री के गर्भ से पुत्री रूप होकर जन्म लूँगी और भगवान सदाशिव को अपनाने के लिए कठिन तप करूँगी। एक बात को स्मरण रखना, वह यह है कि तुम अहंकार बिल्कुल नहीं करना। यदि अहंकार करोगे तो तुम्हारा अहंकार नष्ट हो जायेगा।
इतना कहकर भगवती शिवा अन्तर्ध्यान हो गई। वहाँ से लौटकर दक्ष प्रजापति ने बहुत सी मानसी सृष्टि की और दस हजार पुत्र उत्पन्न किए। मगर वह सबके सब तुम्हारे (नारद ऋषि के) उपदेश से वैरागी हो गए यह देखकर दक्ष को बड़ा भारी दुख हुआ और उसने तुमको क्रोध में भर शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कही पर भी न रुक पाओगे। इस प्रकार तुमको शाप देकर वह तनिक शांत हो गये और मैथुनी सृष्टि का विचार किया। इसके पश्चात उन्होंने पंचजन्या से हजारों पुत्र उत्पन्न किये। यह पुत्र भी अपने बड़े भाइयों की भाँति वैरागी हो गये। इसके पश्चात उन्होंने अपनी स्त्री के गर्भ से साठ कन्यायें उत्पन्न की। जिनमें से उन्होंने दस कन्यायें धर्म को, तेरह कश्यप, दो भूतोंगिरस, दो कृशाश्व और शेष गरुड़ साथ ब्याह दी। जिनकी सन्तानों से तीनों लोक भर गये। इन साठ कन्याओं के उत्पन्न होने के पश्चात दक्ष प्रजापति को भगवती उमा ने दर्शन देकर कहा- प्रजापते जो तुमने मुझे कन्या के रूप में लेने के लिए तपस्या की थी मेरे कथनानुसार तुम्हारा अभीष्ट अवश्य सिद्ध होगा। उसके लिये तुमको तप करना होगा। दक्ष से इस प्रकार कहकर भगवती दक्ष प्रजापति की पत्नी के पास जाकर बालरूप धारण करके लेट गई और रोने लगी।
तीसरा अध्याय
जगदम्बा का दक्ष के यहाँ उत्पन्न होना
बस फिर क्या था, जगदम्बा का रोना सुनकर दक्ष प्रजापति के महलों में आनन्द की लहर दौड़ गई। कन्या का रूप देखकर सारी स्त्रियाँ हर्षित हो गई और सारे नगरवासी जय-जयकार करने लगे। गाने बजाने के साथ बड़ा भारी उत्सव हुआ। विष्णु तथा सभी देवता एकत्र होकर प्रजापति के महल में पहुंचे और जगत माता की स्तुति करने लगे। अप्सरायें नृत्य तथा गान करने लगीं। तब देवताओं ने कहा-देवी आप समस्त विश्व की मालकिन हैं। आप आदिशक्ति तथा समस्त जगत् की माता हैं। आपकी महिमा वेद भी नहीं जान सकते। आपने जिस कार्य के लिए अवतार धारण किया है, उसको पूर्ण कीजिये। श्री ब्रह्माजी ने कहा-नारद! इस प्रकार स्तुति करके समस्त देवता अपने-अपने स्थान को वापस चले गये। वीरणी ने भवगती के दर्शन करने के साथ ही जान लिया कि मेरे गर्भ से जगदम्बा ने जन्म लिया है। भगवती ने प्रत्यक्ष रूप से वीरणी को अपने दर्शन भी करवा दिये लेकिन उसके तुरन्त बाद ही उसको अपनी माया में विभोर कर दिया।
चौथा अध्याय
जगदम्बा के जन्म की सूचना मिलने पर दक्ष का हर्षित होना और उनकी स्तुति करना
दक्ष को जब जगदम्बा के जन्म की सूचना मिली तो वह बड़े हर्षित हुए और भवानी के पास जाकर इस प्रकार स्तुति करने लगे। कल्याणी! आपने बड़ी कृपा की जो मेरी प्रार्थना स्वीकार करके मेरे यहाँ जन्म लिया । आपके मेरे यहाँ जन्म लेने से मेरे बन्धु बाँधव और सारा संसार धन्य हो गया है। मातेश्वरी! आपकी महिमा अपरम्पार है। उसे सुर, मुनि, नारद और शारद इत्यादि भी वर्णन नहीं कर सकते। सनकादिक और व्यास आदि भी आपकी महिमा का वर्णन नहीं कर सके। शुम्भ निशुम्भ इत्यादि अधर्म तथा पापी राक्षस भी आपके साथ वैर-भाव रखकर ब्रह्म पद को पा गये हैं। अब आप समय के अनुसार, हमें अपनी बाल लीला दिखाकर आनन्द प्रदान कीजिये।
इस प्रकार माता वीरणी तथा पिता दक्ष की स्तुति सुनकर जगतजननी भगवती जगदम्बे ने कहा- तुम लोगों ने मेरे जन्म के लिये उग्र तप किया है। तभी मैंने तुम्हारी इच्छा की पूर्ति के लिये यह जन्म धारण किया है और तुम्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। अब मैं अपनी मानव लीला करने के लिये जा रही हूँ। मगर तुम मेरे स्वरूप को भूल न जाना और अहंकार न करना, ऐसा कहकर भगवती पुनः कन्या स्वरूप हो गई और रोने लगी। दक्ष ने भगवती का नाम उमा रक्खा। उमा अब प्रजापति के महलों में शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिनानुदिन बढ़ने लगी और श्री सदाशिव का ध्यान करने लगी। लेकिन वह आठों पहर का ध्यान किसी पर प्रकट न होने देती थी। ज्यों-ज्यों वह बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों उसके मुख की कान्ति भी बढ़ती जाती थी। उसके रूप की यह दशा थी कि देखकर कामदेव भी लज्जित हो जाते थे।
पाँचवाँ अध्याय
ब्रह्मा तथा नारद के कहने पर जगदम्बा का शंकरजी से विवाह के लिए उपासना करना
ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! एक समय तब वही संसार सारभूत सती अपने पिता दक्ष की गोदी में बैठी तब मैंने तुम्हारे साथ जाकर उसे देखा और दक्ष ने हमको देखकर मुझको तथा तुमको भी प्रणाम किया। तब दक्ष ने सती से कहा कि पितामह को प्रणाम करो। कहने के अनुसार उसने हमें भी भक्ति से प्रणाम किया। सती को देखकर हम दोनों नम्र हो उनके द्वारा दिये गये आसन पर बैठ गये और सती से बोले कि जगदम्बे! जो तुम्हें चाहते हैं तथा जिन्हें तुम चाहती हो क्या ऐसे जगदीश्वर की तुम पत्नी बनोगी? ऐसा कह हम दक्ष की पूजा को स्वीकार कर अपने स्थान को लौट आये। जब सती कुमारावस्था को प्राप्त हुई तो प्रजापति को उनके विवाह की चिन्ता लग गई। तब पिता के मन की बात को जानकर सती माता के पास पहुँचकर कहने लगी कि हे माता! आप मेरे लिये त्रिलोकपति महादेव को प्रसन्न करने के लिये आज्ञा प्रदान करो। माता के घर में ही शिव की उपासना आरम्भ कर दी।
बारह महीने की सविधि पूजा की तथा भोग लगाया। फिर उस नंदा व्रत को समाप्त कर सती ने अनन्यभाव धारण किया और शिव आराधना में लीन रहने लगी। उस समय मैं विष्णु भगवान तथा अन्य देवता गणों सहित सती की घोर तपस्या को देखने के लिए गये। सती भगवान शिव की लीला में अपना चित्त लगाती हुई ध्यानावस्था में मग्न थी। हम सब देवताओं ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया। विष्णु जी ने आश्चर्य सहित सती की भावना का आदर करते सती को प्रणा हुए उनकी प्रशंसा की। फिर सब देवता सती को प्रणाम करके शिवलोक कैलाश को चल दिये। लक्ष्मी सहित विष्णु तथा सावित्री सहित मैं भी शंकरजी के लोक को गया। वहाँ शिवजी को देखकर हमने प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तब उस स्तुति को सुन कर सृष्टिकर्ता शिवजी प्रसन्न होकर हँसने लगे और हम सबके आगमन का कारण पूछने लगे। इस पर मैंने कहा- हे करुणा सागर! हे प्रभो! हम दोनों ऋषियों तथा देवताओं को साथ लाने का प्रयोजन बताते हैं। आज आपसे ही हमारा विशेष कार्य है। हम सब आपकी सहायता चाहते हैं अन्यथा आपके बिना यह संसार ही नहीं रहेगा। हे महेश्वर! हम सब मिलकर ही तो सृष्टि की रचना, संहार, पालन करेंगे। परन्तु जब आप वैरागी होकर असुरों को मारेंगे ही नहीं तो यह सृष्टि किस प्रकार चलेगी। अतः आप इस कार्य में सहयोग प्रदान कीजिये। जब सृष्टि स्थित संहार न होगा तब मायाकृत भेद भी समाप्त हो जायेगा। कार्य भेद से ही हम तीनों विभिन्न हैं, नहीं तो एक ही रूप है। यदि कार्य भेद न हो तो रूप भेद व्यर्थ है। एक ही परमात्मा महेश्वर माया के कारण तीन प्रकार के हो गये हैं, परन्तु लीला में भिन्न तथा स्वतन्त्र हैं। आपसे ही हमारी उत्पत्ति हुई है। अतः हम दोनों शिव तथा शिव के पुत्र हुए। हम दोनों पत्नीक हो गए।
अतएव आप भी अब भार्या रूप में अपनी कोई स्त्री ग्रहण कीजिए। आपने पहले भी कहा था कि जब मैं रुद्रावतार धारण करूंगा तब संहार्ता तथा स्त्री को धारण कर इस संसार का कार्य करूँगा। अब आप अपनी उस प्रतिज्ञा को पूर्ण कीजिए, क्योंकि बिना आपके मैं सृष्टि के कार्य को करने में समर्थ नहीं हो पाता। अतएव इस संसार कार्य करने हेतु एक स्त्री को ग्रहण कीजिए। जब मैंने ऐसा कहा तो विष्णु के समीप ही भगवान लोकेश इस प्रकार बोले कि हे ब्रह्मा! हे विष्णु ! तुम दोनों मुझे बहुत प्रिय हो तुम्हें देखकर मुझे बड़ा आनन्द आता है। इसलिये तुम दोनों ही सर्व देवों में श्रेष्ठ हो और तीनों लोकों के स्वामी हो। तुम्हारा यह लोक परायण कथन बड़े ही महत्व का है। परन्तु हे देव श्रेष्ठ! मुझे यह विवाह करना उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि मैं एक तपस्वी विरक्त एक योगी हो गया हूँ। मुझ अवधूत को स्त्री से क्या प्रयोजन। मुझे तो केवल योग में ही आनन्द आता है। काम की इच्छा तो अज्ञानी ही करते हैं। विवाह लोक बन्धन है। मेरी उसमें कुछ भी रुचि नहीं है। परन्तु आपके कथनानुसार मैं संसार का कल्याण कर्ता ही रहूँगा, मैं • तुम्हारे सारगर्भित वचनों को सर्वदा मानता ही रहूँगा। अगर तुम हठ करोगे तो भक्तों के आधीन होने के कारण विवाह भी कर लूँगा, जिससे कि तुम्हारे विचार में मेरा आवश्यक कर्तव्य भी पूरा हो जावे।
परन्तु पहले आप उस कामिनी रूपिनी उस योगिन को तो उपदेश दीजिए। जो विभागपूर्वक मेरे तेज को संवरण कर सके। जब मैं कामासक्त होऊ तो वह कामिनी बन जाये। जब मैं योगी होऊँ तो वह योगिनी बन जावे। वह मेरी विघ्न करने वाली न हो, नहीं तो मेरा भविष्य चौपट हो जायेगा। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तीनों ही महाभाग शिव के ही अंग हैं। अतएव हमको उन्हीं का चिन्तन करना चाहिए। हे ब्रह्मण मैं उसी ब्रह्म के चिन्तन में अविवाहित रहता हूँ। अस्तु पहले मेरी अनुकर्णी को यह उपदेश दें कि वह मेरी विश्वास योगिनी बने। यदि उसे मेरे वचनों पर विश्वास न होगा तो मैं उसे त्याग दूंगा। ऐसे वचन कैलाशपति के सुनकर मैं तथा विष्णु मन में बड़े प्रसन्न हुए। हँसकर हम परमेश्वर से कहने लगे कि हे नाथ! हे महेश! आपके योग्य हम एक स्त्री बतलाते हैं। जिस लक्ष्मी ने पहले दो रूप धारण किये थे, वही लक्ष्मी अब तीसरे रूप में उमा नाम से प्रकट हुई है।
लक्ष्मी तथा रमा ने तो अपना पति बना लिया परन्तु उमा अभी किसी की स्त्री नहीं हुई हैं, उन्होंने प्रजापति दक्ष के यहाँ सती नाम से जन्म लिया है, वही आपकी सब प्रकार से हित कारिणी होगी। वही महातेजवती दृढ़ होकर आपको अपने पति रूप में पाने के लिए व्रत कर रही हैं। हे महेश्वर! आप उस पर दया कर वर दीजिये तथा वर देकर उसे अपनी ग्रहणी बना लीजिये। हे शंकर जी! मेरी विष्णु जी तथा सभी देवताओं की ओर से यही प्रार्थना है, इसे पूर्ण कर दीजिये। आपके विवाहोत्सव को देखने की हमें बहुत शीघ्र अभिलाषा है। मैंने अच्युत भगवान से कहा कि मेरे कहने से जो कुछ बच गया है, अब आप कह दीजिये। विष्णु ने भी सती से विवाह करने के लिए शंकर भगवान से अनुरोध किया, तब शंकर भगवान ने दयाभाव से तथास्तु अर्थात ऐसा ही हो कह कर हम सबको विदा किया।
छठवाँ अध्याय
सती की तपस्या से शंकर जी का प्रसन्न होकर वर देना
नारद जी बोले- कि हे पितामह ! आगे क्या हुआ सो सब हाल कहिए। तब ब्रह्मा जी कहने लगे कि नारद सुनो। मेरे तथा विष्णु जी और सभी देवतागणों के इस कथन पर विचार कर शंकर भगवान सती को दर्शन देने के लिए प्रजापति दक्ष के घर पधारे। उधर सती ने फिर से नन्दी का व्रत शुरू कर दिया था। सती की तपस्या को देखकर शंकर भगवान बहुत प्रसन्न हुए। शंकर जी को देखकर सती ने लज्जा से अपना मुख झुका लिया। फिर भगवान शंकर जी के चरणों में प्रणाम किया, तब शिवजी महाराज बोले कि हे सती! मैं तुम्हारी इस कठिन तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। हे सुबते! हे दक्ष पुत्री! मैं तुम्हारे इन व्रतों से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ, तुम मुझसे अपना इच्छित वर माँगो शंकर भगवान तो अन्तर्यामी हैं, परन्तु सती के वचनों को सुनने के लिए उन्होंने 'वर माँगो' ऐसा वचन कहा। तब तो सती अपने मन में बहुत लज्जा युक्त हो गई। उनके हृदय में जो कुछ था वह लज्जावश कह न सकी। उनके अभीष्ट को लज्जा ने अपने आवरण में ढक लिया। सती शिव वचनों को सुनकर उनके अगाध प्रेम में मग्न हो गई। शिवजी महाराज सती को देखकर अपने मन में प्रसन्न हुए तथा फिर सती से वर माँगो, वर-माँगो ऐसा वचन कहने लगे। तब सती अपने लज्जा के आवरण से बाहर निकल कर इस प्रकार बोली कि हे नाथ! ब्रह्माण्ड देवाधिदेव! आपको जो रूचिकर हो वही वर मुझको दीजिये। सती का अभी वचन पूरा भी नहीं हुआ था कि शंकर भगवान ने कहा कि हे सती ! तुम मेरी अधिकारिणी बन जाओ, ऐसा कह कर उन्होंने सती को उक्त वर दे दिया।
सती इच्छित वर पाकर अपने चित्त में अति प्रसन्न हुई। फिर कामना युक्त श्री शिवजी के समक्ष खड़ी होकर अपने मन में हर्षचित्त होकर कामना पूर्ण हाव-भाव प्रदर्शित करने लगी। शिवजी में श्रृंगार का भाव जागृत हो उठा। फिर तो उन दोनों की छवि चन्द्रमा के समान अपूर्व शोभायुक्त हो गई। तब सती नम्र भाव होकर तथा हाथ जोड़कर विनीत भाव से शंकर भगवान से कहने लगी कि हे कैलाशपति ! हे संहारकर्ता ! हे सृष्टि रचियता! मुझको मेरे पिता दक्ष के समक्ष विवाह वेद रीति से आप ग्रहण करो। सती की ऐसी वाणी को सुनकर हर्ष से पुलकित भक्तों के हितकारी भगवान शिवजी ने उन्हें अपने अभीष्ट प्रेम से देखा तथा कहा- एवमस्तु ! सती जी भगवान शंकर को मोह हर्ष से युक्त समझ आज्ञा ले अपनी माता के पास आई। शिवजी हिमालय पर अपने आश्रमयुक्त कुटिया पर पहुँचे। सती को देखकर उनको अब विरह की पीड़ा आरम्भ हो गई और उनकी ध्यान योग क्रिया विघ्न पैदा हो गया। अब उन्होंने सांसारिक गति की ओर आगमन किया। फिर शंकर जी ने मन को स्थिर कर मुझ ब्रह्मा को स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही मैं उनके समक्ष तुम्हारी माता सरस्वती सहित जा पहुँचा। तब शंकर भगवान मुझको सरस्वती सहित देखकर तथा सती प्रेम से प्रेरित होकर मुझसे ऐसे वचन कहने लगे कि हे ब्रह्मा! इस समय मैं स्वार्थ के वशीभूत हो गया हूँ। अतः तुम शीघ्र ही प्रजापति दक्ष के निकट जाकर सती को प्राप्त करने का कोई हल खोज निकालो, जिससे मेरी विरह पीड़ा कम हो सके।
ऐसा कहकर शिवजी सरस्वती सहित मुझे देखकर काम के वशीभूत होकर वियोगी हो गये। भगवान शिव की आज्ञा पाकर मैंने तुरन्त अपने रथ में बैठकर दक्ष के यहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया। जब मैं प्रजापति दक्ष के पास पहुंचा तो सती अपनी सखी के द्वारा भगवान शंकर द्वारा प्राप्त वर का वृतान्त अपने माता-पिता से कह रही थीं तथा सती की वर प्राप्ति के कारण सती के माता-पिता अपने मन में बहुत प्रसन्न हुए तथा उत्सव मनाने लगे । मुझको वहाँ देखकर मेरे पुत्र दक्ष ने अपने मन में प्रसन्न होकर मुझको प्रणाम किया तथा सती के द्वारा अपना वृतांत कहा। मैंने भी शंकर भगवान के लिए अपनी बात पुत्र से कही तो दक्ष बहुत प्रसन्न होकर कहने लगा कि पितामह ! यह तो बहुत ही प्रसन्नता का विषय है। मुझे सती को भगवान सदाशिव की सेवा के लिए देने में कोई बाधा नहीं है। मैं दक्ष के ऐसे वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ तथा वहाँ से वापस चल दिया। इधर दक्ष प्रसन्नचित्त होकर उत्सव मनाने लगा।
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